मेरी महदूद बसारत का नतीजा निकला
मेरी महदूद बसारत का नतीजा निकला
आसमाँ मेरे तसव्वुर से भी हल्का निकला
रोज़-ए-अव्वल से है फ़ितरत का रक़ीब आदम-ज़ाद
धूप निकली तो मिरे जिस्म से साया निकला
सर-ए-दरिया था चराग़ाँ कि अजल रक़्स में थी
बुलबुला जब कोई टूटा तो शरारा निकला
बात जब थी कि सर-ए-शाम फ़रोज़ाँ होता
रात जब ख़त्म हुई सुब्ह का तारा निकला
मुद्दतों बा'द जो रोया हूँ तो ये सोचता हूँ
आज तो सीना-ए-सहरा से भी दरिया निकला
कुछ न था कुछ भी न था जब मिरे आसार खुदे
एक दिल था सो कई जगह से टूटा निकला
लोग शहपारा-ए-यक-जाई जिसे समझे थे
अपनी ख़ल्वत से जो निकला तो बिखरता निकला
मेरा ईसार मिरे ज़ो'म में बे-अज्र न था
और मैं अपनी अदालत में भी झूटा निकला
मैं तो समझा था बहुत सर्द है ज़ाहिद का मिज़ाज
उस के अंदर तो क़यामत का तमाशा निकला
वही बे-अंत ख़ला है वही बे-सम्त सफ़र
मेरा घर मेरे लिए आलम-ए-बाला निकला
ज़िंदगी रेत के ज़र्रात की गिनती थी 'नदीम'
क्या सितम है कि अदम भी वही सहरा निकला
- पुस्तक : Intekhab-e-Kulliyat-e-ahmed Nadeem Qasmi (पृष्ठ 71)
- रचनाकार : Ahmed Nadeem Qasmi
- प्रकाशन : Farid Book Depot (Pvt.) Ltd. (2004)
- संस्करण : 2004
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.