पाबंदी-ए-इज़हार की ला'नत ही अलग है
पाबंदी-ए-इज़हार की ला'नत ही अलग है
ख़ामोश ज़बानों की हिकायत ही अलग है
जो तुम ने सितम ढाए हैं वो और हैं लेकिन
इस दर्द-ए-जुदाई की अज़िय्यत ही अलग है
तुम ने तो अदाओं से बहुत क़त्ल किए हैं
अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल की क़यामत ही अलग है
होंटों से तो होते हैं अदा हर्फ़-ए-मोहब्बत
आँखों के इशारे की वज़ाहत ही अलग है
ता-हद्द-ए-नज़र दीद के क़ाबिल हैं नज़ारे
लेकिन तिरे दीदार की हसरत ही अलग है
इशरत-कदा-ए-दहर में क्या क्या नहीं लेकिन
तेरे लब-ओ-रुख़्सार की जन्नत ही अलग है
पढ़ते हैं बड़े शौक़ से अर्बाब-ए-अदब भी
'अजमल' तिरे अशआ'र की नुदरत ही अलग है
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