मुश्तइ'ल हो गया वो ग़ुंचा-दहन दानिस्ता
मुश्तइ'ल हो गया वो ग़ुंचा-दहन दानिस्ता
आ गई लफ़्ज़ों में क्यूँ उस के चुभन दानिस्ता
जब भी लाया है वो माथे पे शिकन दानिस्ता
यूँ लगा जैसे हुआ चाँद-गहन दानिस्ता
ठेस लगती है अना को तो बरस पड़ते हैं
लब-कुशा होते नहीं अहल-ए-सुख़न दानिस्ता
सर-बुलंदी हमें मंज़ूर थी हक़ की ख़ातिर
इस लिए चूम लिए दार-ओ-रसन दानिस्ता
जितने भी अहल-ए-सियासत हैं वतन-दुश्मन हैं
सब ने फूँका है मोहब्बत का चमन दानिस्ता
ये भी सच ईंट का पत्थर से दिया हम ने जवाब
ये भी सच बैर है उन से न जलन दानिस्ता
इस से बेहतर कहाँ इज़हार-ए-ग़म-ए-दिल करते
यूँ तराशा किए लफ़्ज़ों के बदन दानिस्ता
उस से दुश्मन ही नहीं मौत भी कतराएगी
जिस ने भी बाँध लिया सर से कफ़न दानिस्ता
शायद इस दौर की तहज़ीब को ग़ैरत आए
हम ने छेड़ी है हिकायात-ए-कुहन दानिस्ता
जिस को वो चाहे अता कर दे ये वस्फ़-ए-तक़्दीस
कौन पाता है ग़ज़ल कहने का फ़न दानिस्ता
सहमे सहमे से हैं पेड़ों पे परिंदे ऐ 'शम्स'
उस ने घोली है फ़ज़ाओं में घुटन दानिस्ता
- पुस्तक : Gubar-e-shams (पृष्ठ 51)
- रचनाकार : Shams Ramzi
- प्रकाशन : Urdu Tahzeeb, Delhi (1997)
- संस्करण : 1997
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