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नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता है

सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम

नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता है

सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम

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    नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता है

    ख़मोशी को भी इक तर्ज़-ए-बयाँ कहना ही पड़ता है

    जहाँ हर-गाम पर सज्दे टपकते हैं जबीनों से

    वहाँ हर नक़्श-ए-पा आस्ताँ कहना ही पड़ता है

    जहाँ लब कोशिश-ए-इज़हार-ए-मतलब को तरसते हैं

    वहाँ हर साँस को इक दास्ताँ कहना ही पड़ता है

    अगर क़ल्ब-ओ-नज़र में वुसअ'तें हों तेरे जल्वों की

    ख़िज़ाँ को भी बहार-ए-जावेदाँ कहना ही पड़ता है

    कहाँ आसूदगी दिल की कहाँ अफ़्सुर्दगी लेकिन

    असीरी-ए-क़फ़स को आशियाँ कहना ही पड़ता है

    हम उन से माजरा दर्द-ए-दिल कहते नहीं लेकिन

    ब-अंदाज़-ए-हदीस-ए-दीगराँ कहना ही पड़ता है

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