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मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे

अब्दुल अहद साज़

मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे

अब्दुल अहद साज़

MORE BYअब्दुल अहद साज़

    मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे

    सबात-ए-फ़न मगर दिल अज़ीमतें माँगे

    उफ़ुक़ पे हुस्न-ए-अदा के तुलू-ए-मेहर-ए-ख़याल

    फ़ज़ा-ए-शेर सहर की लताफ़तें माँगे

    मुसिर है 'अक़्ल कि मंतिक़ में आए उक़्दा-ए-जाँ

    क़दम क़दम पे मगर दिल बशारतें माँगे

    नई उड़ान को कम हैं ये ज़ौक़ के शहपर

    नई हवाओं का हर ख़म ज़िहानतें माँगे

    शु'ऊर के क़द-ओ-क़ामत पे है नज़र किस की

    ये फ़र्बा-चश्म ज़माना जसामतें माँगे

    नफ़ीस सहल नहीं वज़-ए-शेर की तदरीज

    हर एक सोच दिगर-गूँ सी हालतें माँगे

    सुकून-ए-तूल-ए-वफ़ा है तलब की कोताही

    कि लम्स-ए-याद धड़कती जसारतें माँगे

    शुआ-ए-मेहर से धुल जाएँ जैसे माह नज्म

    तिरा ख़याल अनोखी तहारतें माँगे

    पूछ 'साज़' को वो तो सराब वालों से

    फिरे है कासा-ए-दिल में हक़ीक़तें माँगे

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    अब्दुल अहद साज़

    अब्दुल अहद साज़,

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