इक तू ही नहीं नासिया-फ़रसा मिरे आगे
इक तू ही नहीं नासिया-फ़रसा मिरे आगे
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
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इक तू ही नहीं नासिया-फ़रसा मिरे आगे
हर शख़्स है महरूम-ए-तमन्ना मिरे आगे
ऐ ज़ीस्त तुझे याद हैं अंदाज़-ए-जुनूँ-ख़ेज़
जब ज़रा-ए-सहरा भी था सहरा मिरे आगे
वो दौर कि दरिया भी था इक क़तरा-ए-बे-आब
अब क़तरा-ए-बे-आब है दरिया मिरे आगे
ऐ दावर-ए-महशर वो घड़ी याद है तुझ को
जब लाया गया मेरा सरापा मिरे आगे
रोता है मिरा जज़्बा-ए-दिल देख के मजनूँ
बे-पर्दा चली आती है लैला मिरे आगे
लिक्खा है तिरा नाम समुंदर पे हवा ने
ऐ दोस्त न कर उस का यूँ चर्चा मिरे आगे
यूसुफ़ तो है कनआन में पाबंद-ए-सलासिल
शीशे में उतरती है ज़ुलेख़ा मेरे आगे
ऐ आह अगर छोड़ दूँ मैं ज़ब्त का दामन
उड़ने लगे ख़ाक-ए-रुख़-ए-सहरा मिरे आगे
बुलबुल का लहू कूचा-ए-क़ातिल में बहा यूँ
जैसे हो कोई मौजा-ए-दरिया मिरे आगे
अफ़सोस हुआ बंद सनम-ख़ाना-ए-आज़र
नासेह न सुना आ के ये मुज़्दा मिरे आगे
वो फ़ित्ना-ए-महशर है मगर मोहर-ब-लब है
जैसे हो कोई मोम की गुड़िया मिरे आगे
ज़ाहिद के लिए खोल दे मयख़ाने का दर आज
बिस्मिल सा तड़पता है ये प्यासा मिरे आगे
तासीर न होती जो मिरी चश्म-ए-फ़ुसूँ में
शीशे सा न साक़ी कभी गिरता मिरे आगे
ख़ुश-बख़्त था वो दौर 'मुज़फ़्फ़र' कि चमन में
टूटा न कभी शाख़ से ग़ुंचा मिरे आगे
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