मोहब्बत आग बन जाती है सीना में निहाँ हो कर
मोहब्बत आग बन जाती है सीना में निहाँ हो कर
तमन्नाएँ जला देती हैं दिल चिंगारियाँ हो कर
इधर भी तुम उधर भी तुम यहाँ भी तुम वहाँ भी तुम
ये तुम ने क्या क़यामत की निगाहों से निहाँ हो कर
समझते हैं जिसे मंज़िल फ़रेब-ए-राह-ए-मंज़िल है
मगर चुप हूँ ये मजबूरी शरीक-ए-कारवाँ हो कर
उन्हें भी दास्तान-ए-हिज्र चुपके से सुना ही दी
सुकून-ए-शाम-ए-ग़म बन कर सितारों की ज़बाँ हो कर
सहर होनी से पहले ही गुलाबी हो गए आँसू
शफ़क़ फूली हमारी दास्तान-ए-ख़ूँ-चकाँ हो कर
उन्हें नींद आ रही है या मिरी तक़दीर सोती है
थपकते हैं किसी नाले शब-ए-ग़म लोरियाँ हो कर
नुक़ूश-ए-आरज़ू मिट मिट के उभरे ख़ून होने को
बिसात-ए-कहकशाँ बन कर शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ हो कर
चराग़-ए-आरज़ू यूँ झिलमिला कर बुझ गया आख़िर
दम-ए-आख़िर किसी की याद आई हिचकियाँ हो कर
ख़ुसूसिय्यत का 'तालिब' हूँ 'अदावत हो मोहब्बत हो
मुझी को बस सताए जाइए ना-मेहरबाँ हो कर
- पुस्तक : Shakh-e-nabat (पृष्ठ 109)
- रचनाकार : Talib Baghpati
- प्रकाशन : Munshi har pashad Press Bulandshahar (1354)
- संस्करण : 1354
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