जो देखो मिरे शेर-ए-तर की तरफ़
जो देखो मिरे शेर-ए-तर की तरफ़
तो माइल न हो फिर गुहर की तरफ़
कोई दाद-ए-दिल आह किस से करे
हर इक है सो उस फ़ित्ना-गर की तरफ़
मोहब्बत ने शायद कि दी दिल को आग
धुआँ सा है कुछ इस नगर की तरफ़
लगीं हैं हज़ारों ही आँखें उधर
इक आशोब है उस के घर की तरफ़
बहुत रंग मिलता है देखो कभू
हमारी तरफ़ से सहर की तरफ़
ब-ख़ुद किस को उस ताब-ए-रुख़ ने रखा
करे कौन शम्स-ओ-क़मर की तरफ़
न समझा गया अब्र क्या देख कर
हुआ था मिरी चश्म-ए-तर की तरफ़
टपकता है पलकों से ख़ूँ मुत्तसिल
नहीं देखते हम जिगर की तरफ़
मुनासिब नहीं हाल-ए-आशिक़ से सब्र
रखे है ये दारू ज़रर की तरफ़
किसे मंज़िल-ए-दिलकश-ए-दहर में
नहीं मील ख़ातिर सफ़र की तरफ़
रग-ए-जाँ कब आती है आँखों में 'मीर'
गए हैं मिज़ाज उस कमर की तरफ़
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 1, ग़ज़ल नंo- 0251
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