न बाज़ आए तुम अपनी हाँ कहते कहते
न बाज़ आए तुम अपनी हाँ कहते कहते
मगर थक गई ये ज़बाँ कहते कहते
ज़बरदस्त ज़िद ने किया दिल को ज़ख़्मी
जिगर शक़ हुआ हाँ में हाँ कहते कहते
बचे ख़ूब बातिल की आराईयों से
हर इक बात पर अल-अमाँ कहते कहते
किसी की न देखी कभी मेहरबानी
ज़बाँ थक गई मेहरबाँ कहते कहते
उभरती गईं ता'न-ओ-तिश्ना से क़ौमें
निशाँ बन गया बे-निशाँ कहते कहते
हमें तुम ने आख़िर कहीं का न रक्खा
ज़माने की नैरंगियाँ कहते कहते
न तफ़रीक़ कुछ दोस्त दुश्मन में रक्खी
हुए बद-गुमाँ बद-गुमाँ कहते कहते
किया शौक़ ने रोज़-ए-रौशन में ज़ाहिर
खुला राज़-ए-बातिन निहाँ कहते कहते
लगे हाथ मलने ज़माने के ग़ाफ़िल
हुइ ख़त्म जब दास्ताँ कहते कहते
इसी तरह आया है राह-ए-अमल पर
जहाँ का हर इक कारवाँ कहते कहते
मगर तुम न समझे नसीहत किसी की
ज़मीं बन गई आसमाँ कहते कहते कहते
न मायूस हो क़ौम से अपनी 'कुब्रा'
कि टल जाएगी ये ख़िज़ाँ कहते कहते
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