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शब-ए-तारीक में पैदा सहर करना भी आता है

बिस्मिल सईदी

शब-ए-तारीक में पैदा सहर करना भी आता है

बिस्मिल सईदी

MORE BYबिस्मिल सईदी

    शब-ए-तारीक में पैदा सहर करना भी आता है

    हमें दाग़-ए-जिगर को जल्वा-गर करना भी आता है

    बदल जाती हैं जब हम से निगाहें शादमानी की

    हमें ना-शादमानी में बसर करना भी आता है

    तरब की शाह-राहें बंद हो जाती हैं जब हम पर

    सर-ए-राह-ए-अलम चल कर सफ़र करना भी आता है

    ग़ुबार-ए-कारवाँ-बरसर हैं राहों में मगर हम को

    ग़ुरूर-ए-हमरहाँ को पै-सिपर करना भी आता है

    बचाते हैं निगाहें ख़ाक के ज़र्रों से भी लेकिन

    हमें अफ़्लाक पर नक़्द-ओ-नज़र करना भी आता है

    जो दिन कटते नहीं तक़दीर के ज़ेर-ए-असर हम से

    उन्हें तदबीर के ज़ेर-ए-असर करना भी आता है

    सुजूद-ए-बंदगी की ना-पज़ीराई की ग़ैरत से

    जबीन-ए-शौक़ को बेज़ार-ए-दर करना भी आता है

    ग़ुरूर-ए-चारा-गर जब दर्द की हद से गुज़र जाए

    हमें इतलाक़-ए-दरमाँ दर्द पर करना भी आता है

    ज़माने के बुलंद-ओ-पस्त के नर्ग़े में हैं लेकिन

    ज़माने को हमें ज़ेर-ओ-ज़बर करना भी आता है

    नज़र को ठोकरों में रखने वालो जल्वा-गाहों में

    हमें जलवों को पामाल-ए-नज़र करना भी आता है

    मिला कर अपनी क़िस्मत के सितारे ख़ाक में 'बिस्मिल'

    हमें ज़र्रों को ख़ुर्शीद-ओ-क़मर करना भी आता है

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