रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
मैं भी ता-सुब्ह रखी बुलबुल-ए-गुलज़ार से बहस
नौ-बहाराँ में वो हो जावे है क्यूँ सुर्ख़ मगर
दाग़-ए-दिल को है मिरे लाला-ए-कुहसार से बहस
तालिब-इल्म-ए-मोहब्बत जो मैं था तिफ़्ली में
थी नित आँखों की मिरे हुस्न-ए-रुख़-ए-यार से बहस
सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
न तो तकरार है काफ़िर से न दीं-दार से बहस
सौ ज़बाँ गो हुईं मुँह में तिरे ऐ ग़ुंचा-ए-गुल
तुझ को लाज़िम नहीं करना मिरी मिन्क़ार से बहस
शेवा हर-चंद कि अपना नहीं तालिब-इल्मी
तो भी मौजूद हैं हम करने को दो-चार से बहस
यूँ हुई हार गले का मिरे वो नर्गिस-ए-मस्त
जूँ करे राह में कोई किसी होशियार से बहस
हों वो दीवाना कि इक शब भी जो मैं घर में रहूँ
रात को सुब्ह करूँ कर दर-ओ-दीवार से बहस
अक़ल-ए-कुल ने नहीं इल्ज़ाम दिया उस को हुसूद
दूर हो, कर न अबस 'मुसहफ़ी'-ए-ज़ार से बहस
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii (पृष्ठ 110)
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