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वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले

अहमद फ़राज़

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले

अहमद फ़राज़

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    वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले

    मुझ से या-रब मिरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले

    अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने

    दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले

    मैं तो उस सुब्ह-ए-दरख़्शाँ को तवंगर जानूँ

    जो मिरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले

    तू ग़नी है मगर इतनी हैं शराइत तेरी

    वो मोहब्बत जो हमें रास आई ले ले

    ऐसा नादान ख़रीदार भी कोई होगा

    जो तिरे ग़म के एवज़ सारी ख़ुदाई ले ले

    अपने दीवान को गलियों में लिए फिरता हूँ

    है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई ले ले

    मेरी ख़ातिर सही अपनी अना की ख़ातिर

    अपने बंदों से तो पिंदार-ए-ख़ुदाई ले ले

    और क्या नज़्र करूँ ग़म-ए-दिलदार-ए-फ़राज़

    ज़िंदगी जो ग़म-ए-दुनिया से बचाई ले ले

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    अहमद फ़राज़

    अहमद फ़राज़

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat-e-ahmad faraaz (पृष्ठ 259)
    • रचनाकार : Ahmad faraz
    • प्रकाशन : Fareed book depot(pvt)ltd (2010)
    • संस्करण : 2010

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