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तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

MORE BYमुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

    तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ

    ज़िंदगानी का भला कौन सा अस्बाब है याँ

    चाह-ए-सीमाब से सीमाब जो जोशाँ है हनूज़

    मैं समझता हूँ कि मदफ़ूँ कोई बेताब है याँ

    ख़म-ए-अबरू की तिरे क्यूँके तारीफ़ करूँ

    इस से बेहतर भी कोई तेग़-ए-सियह-ताब है याँ

    मक़्तल-ए-इश्क़ की भी क्या ही है जा-ए-खटकी

    कि सर और सज्दा है मेहराब है याँ

    मेरी तुर्बत के तो आँगन में ठहरा इक दम

    ये तिरे जी में आया शब-ए-महताब है याँ

    कुश्तगाँ को तिरी शमशीर यही कहती है

    कीजिए इस पे क़नाअ'त तो दम-ए-आब है याँ

    इस को भी गर फ़लक देख सके चर वाले

    और तो क्या है परेशानी का अस्बाब है याँ

    एतिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के

    फ़िल-हक़ीक़त तो कोई ख़ाँ है नव्वाब है याँ

    ख़ाक तुर्बत की मिरी देख चमकती अहबाब

    जी में कहते हैं मगर मादन-ए-सीमाब है याँ

    क्या ख़त-ए-आशिक़-ओ-माशूक़ को कोई समझे

    कुछ किनायत सी है आदाब अलक़ाब है याँ

    'मुसहफ़ी' आप ही हम क़त्ल हैं अपने हाथों

    वर्ना कीं ख़्वाह तू रुस्तम है सोहराब है याँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(divan-e-soom) (पृष्ठ 148)

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