Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

अब्दुल मजीद सालिक

शोरिश काश्मीरी

अब्दुल मजीद सालिक

शोरिश काश्मीरी

MORE BYशोरिश काश्मीरी

    होश की आँख खोली तो घर भर में मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ का चर्चा था। “ज़मींदार” की बदौलत ख़ास क़िस्म के अलफ़ाज़ ज़बान पर चढ़े हुए थे। उन्ही अलफ़ाज़ में एक टोडी का लफ़्ज़ भी था। ज़मींदार ने इसको ख़ालिस वुस्अत दे दी थी कि मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ के अलफ़ाज़ में रास कुमारी से लेकर श्रीनगर तक, सिलहट से लेकर ख़ैबर तक इस लफ़्ज़ का ग़लग़ला मचा हुआ था, जिस शख़्स का नाता बिलावास्ता या बिलवास्ता बर्तानवी हुकूमत से उस्तुवार था वो फ़िल-जुमला टोडी था। उस ज़माने में हमें सियासियात के पेच-ओ-ख़म से ज़्यादा वाक़फ़ियत थी हमने टोडी के मफ़हूम को और भी महदूद कर रखा था, वो तमाम लोग जो मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ के मुख़ालिफ़ थे या जिन्हें मौलाना से इख़्तिलाफ़ था हमारे नज़दीक टोडी थे।

    अब चूँकि इन्क़िलाब के दोनों मुदीर (मेहर-ओ-सालिक) ज़मींदार के मुक़ाबले में थे और मौलाना से कट के इन्क़िलाब निकाला था, लिहाज़ा हमारे नज़दीक उनका उर्फ़ या तख़ल्लुस भी टोडी था। फिर ये हफ़्तों या महीनों की बात थी, बरसों तक यही ख़्याल ज़ेहन पर नक़्श रहा हत्ता कि एक दहाई बीत गई। दूसरी दहाई के शुरू में ये लफ़्ज़ किसी हद तक कुचला गया और उसकी जगह बा’ज़ मस्तूर अलफ़ाज़ रिवाज पा गए, मसलन रज्अत पसंद, कासा लैस वग़ैरा, इन अलफ़ाज़ में दुश्नाम की बदमज़गी तो थी लेकिन हक़ारत का मख़्फ़ी इज़हार ज़रूर था। बिलआख़िर उन हजविया अलफ़ाज़ का ज़ोर भी टूट गया। ये तमाम अलफ़ाज़ फुलजड़ी का सा समां बाँध कर ठंडे पड़ गए। जिन तहरीकों के साथ उनका शबाब था उनके ख़त्म होते ही उनकी रौनक़ भी मुरझा गई और उनका तज़्किरा सियासी अफ़्क़ार के अजाइबघरों की ज़ीनत हो गया।

    इस दौरान सालिक साहब से कई एक मुलाक़ातें हुईं, दफ़्तर ज़मींदार ही में उनसे तआरुफ़ हुआ लेकिन उस तआरुफ़ से सिर्फ़ अलैक सलैक का रास्ता खुला। वो अपनी ज़ात में मुसतग़्रिक़ थे हम अपने ख़्याल में मुनहमिक, तास्सुर यही रहा कि सालिक साहब टोडी और इन्क़िलाब टोडी बच्चा है।

    सालिक साहब हमें क्या रसीद देते वो बड़े-बड़ों को ख़ातिर में लाते थे। उधर ज़मींदार ने हमें यहाँ तक फ़रेफ़्ता कर रखा था कि इन्क़िलाब को हमने ख़ुद ही ममनू क़रार दे लिया था। पांच-सात बरस इसी में निकल गए। दूसरी जंग-ए-अज़ीम शुरू हुई तो लम्बी लम्बी क़ैदों का सिलसिला शुरू हो गया। हम कोई दस ग्यारह नौजवान मिंटगुमरी सेंट्रल जेल में रखे गए। सख़्त क़िस्म की तन्हाई में दिन गुज़ारना मुश्किल था, क़िर्तास-ओ-क़लम मौक़ूफ़, कुतुब-ओ-रसाइल पर क़दग़न, जराइद-ओ-सहाइफ़ पर एहतिसाब, यहाँ तक कि अज़ीज़ों के ख़त भी रोक लिए जाते। वहशतनाक तन्हाई का ज़माना। जेल के अफ़सरों से बारहा मुतालिबा किया कि अख़बार मुहय्या करें लेकिन हर इस्तिदआ मुस्तरद होती रही। जब पानी सर से गुज़र गया तो हमने भूक हड़ताल कर दी, नतीजतन हुकूमत को झुकना पड़ा। “सिविल” और “इन्क़िलाब” मिलने लगे। हमारे वार्ड का इंचार्ज एक मज़हबी सिख सरदार शेर सिंह था, काला भुजंग, बद हैयत और बदरू। क़ैदियों को सताने में उसे ख़ास लुत्फ़ महसूस होता, यही उसकी ख़ुसूसियत थी। चूँकि अख़बार उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मिले थे और उसे सेंसर करने का इख़्तियार था लिहाज़ा हर रोज़ अख़बार के मुख़्तलिफ़ सफ़े क़ैंची से इस तरह काटता कि सारा अख़बार बेमज़ा हो जाता, सियासी ख़बरें तो बिल्कुल ही कट के आती थीं। यही ज़माना था जब अफ़्क़ार-ओ-हवादिस से रोज़मर्रा की दिलचस्पी पैदा हुई। शेर सिंह को पता चला कि अफ़्क़ार-ओ-हवादिस बाजमाअत पढ़े और सुने जाते हैं तो उसने अफ़्क़ार-ओ-हवादिस काटना शुरू किए। पहले दिन हमारा ख़्याल था कि कोई सियासी ख़बर काटी होगी। जब हर-रोज़ क़ैंची चलने लगी तो हमने शेर सिंह को मुतवज्जा किया, वो मामूल के मुताबिक़ तरह दे गया। हमने एहतिजाज किया उसका भी उस पर कोई असर हुआ, हमने भूक हड़ताल की धमकी दी, वो मुस्कुरा के टाल गया। आख़िरकार भूक हड़ताल की नीव उठाई तो वो अगले ही रोज़ पसपा हो गया। अफ़्क़ार-ओ-हवादिस मिक़राज़ से महफ़ूज़ हो गए। बज़ाहिर ये एक लतीफ़ा था कि जिस अख़बार को हम सरकारी मुनाद समझते और जिस कालम में क़ौमी तहरीकों या क़ौमी शख़्सियतों पर सबसे ज़्यादा फब्तियां कसी जाती थीं हमने उसे भूक हड़ताल करके हासिल किया।

    ग़रज़ अफ़्क़ार-ओ-हवादिस की अदबी दिलकशी का ये आलम था कि हम उसकी चोटें सह कर लुत्फ़ महसूस करते। सियासी तास्सुर तो हमारा वही रहा जो पहले दिन से था, लेकिन उसकी अदबी वज़ाहत के शेफ़्ता हो गए। मेहर साहब के इदारिए एक ख़ास रंग में ढले होते, उनमें तहरीर की दिलकशी और इस्तिदलाल की ख़ूबी दोनों का इम्तिज़ाज था। सालिक साहब अफ़्क़ार-ओ-हवादिस में मताइबात की चाशनी और तनज़ियात की शीरीनी इस तरह समोते थे। जी बाग़ बाग़ हो जाता, महसूस होता गोया हम मैकदे में हैं कि रिन्दान-ए-दर्द आशाम तल्ख़ काम हो कर भी ख़ुश काम हो रहे हैं।

    साथियों का एक मख़सूस गिरोह था, जिसमें जंग की वुस्अतों और शिद्दतों के बाइस इज़ाफ़ा होता रहा। मैं मिंटगुमरी सेंट्रल जेल से तब्दील हो कर लाहौर सेंट्रल जेल में गया तो पहला मसला इन्क़िलाब ही के हुसूल का था। सय्यद अमीर शाह (जेलर) की बदौलत फ़ौरन ही इंतज़ाम हो गया। ग़रज़ क़ैद का ये सारा ज़माना इन्क़िलाब से आश्नाई में कट गया। रिहा हुआ तो सालिक साहब से उनके दफ़्तर में जाके मिला। मेहर साहब उस वक़्त मौजूद नहीं थे। उनसे खुला-डला तआरुफ़ था, सालिक साहब तपाक से मिले। ये सुनकर उन्हें ताज्जुब हुआ कि पांच साल क़ैद कटवाने के बावजूद सरकार ने मुझे थाना अनारकली के हुदूद में नज़रबंद कर दिया और तहरीर-ओ-तक़रीर पर पाबंदी का... है। उन्होंने अगले ही रोज़ शज़रा लिखा जिसमें हुकूमत को मश्वरा दिया कि इन नारवा पाबंदियों को वापस ले-ले, घंटा डेढ़ घंटा की इस मुलाक़ात में वो फुलजड़ियाँ छोड़ते रहे। बातों को संवारना, गुफ़्तगू को तराशना, उनसे लताइफ़ निकालना उनकी तबीयत का वस्फ़-ए-ख़ास था। इस मुआमला में उनकी तक़रीर, तहरीर से ज़्यादा दिलफ़रेब होती। इंसान उकताता ही नहीं था। एक-आध दफ़ा पहले भी ये मश्वरा दे चुके थे और अब के भी यही ज़ोर देते रहे कि सियासियात में अपने आपको ज़ाए करो, सलाहियतों से फ़ायदा उठाओ और किताब-ओ-क़लम के हो जाओ। अब जो उनसे ताल्लुक़ात बढ़ने लगे तो दिनों ही में बढ़के वसीअ हो गए। ये ज़माना अंग्रेज़ी हुकूमत के हिंदुस्तान से रुख़सत होने का था। बर्तानवी सरकार के आख़िरी दो साल थे। अहरार से रोज़नामा “आज़ाद” निकाल रखा था, “इन्क़िलाब” पंजाब के मुस्लिम लीग लीडरों की मर्ज़ी के मुताबिक़ था। लिहाज़ा मातूब था।

    तमाम मुल्क में फ़साद-ओ-इंतिशार से आग लगी हुई थी। इस अफ़रातफ़री के दिनों ही में सालिक साहब से मुलाक़ात के मज़ीद रास्ते खुले। ख़लवत-ओ-जलवत में उनका अंदाज़ा होने लगा। सियासियात से क़त-ए-नज़र ये बात ज़ेहन में आगई कि वो हमारे मफ़रूज़े से मुख़्तलिफ़ इंसान हैं बल्कि ख़ूब इंसान हैं। ये बात बुरी तरह महसूस हुई कि बा’ज़ लोग मुस्तआर असबियतों की वजह से बदनाम होते हैं। और इंसान बिला तजरबा अपने दिमाग़ में मफ़रुज़े क़ायम करके उन्हें हक़ीक़तें बना देता है लेकिन जब यही लोग तजरबा या मुशाहदा में आते हैं तो मालूम होता है कि पासिंग का सोना हैं। इसके बरअक्स बहुत से लोग तजरबा-ओ-मुशाहदा में आने के बाद दूर का ढोल निकलते हैं, उनकी हमसुह्बती उनके ख़त-ओ-ख़ाल को आशकार कर देती है।

    सालिक साहब को मुस्तआर असबियतों से देखा तो उनकी शगुफ़्ता तस्वीर बन सकी, यही बावर किया कि ख़्वान इस्तेमार के ज़िल्ला रुबा हैं। क़रीब से देखा तो एक रौशन तस्वीर निकले। सय्यद अताउल्लाह शाह बुख़ारी फ़सादात में अमृतसर के तूफ़ानों से निकल कर लाहौर में थे। उन्होंने इस तस्वीर को और भी चमका दिया।

    ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना

    उन्हें सालिक से मिले हुए कई बरस हो चुके थे। लाहौर में उनके क़ियाम की बदौलत दफ़्तर अहरार में मेला सा लगा रहा, ये सिलसिला कोई डेढ़ बरस जारी रहा। इस सारे अरसे में सालिक साहब का ज़िक्र भी कई दफ़ा आया बल्कि आता ही रहा। शाह जी उनसे केह किए हुए थे लेकिन उनकी तारीफ़ करते और उस तारीफ़ में यहाँ तक फ़य्याज़ थे कि सालिक की क़समें खाते। मसलन फ़रमाते कि उसकी जवानी बेदाग़ रही है, वो एक शरीफ़ इंसान है, उसमें एक अदीब का हुस्न है, उसको अख़्बार नवीसी के दाव पेंच आते हैं, वो क़ाबिल-ए-एतिमाद दोस्त है, वो दग़ाबाज़ नहीं, उसके नफ़्स ने कभी ख़यानत नहीं की वग़ैरा। और जब उनसे कोई शख़्स ये कहता कि आपने उनके साथ इतने बरस से बोल-चाल क्यों बंद कर रखी है तो शाह जी आबदीदा हो जाते, फ़रमाते, मैंने ताल्लुक़ात का इन्क़िता नहीं किया, उसने ख़ुद किनारा किया है।

    और जब ये अर्ज़ करते कि आपस में सुलह सफ़ाई कर लीजिए तो ज़रा तुर्श हो जाते। फ़रमाते, जी नहीं मैं उससे क़यामत तक नहीं बोलूँगा। उसने मेरा दिल दुखाया है, मैं उसको क्यों कर माफ़ कर सकता हूँ, मुझे उसके बिछड़ जाने का क़लक़ है, क़लम से जो नश्तर उसने लगाए हैं दिल का नासूर हैं, ये उसी का बोया हुआ है जो हम काट रहे हैं और वो ख़ुद भी काट रहा है। सालिक साहब से तज़्किरा होता कि शाह जी आपके बारे में ये कहते हैं तो वो भी ख़फ़ी ख़्वाहिश को दबा जाते। फ़रमाते कि शाह जी तो बच्चों की सी बातें करते हैं, भला ये उम्र अब ताने मेहनों की है। दोनों तरफ़ दिलों में सुलह सफ़ाई की उमंग मौजूद थी। लेकिन दोनों को बारिश के पहले क़तरे का इंतज़ार था। आख़िर एक रोज़ बरखा हो गई। सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम ने शाह जी को दफ़्तर अहरार से उठाया और अहमद शाह बुख़ारी (पतरस मरहूम) की कोठी पर ले गए, वहाँ सालिक साहब पहले से मौजूद थे। सूरत-ए-हाल ये थी,

    वो हमसे ख़फ़ा हैं हम उनसे ख़फ़ा हैं

    मगर बात करने को जी चाहता है

    नज़रें चार हुईं, सारा गिला जाता रहा, शाम गलख़प में कट गई। रात-भर पतरस, सालिक, तबस्सुम और शाह लाहौर की सड़कों पर आवारा फिरते रहे। शाह जी और सालिक दोनों ख़ुश आवाज़ थे। शाह जी हाफ़िज़ की इस ग़ज़ल का मिसरा-ए-ऊला उठाते, सालिक मिसरा-ए-सानी। इसी में निस्फ़ रात कट गई।

    दर-ईं ज़माना रफ़ीक़ी कि ख़ाली अज़ ख़लल अस्त

    सुराही मय ताब-ओ-सफ़ीन-ए-ग़ज़ल अस्त

    शाह जी ख़ुद रावी थे कि उस रात हमने अपनी शख़्सियतों को अपने वजूद से ख़ारिज कर दिया था। अक्सर राहगीरों को हैरत होती कि शुरफ़ा क़िस्म लोग मोटर में इस तरह टापते फिर रहे हैं। ग़रज़ शाह जी और सालिक साहब इस मुराजअत और मुफ़ाहमत से बेहद ख़ुश थे। पाकिस्तान और हिंदुस्तान आबाद हो गए तो इन्क़िलाब आरिज़ी तौर पर बंद हो गया। शाह जी लाहौर से उठकर मुज़फ़्फ़र गढ़ चले गए। मैंने आज़ाद जारी रखना चाहा लेकिन पराया पंछी था फिर से उड़ गया। “चट्टान” का डिक्लरेशन ले चुका था, उसको जारी करने का इरादा किया। अहरार के दफ़्तर से चोट खाकर वीरा होटल में आगया। चट्टान निकाला, सालिक साहब बेहद ख़ुश हुए ख़ैर मक़्दम का एक दिलावेज़ ख़त लिखा जो पहले शुमारे में शाए हुआ। हालात मामूल पर आगए तो इन्क़िलाब दोबारा जारी करने का क़िस्सा किया। इन्क़िलाब का अपना दफ़्तर फ़सादात की वजह से तबाह हो चुका था। उन्हें दफ़्तर की तलाश थी, मैंने अपने दफ़्तर का एक बड़ा हिस्सा उन्हें दे दिया और वो उसमें फ़िरोकश हो गए। इन्क़िलाब दोबारा जारी हुआ लेकिन ज़माना मुवाफ़िक़-ए-हाल था, साल छः महीने बाद बंद हो गया, सालिक साहब उस ज़माने में ख़ासे परेशान थे, ताहम उनका फ़ुक़्र इस्ति़ग़ना हैरत-अंगेज़ था। अपने चेहरे मुहरे से कभी परेशानी का इज़हार किया। यही दिन थे जब उनसे ताल्लुक़ात और भी गहरे हो गए। मजीद मलिक उन दिनों मर्कज़ी हुकूमत में प्रिंसिपल इन्फ़ार्मेशन ऑफीसर थे। ख़्वाजा नाज़िमुद्दीन की वज़ारत का ज़माना था, उनकी तक़ारीर लिखने के लिए मजीद मलिक ने सालिक साहब को कराची बुला लिया और वहाँ अठारह सौ रुपये माहवार पर ये ख़िदमत सौंप दी। सालिक साहब वहाँ तीन चार साल रहे, सारा अरसा उनसे ख़त-ओ-किताबत का तानता बंधा रहा। मैं ख़त लिखने में ज़रा सुस्त था, वो ख़त लिखते और इतने प्यारे ख़त लिखते कि सतर सतर से उस की शख़्सियत फूटी पड़ती। इस सारे अरसे में उन्होंने कोई दो सौ ख़त लिखें होंगे, फिर 1951 ई. से ये शिआर बना लिया था कि हरसाल के पहले शुमारे में “चट्टान” का इफ़्तिताहिया लिखते। उस इदारिये में इतनी हौसला अफ़रोज़ और नुक्ता आफ़रीं बातें होतीं कि हम में ख़ुद एतिमादी पैदा होती। वो बड़ का दरख़्त थे कि उसके साये में कोई पौदा ही नहीं खिलता, वो सूरज और हवा की तरह मेहरबान थे। दूसरों का दिल बढ़ाना बिलख़सूस नौजवानों को उछालना और उजालना उनकी तबीयत का ख़ासा था, हर शख़्स के काम आना उनकी फ़ित्रत-ए-सानिया थी, हर ज़रूरतमंद की सिफ़ारिश करते और इसमें कोई ऐब समझते थे। उनका ख़्याल ये था कि सिफ़ारिश ताल्लुक़ात की ज़कात होती है। वो ये नहीं मानते थे कि सिफ़ारिश करने से सरकारी फ़राइज़ मजरूह होते हैं। उनका नुक़्ता-ए-निगाह ये था कि इस निज़ाम और इस मुआशरा में सिफ़ारिश करना इंसाफ़ और हक़ की दस्तगीरी करना है। जब तक ज़रूरतमंद का काम होता उन्हें बेचैनी रहती। कराची से मुझे एक ख़त लिखा कि फ़ुलां शख़्स तुम्हारे पास रहा है उसे फ़ुलां शख़्स से काम है, मैं ख़ुद नहीं सकता सिफ़ारिश का काम मैंने अपने दो ख़लीफ़ों के सिपुर्द कर दिया है। लाहौर के ख़लीफ़ा तुम हो और कराची के मजीद लाहौरी। उस शख़्स के साथ जाकर पुरज़ोर सिफ़ारिश कर दो, रत्ती बराबर तसाहुल हो, ये हर तरह सिफ़ारिश के मुस्तहिक़ हैं। मैं साल शशमाही कराची जाता तो मेरी ख़ातिर दोस्तों को खाने पर मदऊ करते। एक दफ़ा निगार होटल में पुरतकल्लुफ़ इशाइया दिया, मैंने लाहौर वापस आकर ख़त लिखा कि इस तकल्लुफ़ की ज़रूरत क्या थी, बुज़ुर्गों से ख़ुर्दों की निस्बत ही बड़ी शैय है। फ़ौरन ख़त आया कि उसकी ज़रूरत थी, तुम्हारे मुताल्लिक़ यार लोगों ने बहुत कुछ कह सुन रखा था। दफ़्तर-ए-चट्टान की इमारत में इन्क़िलाब का दफ़्तर खुला तो बा’ज़ ने ख़ौफ़ज़दा करना चाहा कि बेढब आदमी के साथ गुज़ारा मुश्किल से होगा लेकिन जो कुछ मैंने देखा और जो कुछ मैंने पाया उससे मेरे दिल में तुम्हारे लिए मुहब्बत और इज़्ज़त पैदा हो गई है। वो लोग तुम्हें दुरुश्त कहते थे, मैंने तुम्हें एक जांनिसार दोस्त पाया, जो सुलूक तुमने इन्क़िलाब के साथ किया उस एहसान से मेरा बाल बाल बंधा हुआ है।

    ख़त पढ़ते ही मुझे महसूस हुआ कि उनके लफ़्ज़ों में एक ऐसा इंसान बसा हुआ है जिसकी फ़ित्रत सलीम और रूह अज़ीम है। मुआमला इससे ज़्यादा कुछ नहीं था कि मैंने उनसे किराया नहीं लिया था या एक दो महीने बिजली का बिल और फ़ोन का किराया अदा कर दिया था। लेकिन सालिक साहब हमेशा के लिए रत्ब-उल-लिसान हो गए। मुझे उसी तरह अज़ीज़ रखते जिस तरह अपने दूसरे अज़ीज़ों से उन्हें ताल्लुक़-ए-ख़ातिर था। दौलताना वज़ारत ने चट्टान बंद किया तो वो सख़्त मुज़्तरिब हुए। अपने तौर पर उन्होंने कोशिश भी की कि बंदिश दूर हो जाए लेकिन उनकी पेश गई। ख़्वाजा शहाबुद्दीन उन दिनों वज़ीर-ए-दाख़िला थे, उनसे कहा लेकिन वो भी चट्टान से कुछ ज़्यादा ख़ुश थे। क़िस्सा-ए-कोताह बेल मुंढे चढ़ी। चट्टान साल भर बंद रहा, दोबारा निकला तो इफ़्तिताहिया लिखा और इस ठाठ से लिखा कि अदब-ओ-इंशा का मज़ा आगया। इस अस्ना में जब कभी लाहौर आते दफ़्तर चट्टान में ज़रूर तशरीफ़ लाते। फ़रमाते, घर से निकलता हूँ तो सिर्फ चट्टान के लिए या रास्ते में मिर्ज़ा मुहम्मद हुसैन से मिल लेता हूँ। ग़रज़ लाहौर में होते तो दफ़्तर चट्टान में इल्तिज़ामन आते, शाज़ ही नाग़ा करते। ये उनका मामूल था। कई कई घंटे नशिस्त होती। अबू सालेह इस्लाही हर मौज़ू पर बेतकान बोलते थे। उनसे दिनभर गपशप रहती। मैं एक रोज़ किसी रूमानी दिलचस्पी में ग़ायब हो गया तो गिला किया और मेरे अब्बा जी से कह गए कि मैं सिर्फ़ उसके लिए आता हूँ और ये महफ़िल की महफ़िल एक गिरह तलब मिसरा पर क़ुर्बान कर गया है। अगले रोज़ कराची गए, एक पहलूदार ख़त लिखा कि इश्क़-ए-रुस्वा हो जाए तो इश्क़ नहीं रहता, अय्याशी हो जाता है।

    वो बड़ों की तरह छोटों को उनकी ग़लतियों पर लताड़ते या झाड़ते नहीं थे, उनके कान खींचते और उन पर वा’ज़-ओ-नसीहत का बोझ लादते। हंसी मज़ाक़ में इस्लाह करते, दोस्तों की तरह तवज्जो दिलाते और बुज़ुर्गों की तरह नक़्श जमाते थे। उनकी चाल-ढाल या बातचीत से कभी ये एहसास होता कि वो कोई सरज़निश कर रहे हैं। या उनके सामने कोई मुतालिबा है। उनका एक ख़ास अंदाज़ा था जो उन्हीं के लिए मख़सूस था। वो सब के लिए यकसाँ लब-ओ-लहजा रखते। हिफ़्ज़-ए-मरातिब तो बहरहाल होता ही है लेकिन जहाँ तक किसी से मुख़ातब होने, उसकी सुनने, अपनी सुनाने और बाहमी मुबादला अफ़्क़ार का ताल्लुक़ था वो खूर्दो कलां सबकी इज़्ज़त-ए-नफ़्स का एहतिराम करते थे। अलबत्ता ज़बान के मुआमले में किसी से ख़म खाते। ख़ुद अह्ल-ए-ज़बान उनसे ख़म खाते थे। उनमें अना ज़रूर थी और ईगो का ये इज़हार हर फ़नकार या क़लमकार में होता है लेकिन दूसरों के जज़्बात मजरूह करने का तसव्वुर भी उनके हाँ नहीं था। वो इस तरह सोच ही नहीं सकते थे। उन्होंने एक ही फ़न सीखा था, कि दूसरों का हौसला क्योंकर बढ़ाया जाता है। पुख़्ता मश्क़ अदबा-ओ-शोअरा से लेकर नापुख़्ताकार अदबा-ओ-शोअरा अक्सर-ओ-बेश्तर उनके पास आते वो किसी की हौसला शिकनी करते। हर शख़्स की इस्तिदाद का ख़्याल रखते और शौक़ बढ़ाते थे। उनका फ़ैज़ सुह्बत-ए-आम रहा। पतरस मरहूम उनसे मुस्तफ़ीद होते रहे, तासीर मरहूम ने भी इस्तिफ़ादा किया, इम्तियाज़ अली ताज ने भी फ़ैज़ उठाया, अहमद नदीम क़ासमी उनके शागिर्द हैं। क़ासमी उन पर नाज़ाँ, सालिक को उन पर फ़ख़्र, मजीद लाहौरी को भी उन्हीं से तलम्मुज़ था। दोनों एक दूसरे पर नाज़ करते थे। “नियाज़मंदान-ए-लाहौर” का सारा हलक़ा उनका गिरवीदा रहा ताहम ये कोई मजलिस या हलक़ा था। ख़ुद एक मज़मून में जो उन्होंने हलक़ा-ए-अर्बाब-ए-ज़ौक़ में पढ़ा था, उस हलक़े पर रौशनी डालते हुए लिखा है कि आजकल नौजवान हर चार यारी को एक तहरीक बना लेते और उस पर ख़्यालात के ताने-बाने बुनते हैं। नियाज़मंदान-ए-लाहौर का ओर छोर सिर्फ़ ये था कि अबदुर्रहमान चुग़ताई ने लाहौर से एक सालनामा “कारवां” निकाला जो अपनी ख़ुसूसियतों के एतिबार से मुनफ़रिद था। उसमें अह्ल-ए-ज़बान की मुदारात के लिए नियाज़मंदान-ए-लाहौर के नाम से दो एक मज़मून लिखे गए। जमुना पार के बा’ज़ अह्ल-ए-क़लम का शेवा था कि वो पंजाब के अदीबों और शायरों की ज़बान पर नाक भौं चढ़ाते। पतरस, सालिक, तासीर और मजीद मलिक ने मिल-जुल कर उनका जवाब देना शुरू किया। सालिक साहब की अपनी रिवायत के मुताबिक़ नियाज़मंदान-ए-लाहौर उन चारों अहबाब का मुशतर्का नाम था, जो कुछ कहना होता बाहम सलाह मश्वरा कर लेते। पतरस मज़मून लिखते आपस में ग़ौर किया जाता, उसके बाद मज़मून छप जाता। ग़रज़ उन मज़्मूनों की ख़ासी शोहरत हो गई। ये गोया पहला ताबड़तोड़ हमला था जो रावी-ओ-चनाब के अह्ल-ए-क़लम ने गंगा-ओ-जमुना के अह्ल-ए-क़लम पर किया। उन मज़ामीन में माज़रत का अंदाज़ था ही नहीं। इससे पहले अह्ल-ए-ज़बान पंजाब के अह्ल-ए-क़लम पर हमला करते तो यहाँ के लोग मुसख़्ख़र-ओ-मारूब हो जाते या फिर एक ही चारा था कि मुदाफ़िअत में सनद-ओ-जवाज़ लाएं या अह्ल-ए-ज़बान जो कुछ कह रहे हैं उसके सामने सर झुका दें।

    नियाज़मंदान-ए-लाहौर के इन मक़ालों का रद्द-ए-अमल ये हुआ कि रूबरू बात करने की गुंजाइश पैदा हो गई। अह्ल-ए-ज़बान को भी कान हो गए, बरतरी का ग़ुरूर जाता रहा, महज़ अह्ल-ए-ज़बान होना फ़ज़ीलत का बाइस रहा। नतीजतन तू तकार भी ज़्यादा अरसा रही और उस तरफ़ के संजीदा अह्ल-ए-क़लम ने उसमें हिस्सा लिया। सालिक साहब ने उसी मज़मून में लिखा है कि उसको तहरीक कहना या किसी बाक़ायदा हलक़े से मंसूब करना सही नहीं और कभी इस अंदाज़ में सोचा ही गया। अब जो लोग नियाज़मंदान-ए-लाहौर में शरीक होते हैं वो पतरस, सालिक, तासीर और मजीद मलिक के दोस्त ज़रूर थे लेकिन नियाज़मंदान-ए-लाहौर के शरीक-ए-क़लम थे। मसलन सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम, हफ़ीज़ जालंधरी और इम्तियाज़ अली ताज एक दूसरे पर जान छिड़कते थे, तासीर मरहूम उन दिनों इस्लामिया कॉलेज लाहौर में उस्ताद थे, उन्होंने अपने गिर्द ख़ुश ज़ौक़ शागिर्दों का एक हलक़ा जमा किया हुआ था जिसमें महमूद निज़ामी और हमीद नसीम को ख़ुसूसियत हासिल थी। उस सारे गिरोह ने अह्द कर रखा था कि अदब-ओ-शे’र में जो कुछ है उन्ही के दमक़दम से है। पंजाब में उनसे बाहर कुछ नहीं। सालिक साहब उनके पीर-ओ-मुर्शिद थे। उस हलक़ा ने (या नियाज़ मंदान-ए-लाहौर ही कह लीजिए) यके बाद दीगरे चार महाज़ों पर जंग छेड़ी, रावी पार से जमुना पार पर हमला तुरकाना उनका दूसरा मोरचा था। उससे पहले ये लोग अल्लामा सीमाब अकबराबादी को लाहौर से भगा चुके थे। सीमाब मरहूम अपने चहेते साग़र निज़ामी के साथ लाहौर में वारिद हुए और यहाँ टिकना चाहा। मुशायरों में झड़पें हुईं जिससे बाक़ायदा महाज़ खुल गया। सीमाब ने हरचंद मुक़ाबला करना चाहा और कुछ दिनों ख़म ठोंक की, डटे रहे लेकिन बिलआख़िर पसपा हो कर भाग गए। सीमाब से तकरार की एक वजह साग़र निज़ामी भी थे। उन दिनों साग़र ख़ुद एक ग़ज़ल थे। सीमाब उनके बग़ैर जी नहीं सकते थे। अपने कलाम का बड़ा हिस्सा उनके हवाले कर दिया। साग़र बला के ख़ुश आवाज़ थे। सुर्ख़-ओ-सपेद रंग, बूटा सा क़द, सर ता क़दम अदा ही अदा। मुशायरा पढ़ते तो सामईन को बहा के जाते। नियाज़मंदान-ए-लाहौर के वाहिद शायर हफ़ीज़ जालंधरी थे। वो शक्ल-ओ-सूरत के एतिबार से तो वाजिबी थे लेकिन गला उन्होंने भी नूरानी पाया था। एक नियाम में दो तलवारें समा सकती हैं एक मुशायरे में दो गले। सीमाब को ज़ोअम था कि वो मीर तक़ी मीर और असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब के हमरुतबा हैं, ज़बान उनकी लौंडी है। नियाज़मंदान-ए-लाहौर अपनी क़लमरू में किसी दूसरे की फ़रमांरवाई का तसव्वुर ही कर सकते थे। वो ज़बान को अपनी घोड़ी समझते थे। नतीजतन आपस में ठन गई। शेख़ अब्दुल क़ादिर की सदारत में तरही मुशायरा था। क़ाफ़िया था सैलाब, रदीफ़ थी, रह गया। साग़र ने दून की ली, मक़ता पढ़ा...

    साग़र के ज़मज़मों की तब-ओ-ताब अल-अमाँ

    हर मा’र्का में शायर-ए-पंजाब रह गया

    चोट हफ़ीज़ पर थी, सालिक फुरेरी लेकर उठे, मियां साहबज़ादे! वो दूसरा मक़ता भूल गए हो।

    पीर-ए-मुग़ाँ की बादा-गुसारों से ठन गई

    साग़र की तह में क़तरा-ए-सीमाब रह गया

    मुशायरा लोट-पोट हो गया, सीमाब कट के रह गए, साग़र का रंग उड़ गया। इसी तरह के एक और मुशायरे में मुठभेड़ हो गई। साग़र ने रुबाई पढ़ी, चौथा मिसरा था,

    यूसुफ़ की क़मीस है जवानी मेरी

    सालिक साहब ने आवाज़ दी... मियां! वो भी पीछे ही से फटी थी। मुशायरा ज़ाफ़रान ज़ार हो गया। साग़र ने किसी मिसरा में कोई मुहावरा ग़लत बांध दिया, सालिक साहब ने सर-ए-आम टोका, साग़र ने अपने तौर पर काटना चाहा,

    काश आपकी ज़बान मुझमें होती

    सालिक साहब ने चमक कर फ़रमाया, मियां साहबज़ादे! मैं अपनी ज़बान की बात नहीं कर रहा तुम्हारी मादरी ज़बान का ज़िक्र कर रहा हूँ।

    नतीजा ये हुआ कि सीमाब साहब ज़्यादा दिन लाहौर में रह सके, साग़र को लेकर लौट गए। मैदान हफ़ीज़ के लिए रह गया, जो उमूमन जमुना पार के मुशायरों से दिल आज़ुर्दा हो कर आते थे। सालिक साहब-ए-ज़बान से बग़ावत के हामी थे। वो अपने साथियों को उनकी ख़फ़ी-ओ-जली ग़लतियों पर टोकते और उनकी इस्लाह करते। लेकिन वो अह्ल-ए-ज़बान की सिर्फ़ ज़बान के ग़ुरूर पर बरतरी के भी क़ाइल थे। पाकिस्तान बना तो दिल्ली-ओ-लखनऊ के बा’ज़ अह्ल-ए-क़लम लाहौर आगए। उनमें नवाब ख़्वाजा मुहम्मद शफ़ी देहलवी भी थे। बातों बातों में ख़्वाजा साहब ने सालिक साहब से कहा, चलिए हम लोगों के आने से एक फ़ायदा तो होगा कि पंजाब वालों की ज़बान साफ़ हो जाएगी। सालिक साहब ने भट्ट से फ़रमाया जी हाँ, इंशाअल्लाह मादरी ज़बान हो जाएगी। ख़्वाजा साहब ताड़ गए लेकिन मुस्कुरा के गए। उनका तीसरा महाज़ अल्लामा ताजवर नजीबादी के ख़िलाफ़ था। सालिक साहब बज़ाहिर क्या तबीअतन लड़ाका थे। अब चूँकि नियाज़मंदान-ए-लाहौर उनके भी नियाज़मंद थे लिहाज़ा वो उनके लिए तलवार भी थे, और सिपर भी। असल लड़ाई हफ़ीज़-ओ-तासीर की थी। हफ़ीज़ को शायराना हसद-ओ-रिक़ाबत से मुफ़र था, तासीर को फ़ित्रतन चोचलों में मज़ा आता था। ताजवर से कटा छटी का सबब भी यही था। उन सबने उन पर यलग़ार की। वो भी कच्ची गोलियां खेले हुए थे, उन्होंने भी ख़म ठोंक कर मुक़ाबला किया। कोई और होता तो लाज़िमन भाग जाता लेकिन ताजवर आख़िर वक़्त तक डटे रहे झुके नहीं। आख़िरी उम्र में उन्हें सय्यद आबिद अली आबिद के हाथों सख़्त आज़ार पहुँचा। लेकिन वो हर चोट खाने के आदी हो गए थे। आबिद साहब अब तो नियाज़मंदान-ए-लाहौर में शुमार होना चाहते हैं लेकिन इस वक़्त ताजवर के अक़ीदतमंदों में थे। उनकी शायरी को परवान चढ़ाने में भी ताजवर का हाथ था, उन्ही के रिसालों ने उन्हें जिला बख़्शी।

    ताजवर ने लाहौर से जिस पाए के अदबी रिसाले निकाले वो आज तक सहाफ़त में संग-ए-मील का दर्जा रखते हैं। “अदबी दुनिया” की नीव रखी। जब तक उसके एडिटर रहे उसका डंका बजता रहा, फिर “शाहकार” निकाला, और शाहकार बना दिया। बच्चों के लिए हफ़्तावार “प्रेम” निकाला, उर्दू मर्कज़ क़ायम किया, उसके एहतिमाम में बहुत से मजमुए मुरत्तिब करके शाए किए, बीसियों नौजवानों की अदबी तर्बियत की, मुशायरों को आम किया। ग़रज़ जहाँ तक ज़बान उर्दू के मज़ाक़ को आम करने का ताल्लुक़ है, एक इदारा से बढ़कर काम किया और ये कहना बेजा होगा कि जो काम पतरस, तासीर, तबस्सुम, हफ़ीज़ और ताज से हो सका वो ताजवर ने तन्हा किया। उनकी ख़िदमात का एतिराफ़ नहीं किया गया तो इसकी वजह ये है कि उनके गिर्द-ओ-पेश नियाज़मंदान-ए-लाहौर जैसा कोई हलक़ा था कि वो लोग सियासी फ़ित्रत के अदबी खिलाड़ी थे। सालिक ने तो उम्रभर क़लम ही की ख़िदमत की और इतना लिखा कि इंतिखाब ही के कई मजमुए शाए हो सकते हैं, लेकिन पतरस अदब में कब तक ज़िंदा रह सकते हैं? ये महल्ल-ए-नज़र है। मरहूम एक अदीब से ज़्यादा एक महफ़िल आरा शख़्सियत थे जिन्हें मुख़्तलिफ़ ज़बानों के अदबियात का इन्साइक्लोपीडिया कहा जा सकता था लेकिन उनकी ये ख़ूबी उनके साथ ही दफ़न हो गई। तासीर का अदबी तर्का महदूद है और उनमें ज़िंदा रहने की सलाहियत भी बरा-ए-नाम है लेकिन वो ज़बरदस्त अदबी और सियासी खिलाड़ी थे। उन्हें इस बर्र-ए-अज़ीम में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का सरख़ैल कहा जा सकता है। ये अलग बात है कि अपने ही दावपेच की वजह से वो उसी पौदे के हाथों मारे गए जिसे उन्होंने ख़ुद तैयार किया जिसका बीज उनके अपने हाथों बोया गया था। पाकिस्तान में तरक़्क़ी पसंद तहरीक को उनके हाथों शदीद नुक़्सान पहुँचा। लेकिन तरक़्क़ी पसंदों के हाथ से उन्हें भी बहुत से घाव लगे। मजीद मलिक सरकारी अफ़सर हो कर सरकारी अफ़सर ही रह गए उन्होंने उस जोड़ तोड़ में कभी हिस्सा लिया जो तासीर मरहूम का शेवा-ए-ख़ास रहा। तबस्सुम उम्रभर तलबा के उस्ताद रहे। फिर रेडियो के हो गए। उनके कलाम में पुख़्तगी ज़रूर है, शगुफ़्तगी टावां टावां है। इम्तियाज़ अली ताज मरनजान मरंज हैं। लेकिन अनारकली या चचा छक्कन में इतना बूता नहीं कि उन्हें दवाम हासिल हो। उनकी हैसियत एक महर शुदा अदीब की है। अलबत्ता हफ़ीज़ में एक बड़े शायर की तमाम ख़ुसूसियतें मौजूद हैं। उनके बग़ैर उर्दू ग़ज़ल या उर्दू नज़्म का हर तज़्किरा अधूरा रह जाता है।

    ग़रज़ नियाज़मंदान-ए-लाहौर जिस हलक़े का नाम रहा वो पहली साज़िश थी जो अदब में की गई। उन लोगों ने अंजुमन-ए-सताइश बाहमी की बुनियाद रखी। सूबे भर ने अपने हलक़ा से बाहर तो किसी अह्ल-ए-क़लम की अदबी वजाहत को ये लोग तस्लीम करते और अपने सिवा किसी को बाला समझते थे। अल्लामा इक़बाल के गिर्द उन्होंने अक़ीदत का हिसार बना रखा था और उसके वजूह थे। सालिक साहब के मुर्शिद बनने या बनाने के भी मुहर्रिकात थे, मसलन ज़मींदार ने इन्क़िलाब की कटा छनी, आम आवेज़िशों में एक रोज़नामा की ज़रूरत, सालिक का क़लम जिससे अदबी और सियासी महाज़ों में रसद पहुँचती थी।

    माहनामों में नैरंग-ए-ख़्याल के उरूज का ज़माना था और वो उनके हाथ में था। उसके मुक़ाबले में आलमगीर था लेकिन वो उन झगड़ों से हमेशा अलग रहा। उस पर यूपी और हैदराबाद के अह्ल-ए-क़लम छाए हुए थे। ताजवर पहले अदबी दुनिया फिर शाहकार के मालिक-ओ-मुदीर रहे। हफ़ीज़ ने उनके ख़िलाफ़ क़लम उठाया, मुशायरों में तुका फ़ज़ीहती हुई तो अल्लामा ने भी तबीयत की जौलानी दिखाई। बड़े ज़ोर का रन पड़ा। अल्लामा साहब के अदबी दुनिया के सालनामा में हफ़ीज़ का नाम लिए बग़ैर लेकिन उन्हें मुख़ातिब कर के इस ज़ोर की नज़्म लिखी कि ज़बान-ओ-फ़न का लुत्फ़ गया उस नज़्म में खुली हज्व तो थी लेकिन सख़्त क़िस्म के नश्तर ज़रूर थे। सालिक साहब ने उस सारी नज़्म में नियाज़मंदान-ए-लाहौर की मुदाफ़िअत की, और ख़ूब की। ताजवर अलबत्ता सालिक से लड़ना नहीं चाहते थे उनके हल्की फुल्की चोटें होती रहीं। नतीजतन ये महाज़ कभी सख़्त गर्म होता कभी सख़्त सर्द।

    उधर ताजवर ने भी नौजवान लिखने वालों की एक खेप पैदा की और वो नियाज़मंदान-ए-लाहौर के मुक़ाबला में ज़्यादा कामयाब रहे। अख़्तर शीरानी को उनसे तलम्मुज़ था, वक़ार अंबालवी उनके सुह्बत याफ़्ता थे, अबदाल मोहम्मद अदम ने उनसे फ़ैज़ उठाया, एहसान दानिश ज़बान-ओ-फ़न के रुमूज़ में उनसे मुतमत्ते हुए, फ़ाखिर हरियानवी, फ़य्याज़ हरियानवी, उदय सिंह शावक, किरपान सिंह बेदार उनके बाक़ायदा शागिर्द थे। इस बाब में उनके शागिर्दों की फ़ेहरिस्त बड़ी तवील है।

    अदबी मारिकों की तफ़सीलात उस वक़्त सामने नहीं और ज़ेर-ए-क़लम ख़ाके में ये सारी तफ़सील सकती है अलबत्ता उन्हें जमा किया जाए तो एक दिलचस्प अदबी तारीख़ तैयार हो सकती है।

    “मौत से किस को रुस्तगारी है” तासीर देखती आँखों रुख़सत हो गए। पतरस को अमरीका में सुनावनी गई, सालिक को भी बुलावा गया और वो अपने रब से जा मिले। उनसे पहले ताजवर साहब भी अल्लाह को प्यारे हो गए थे। आख़िरी उम्र में उनकी ख़्वाहिश थी कि सालिक से उनकी सुलह हो जाए। ख़ुद मुझसे कई दफ़ा कहा। चूँकि रोहेला पठान थे इसलिए तबीयत में ज़िद भी थी। बहरहाल एक दिन सुलह हो गई, दोनों उस्ताद भाई थे जब गले से मिले सारा गिला जाता रहा।

    उधर कई बरस पहले नियाज़मंदान-ए-लाहौर की हमा-हामी का रंग फीका पड़ चुका था। हफ़ीज़ उन सबसे अलग रहने लगे। बल्कि उनके ख़िलाफ़ तुंद-व-तुर्श बातें करते। तासीर और हफ़ीज़ में मुद्दत-उल-उम्र खिचाव रहा। हफ़ीज़ ने सोज़-ओ-साज़ में सालिक साहब के ख़िलाफ़ चुटकी ली। सालिक साहब का बयान था कि गिरामी अलैहि रहमा ने मरने से पहले हफ़ीज़ का हाथ उनके हाथ में दिया था कि इस की शायरी पर निगाह रखना। ये रिवायत हफ़ीज़ को नागवार गुज़री, हुआ कि तरफ़ैन के दिलों में ग़ुबार आगया लेकिन मौत ने ये क़ज़िया भी... सालिक रहे ताजवर पतरस रहे तासीर, रहे नाम अल्लाह का। हफ़ीज़ बक़ैद-ए-हयात हैं लेकिन उन दोस्तों और उन दिनों को याद करके आहें भरते हैं।

    सन्1930 से 1934 ई. तक जोश मलीहाबादी की इन्क़िलाबी शायरी के ज़हूर और उरूज का ज़माना था। नियाज़मंदान-ए-लाहौर उन पर भी हमला-आवर हो गए। इस्लामिया कॉलेज में फ़रोग़ उर्दू के नाम से तलबा की जो अंजुमन क़ायम थी तासीर उसके सरपरस्त थे। उसमें ख़ास ख़ास मस्लहतों से ख़ास ख़ास मज़मून लिखवाए पढ़वाए और छपवाए जाते थे। जोश भी उनका हदफ़ बना। उन्हीं दिनों एहसान दानिश ने चमकना शुरू किया। लाहौर से उनका उठना हफ़ीज़ के लिए क़यामत हो गया। हफ़ीज़ अपने रंग के शायर थे उनका तरन्नुम उनके साथ मख़्सूस हो चुका था, एहसान दानिश की शायरी जोश से शाना मिलाकर निकली, आवाज़ इस बला की थी कि जिस मुशायरे में जाते उन्हीं का हो जाता। नियाज़मंदान-ए-लाहौर के लिए ये नई उफ़्ताद थी। एहसान में कमज़ोरी ये थी कि वो किसी मदरसे के फ़ारिग़-उत-तहसील थे क़ुदरत के अतिया ने उन्हें बाला-ए-बुलंद शायरों की सफ़ में ला खड़ा किया। उन दिनों तासीर का ये शहरा था कि फ़न-ओ-अदब में बेगाना हैं। एहसान ने ग़ज़लों का मज्मूआ “हदीस-ए-अदब” मुरत्तब किया तो इस्लाह की ग़रज़ से तासीर के पास ले गए, तासीर ने मज्मूआ ज़ाए कर दिया लेकिन एहसान से कहा कि गुम हो गया है। एहसान ने दोबारा मेहनत करके मज्मूआ मुरत्तब किया, तासीर ने अब ये किया कि उसे गुम तो किया लेकिन उसके मेयारी अशआर मजरूह कर दिए। अजब था कि एहसान और नुक़्सान उठाते लेकिन उन पर असल हक़ीक़त आशकार हो गई कि हफ़ीज़ उन्हें गवारा नहीं करते। हफ़ीज़ की ममलिकत में किसी दूसरे शायर का शायरी या तरन्नुम की वजह से मक़बूल होना उनके लोगों के नज़दीक जुर्म था।

    ताजवर ने एहसान का साथ देना शुरू किया। एहसान रोज़ बरोज़ चमकते गए हत्ता कि हर मुशायरे के लिए नागुज़ीर हो गए। उनकी आवाज़ का जादू सूबाई असबियतों को ख़त्म कर गया। नियाज़ मंदान-ए-लाहौर की हैबत मांद पड़ गई, शायरी की नई नई राहें खुलीं, कई मदरसा हाय फ़िक्र पैदा हो गए, अदब-ओ-इंशा में इस तेज़ी के साथ सैलाब आया कि नियाज़मंदान-ए-लाहौर का जारा ख़ुद बख़ुद बैठ गया। नियाज़मंदान-ए-लाहौर का चौथा महाज़ मौलाना ज़फ़र अली ख़ां के ख़िलाफ़ था। ये महाज़ ज़मींदार और इन्क़िलाब के तसादुम से खुला। सालिक साहब उसके सालार थे। एक तरफ़ मौलाना ज़फ़र अली ख़ां तन-ए-तन्हा, दूसरे तरफ़ मेहर, सालिक, दोनों ही क़लम के धनी, उनके लाव-लश्कर में हफ़ीज़, तासीर, तबस्सुम, पतरस।

    तासीर, कुद्दूसी निज़ामी के फ़र्ज़ी नाम से ज़फ़र अली ख़ां के मुक़ाबले में निकले। लेकिन कहाँ राजा भोज कहाँ ननुवा तेली, ज़फ़र अली ख़ां चौमुखी लड़ने में बेमिसाल थे। उन्होंने एक एक से दो दो हाथ किए, जो सामने आया ढेर हो गया। हज्व निगारी में उनसे कौन निपट सकता था। बक़ौल सय्यद सुलेमान नदवी वो उर्दू के तीन कामिल-उल-फ़न असातिज़ा में से एक थे। अव़्वल मुहम्मद रफ़ी सौदा दोम अकबर इलहाबादी सोम ज़फ़र अली ख़ां। संगलाख़ से संगलाख़ ज़मीनों में तरहें निकालते और अदक़ से अदक़ क़ाफ़ियों में रौनक़ पैदा करते थे। मौलाना बाख़बर रहते कि फ़ुलां नज़्म किस की है? और फ़ुलां दुश्नाम कहाँ से आई है? तासीर को इस बुरी तरह आड़े हाथों लिया कि छुटकारा मुश्किल हो गया। मौलाना ने इन्क़िलाब के मैमना-ओ-मयस्सरा में उन लोगों को देखा तो ललकारते हुए एलान किया,

    ज़मींदार एक आप इतने मगर औज-ए-सहाबत पर

    ये एक तुक्कल लड़ेगा आपकी सारी पतंगों से

    चुनांचे इस तुक्कल के हाथों सारी पतंगें कट गईं। कोई दो माह घमसान का युद्ध रहा, इधर बीसियों सूरमा, उधर एक ही पुराना फ़िकैत। हर ज़रब कारी। आख़िर अल्लामा इक़बाल की मुदाख़िलत से मीसाक़ हो गया।

    सालिक साहब ज़बान की बारीकियों से कमा हुक़्क़हू आगाह थे। रोज़मर्रा और मुहावरे में कभी ठोकर खाते। क़वाइद-ए-ज़बान से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। इमला का ग़ायत दर्जा ख़्याल रखते, उर्दू अख़बार नवीसी में आला मेयार क़ायम किया। वो सहाफ़ती क़बीले की आख़िरी खेप के शहसवार थे। उनकी ज़ात में बैक वक़्त अदब-ओ-शे’र की बहुत सी रवायतें जमा हो गई थीं। वो शायर भी थे। “राह-ओ-रस्म मनज़िलहा” के नाम से उनका एक मज्मूआ-ए-कलाम भी छपा। इन्क़िलाब निकला तो शायरी गाहे-माहे की चीज़ हो गई। अंग्रेज़ी से उर्दू में तर्जुमा करना उनके बाएं हाथ का खेल था, इतना शुस्ता और रफ़्ता तर्जुमा करते कि बसा औक़ात असल मांद हो जाता। कई तर्जुमे तबा ज़ाद मालूम होते। टैगोर की गीतांजलि का तर्जुमा बड़ा मक़बूल हुआ, गांधी जी ने भी उसको सराहा। नस्र लिखना उनके लिए उतना ही आसान था जितना आबशार के लिए बहना, बेतकान और बेतकल्लुफ़ लिखते। किसी उस्लूब के मुक़ल्लिद थे। फ़रमाते मुताला इंसान के ज़ख़ीरा-ए-मालूमात में इज़ाफ़े का बाइस होता और इससे उस्लूब बनता है। जिस आदमी की मालूमात जितनी वसीअ होंगी उसका उस्लूब तहरीर इतना ही साफ़ सुथरा होगा। वो महज़ इंशापर्दाज़ी या महज़ लफ़्फ़ाज़ी के हक़ में थे। उनकी तहरीरें इस लिहाज़ से बड़ी दिलफ़रेब होतीं कि सीधे सादे अलफ़ाज़ में बड़ी बड़ी बातें कह जाते थे। वो किसी मसले में सिर्फ़ अलफ़ाज़ पर गुज़ारा करते और उनका सहारा लेते थे, इन्क़िलाब के शज़रात और मेहर साहब की गैर हाज़िरी में इदारिए भी वही लिखा करते। कम लोग जानते थे कि जो शख़्स मताइबात नवीसी में यका ताज़ है वो इस क़िस्म की सिक़्क़ा इबारत भी लिख सकता है। उन्हें नस्र के हर उस्लूब पर क़ाबू था, वो शगुफ़्ता ज़रूर थे लेकिन मज़ाह के अलावा भी उनका क़लम किसी मौज़ू पर बंद नहीं था। उन्होंने कई किताबें लिखीं जिनमें तारीख़, तज़्किरा, सीरत और अदब के मौज़ू भी हैं। उनसे ये ज़ाहिर ही नहीं होता कि उनका मुसन्निफ़ कोई अदीब तन्नाज़, बज़्लासंज सहाफ़ी या मताइबात नवीस एडिटर है। उनकी शोहरत “अफ़्क़ार-ओ-हवादिस” की वजह से हुई। बल्कि यार लोगों में उनका नाम ही पीर अफ़्क़ार शाह पड़ गया। “अफ़्क़ार-ओ-हवादिस” ने रोज़ नामों में मताइबात को आब-ओ-दाना बख़्शा। उसकी देखा देखी कई एक मताइबात नवीस पैदा हो गए लेकिन “अफ़्क़ार-ओ-हवादिस” सर-ए-फ़ेहरिस्त ही रहा। सिंदबाद जहाज़ी (चिराग़ हसन हसरत) से क़त-ए-नज़र शायद ही कोई मताइबात नवीस हो जिसकी ज़बान में सालिक साहब जैसी शोख़ी, नुदरत, बरजस्तगी, शगुफ़्ता पन, तंज़, घाव, बेसाख़्तगी और सादगी पाई जाती हो। उन्होंने सबसे बड़ा जिहाद जाली पीरों और मस्नूई सूफ़ियों के ख़िलाफ़ किया, ग़लत गो शोअरा और पोच नवीस अदबा को आड़े हाथों लिया जिससे इस्लाह-ए-ज़बान होती गई। इसके अलावा “अफ़्क़ार-ओ-हवादिस” में कांग्रेस और उसके ज़ोअमा पर फब्तियां कसी जाती या उन लोगों पर चोटें होतीं जो कांग्रेस से क़रीब और सरकार के हरीफ़ थे। इन्क़िलाब के इस किरदार का दिफ़ा नहीं किया जा सकता कि उसका मिज़ाज हुकूमत के नज़्दीक रहा लेकिन ज़बान का ज़ाइक़ा जो उन के हाँ था और कहीं भी था, ज़बान ही का लुत्फ़ था कि उनकी फब्तियां भी फूल मालूम होती थीं। बसा औक़ात उनकी फब्ती नंगी भी हो जाती मगर वो जिस रुख़ से फब्ती कसते, तान तोड़ते, मिस्रा उठाते, बज़्ला फ़रमाते, लतीफ़ा गढ़ते उसमें एक ख़ास सुरूर था कि ख़ुद चोट खाने वालों की ज़बान पर कलमा-ए-तहसीन होता। वो इस फ़न में बड़े ही मश्शाक़ थे। कोई फब्ती उनकी ज़बान पर आकर रह नहीं सकती थी। असल ख़ूबी उनकी ये थी कि वो अलफ़ाज़ से मज़ाह पैदा नहीं करते थे बल्कि ज़राफ़त उनके दिमाग़ से उगती थी। सीधे सादे अलफ़ाज़ में चोट कर जाते। उन्हें मज़ाह-ओ-हज़ल की हदों का भी अंदाज़ा था और बज़्ला-ओ-तंज़ की रगें भी पहचानते थे। वो फ़ह्हाशी, फक्कड़, गाली गुफ़्तार, ज़िला-जगत, फब्ती, तंज़, हज्व, तज़हीक और तान के फ़र्क़ को बख़ूबी समझते थे। कभी-कभार उनके अलफ़ाज़ गुस्सैल भी हो जाते और उनसे शदीद क़िस्म का गिला भी पैदा होता, लेकिन शाज़-ओ-नादिर। इस क़िस्म का गिला उमूमन ज़ू मानी अलफ़ाज़ के इस्तेमाल से पैदा होता। वो क़लम और ज़बान दोनों के हातिम थे, जिस महफ़िल में बैठते, फब्तियों की झाड़ बांधते और लतीफ़ों का अंबार लगाते। क़लम उठाते तो उनका यही हाल होता। नाम बिगाड़ने में अजीब-ओ-ग़रीब ख़ुसूसियत के मालिक थे, मसलन इंग्लिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म रैमज़े मैक्डानल्ड का नाम उसकी हिंदू नवाज़ी के बाइस राम जी मुकन्दामल रखा, अताउल्लाह शाह बुख़ारी का, बुख़ारुल्लाह शाह अत्ताई, मज़हर अली अज़हर का, इधर अली उधर। इनके अलावा कुछ और राहनुमाओं के नाम भी मस्ख़ किए लेकिन उनमें मताइबात की शीरीनी थी, दुश्नाम की संगीनी थी। एक दफ़ा मौलाना हबीबुर्रहमान सदर-ए-मजलिस अहरार इस्लाम ने तक़रीर में कहा बा’ज़ थड़ोले हमें बदनाम करने के लिए चंदे का हिसाब मांगते हैं, हम लोग बनिया नहीं कि हिसाब लिये फिरें। हमें अपनी दयानत पर एतिमाद है जो लोग हम पर भरोसा करते हैं वो चंदा दें बाक़ी हवा खाएं, सालिक साहब ने अफ़्क़ार-ओ-हवादिस में इस पर तब्सिरा करते हुए लिखा, हज़रत मौलाना किस कमबख़्त ने आपसे कह दिया कि आप बददियानत हैं? दियानत तो आपके घर की लौंडी है। शिकायत ये है कि आपने बे निकाही रखी हुई है।

    एक महफ़िल में अख़्तर अली ख़ां (अल्लाह उन्हें बख़्शे) के लाउबालीपन का ज़िक्र हो रहा था कि वो शहीद गंज में कोई दस्तावेज़ उठाकर मास्टर तारा सिंह को दे आए थे। सालिक साहब ने तबस्सुम फ़रमाया और कहा, छोड़ यार, अख़्तर अली ख़ां भी तो तारा सिंह ही का तर्जुमा है।

    कलीम साहब मिल्ट्री एकाउंट्स में ग़ालिबन डिप्टी अकाउंटेंट जनरल या इससे भी किसी बड़े ओहदे पर फ़ाइज़ थे। उन्हें शे’र-ओ-सुख़न से एक गो लगाव था, अक्सर मुशायरे रचाते। एक मुशायरे में सालिक साहब भी शरीक थे। किसी ने उनसे कलीम साहब के बेटे का तआरुफ़ कराते हुए कहा, आप कलीम साहब के साहबज़ादे हैं।

    रग-ए-ज़राफ़त फड़क उठी, फ़रमाया, तो ये कहिए आप ज़र्ब-ए-कलीम हैं।

    ग़रज़ उनका सीना इस क़िस्म के लताइफ़-उल-अदब का ख़ज़ीना था, जिस महफ़िल में होते छा जाते। बरजस्ता गोई, हाज़िर जवाबी, बज़्ला संजी, शगुफ़्ता मिज़ाजी, शे’र फ़हमी, नुक्ता आफ़रीनी, ये सब गोया उनके ख़ाना ज़ाद थे। तबीयत में आमद ही रहती, आवुर्द का उनके हाँ गुज़र ही नहीं था।

    एक तिहाई सदी उन्होंने बड़े आदमियों की रिफ़ाक़त और सुह्बत में बसर की। उस ज़माने का शायद ही कोई बड़ा हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी हो जिनसे उनके ताल्लुक़ात रहे हों, बड़े-बड़ों से उनका मिलाप रहा। चुनांचे मेरी ही तहरीक पर उन्होंने “यारान-ए-कुहन” लिखी जो मकतबा चट्टान से शाए हुई। उसमें कोई बीस नामवर लोगों का ज़िक्र किया है जिनमें अक्सर मुल्क-ओ-मिल्लत के जलील-उल-क़द्र राहनुमा थे। उन बुज़ुर्गों और दोस्तों का शायद ही कोई लतीफ़ा हो जो उन्हें याद हो और रह गया हो। “सर गुज़श्त” के नाम से उन्होंने अपने सवानेह हयात क़लमबंद किए, पहले “इमरोज़” फिर “नवा-ए-वक़्त” में क़िस्तवार छपते रहे, आख़िर किताबी शक्ल में शाए हो गए। उस किताब से उनके ज़ेहनी नश्व नुमा और अदबी-ओ-सियासी मज़ाक़ ही का अंदाज़ा नहीं होता बल्कि बहुत सी बर्गुज़ीदा हस्तियों और नामवर शख़्सियतों की सीरत का अक्स भी मिल जाता है। हसरत के अलफ़ाज़ में सरगुज़श्त हमारे मुल्क की चहल साला इल्मी अदबी और सियासी सरगर्मियों का मुरक़्क़ा है। ज़राफ़त उनके क़लम से यूँ निकलती है जैसे कड़ी कमान से तीर। आम तौर पर वो लिखते लिखाते कोई ऐसा लतीफ़ा या चुटकुला बयान कर जाते हैं कि ख़ुश्क से ख़ुश्क बहस भी बा-मज़ा मालूम होने लगती है। “सरगुज़श्त” में भी यही रंग नुमायां है, और “यारान-ए-कुहन” तो ज़्यादातर उन शख़्सियतों ही के लताइफ़ का तज़्किरा है।

    लाहौर में जमीअत-उल-उलमा का इजलास हो रहा था, मुल्क भर के उल्मा जमा थे। सालिक साहब ने उन पर रेशताग़ की फब्ती कसी। मेहर साहब ने मौलाना अबुल कलाम से ज़िक्र किया, उन्होंने बहुत दाद दी और कहा कि लम्बी लम्बी डाढ़ियों के मजमे को इससे बेहतर क्या नाम दिया जा सकता है। वाज़ेह रहे कि रेशताग़, हिटलर की पार्लियामेंट का नाम था।

    आग़ा हश्र से उनकी मुलाक़ात सन्1916 में हुई जब वो लाहौर में मुक़ीम थे, दोनों ही में गाढ़ी छनने लगी। आग़ा बला के बज़्लासंज, नुक्ता तराज़, और यदीहा गो थे, सालिक भी इन ख़ुसूसियतों में पीछे नहीं थे, अलबत्ता आग़ा साहब फल्लड़ भी थे और गाली गुफ़तार से रुकते नहीं थे। अह्ल-ए-क़लम पर ये ज़माना ज़्यादा कुछ ज़्यादा मेहरबान था। आग़ा साहब का हाथ अक्सर तंग रहता, जब कहीं से कोई रक़म आती तो दिनों में लुटा देते। तबीयत सख़ी और लख लट पाई थी। सालिक साहब रवायत करते थे कि वो और हश्र उन दिनों मूंगफली से जेबें भरके आधी आधी रात तक लाहौर की बड़ी बड़ी सड़कों पर फेरे डालते और दुनियाभर की गप्पें हांकते थे। एक रोज़ आग़ा साहब को कलकत्ता से पांच हज़ार रुपया आया, बहुत ख़ुश हुए। तअल्लियाँ बघारना उनकी फ़ित्रत में था। सालिक साहब शाम को उनके हाँ पहुँचे तो आलम ही दूसरा था। कहने लगे, आग़ा हश्र ड्रामे का ख़ुदा है, हिंदुस्तान भर में कोई शख़्स उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता, वो इंडियन शेक्सपियर है। सालिक ने कहा, जैसा थर्ड क्लास इंडिया है वैसा ही उसका शेक्सपियर होगा? बहुत भन्नाए, चूँकि सालिक साहब से गाली गलौच का लेन-देन था लिहाज़ा सिटपिटा कर रह गए। कहने लगे जानते हो पांच हज़ार रुपये कितने होते हैं? सालिक ने कहा जी हाँ, सुना है पांच हज़ार की छांव में कुत्ता बैठता है। बे-इख़्तियार हंस पड़े, फ़रमाया मस्ख़रेपन से बाज़ नहीं आते।

    ख़्वाजा हसन निज़ामी भी क़ुदरत से ‘तिबा और तर्रार तबीयत लेकर आए थे, उनके हाँ भी ज़बान का ज़ोर बंधा हुआ था। देहली मरहूम की आबरू थे। जहाँ तक उनकी ख़ुसूसियतों का ताल्लुक़ था वो कई ख़ूबियों की तस्वीर थे, मसलन पीर भी थे, पीर ज़ादे भी, अख़बार नवीस भी थे और अह्ल-ए-अल्लाह भी, साहब-ए-तर्ज़ अदीब भी थे और सूफ़ी बा करामत भी, ताजिर भी थे और सज्जादा नशीन भी। गोया एक ज़ात में कई वजूद जमा हो गए थे। शोशा छोड़ने, मिसरा उठाने, थिगली लगाने, करतब दिखाने, पतंग उड़ाने, नाटक रचाने और हथेली पर सरसों जमाने में उन्हें कमाल हासिल था। निज़ामुद्दीन औलिया अल्लाह के जवार में रह कर एक दुनिया से लड़ाई ले रखी थी। मौलाना ज़फ़र अली ख़ां को हैदराबाद से पटख़नी दिलवाई, मौलाना मुहम्मद अली के लिए भड़ों का छत्ता हो गए, दीवान सिंह मफ़्तूं से तानारीरी शुरू की और आन वाहिद में मल्हार गाने लगे, महात्मा गाँधी की चर्ग़ चूंन का भरकस निकाला, शर रहानंद का टेंटुवा दबाया, शुद्धी को नाकों चने चबवाए, तब्लीग़ का डोल डाला, इंसान क्या, तूफ़ान थे। सालिक साहब चूँकि निज़ाम-ए-ख़ानक़ाही के ख़िलाफ़ लिखा ही करते थे इसलिए उनसे भी कभी-कभार चाव चोंचले हो जाते। ख़्वाजा साहब बहरहाल एक ज़िंदा दिल और यार बाश शख़्सियत थे, हुजरे में मुजरे का जवाज़ भी पैदा कर लेते। भारत ब्याकुल थियेट्रीकल के एक नौ उम्र अदाकार, चुनी लाल पर ख़्वाजा साहब की नज़र-ए-इनायत हो गई, सालिक साहब को शोख़ी सूझी, तीन चार अशआर फ़ारसी में लिख कर गुमनाम की तरफ़ से ख़्वाजा साहब को डाक में भेज दिए,

    ख़्वाजा-ए-नामदार चूनी

    दर सोहबत-ए-गुलएज़ार चूनी,

    मन दर हिज्र-ए-तू ईं चनीनम

    तू दर पहलू-ए-यार चूनी,

    दर हसरत-ए-क़ुर्ब-ए-ज़ात बेचूं

    सूफ़ी-ए-हर्ज़ाकार चूनी

    ख़्वाजा साहब लाहौर तशरीफ़ लाए तो सालिक साहब ने चवन्नी लाल का पूछा। ख़्वाजा साहब भाँप गए, फ़रमाया अच्छा तो वो अशआर आपके थे?

    हकीम फ़क़ीर मुहम्मद चिशती जगराओं के थे, लेकिन उनका वतन-ए-सानी लाहौर था। क़ुदरत ने उनमें हज़ाक़त-ओ-तबाबत के अलावा लताफ़त-ओ-ज़राफ़त का माद्दा कूट कूट कर भरा था। फब्ती कहने और ज़िला जगत में बेनज़ीर थे। सालिक साहब भी उनका लोहा मानते वो फब्ती कसते ही नहीं उसमें इस्लाह भी करते थे। मसलन सालिक साहब ने उनकी बूक़ल्मूनी पर आठों गाँठ कमिय्यत की फब्ती कसी, लगे क्या साईसों की ज़बान बोलते हो?

    मतब में हकीम साहब के पास नज्जो तवाएफ़ बैठी थी, इतने में सालिक साहब गए। हकीम साहब ने नज्जो से कहा इनसे मिलो हमारे शहर के बहुत बड़े अदीब और शायर अब्दुल मजीद सालिक हैं। वो आदाब बजा लाई। सालिक से कहा कि ये लाहौर की मशहूर तवाएफ़ नज्जो है। सालिक साहिब ने कहा, नज्जो? भला क्या नाम हुआ? फ़रमाने लगे लोग नज्जो नज्जो कह कर पुकारते हैं, पूरा नाम तो नजात-उल-मोमिनीन है। नज्जो का खिला चम्पइ रंग, सर पे सफ़ेद रेशमी दुपट्टा, किनारों पर चौड़ा नुक़रई ठप्पा। सालिक ने कहा, मुलाहिज़ा फ़रमाया आपने, डिबिया का अंगूर है, तशबीह-ए-ताम थी बहुत दाद दी, हकीम साहब ने फ़रमाया।

    भला इस तशबीह के बारे में क्या ख़्याल है आपका?

    खमीरा-ए-गाऊ-ज़बान ब-वर्क़-ए-नुक़रा-ए-पेचीदा

    सालिक साहब फड़क उठे।

    सालिक साहब की सबसे बड़ी ख़ूबी उनका बाग़-ओ-बहार होना था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने एक दफ़ा उनसे पूछा, सालिक साहब आपको मालूम है अरबी में खटाई को क्या कहते हैं। जवाब दिया हमोज़। फ़रमाया खट्टा करना तहमीज़ कहलाता है, बुरे मअनी में नहीं बल्कि चटपटा बनाने के मअनी में। अरबी में एक क़ौल है, नुस्ख़-ए-मजालिसकुम, अपनी मजलिसों और सुह्बतों को चटपटा बनाओ। तो आपके आने से हमारी मजलिस चटपटी बन गई। वाक़या ये है कि सालिक साहब जिस मजलिस में होते वो चटपटी हो जाती, शुरका-ए-मजलिस देर तक लुत्फ़ अंदोज़ होते।

    हर शख़्स का अंदाज़ा उसके दोस्तों से किया जाता है। सालिक साहब अवाइल-ए-उम्र ही से जिन लोगों के साथ रहे वो क़लम के लिए माया-ए-नाज़ थे, इक़बाल, अबुल कलाम, ज़फ़र अली ख़ां, हसरत मोहानी, मुमताज़ अली। जिस पाये के लोग थे वो उनके नाम और काम से ज़ाहिर है। हम सफ़रों में उन्हें मेहर जैसा रफ़ीक़-ए-क़लम मिला। हम नशीनों में चराग़ हसन हसरत, मुर्तज़ा अहमद मयकश, अहमद शाह बुख़ारी, मुहम्मद दीन तासीर। शागिर्दों में अहमद नदीम क़ासमी और औलाद में अब्दुस्सलाम ख़ुरशीद। तमाम उम्र क़िरतास-ओ-क़लम में कैग़, साल-हा-साल लिखा और साल-हा-साल पढ़ा। इस एतिबार से वो एक तिहाई सदी के अदब-ओ-सियासत की चलती फिरती कहानी थे। उनकी बातों से जी उकताता ही नहीं था, क्या-क्या बातें उनके सीने में नहीं थीं? कितनी ही बातें उनके क़लम से सफ़ा काग़ज़ पर गईं, कितने ही लोगों के हाफ़िज़ा में बे तहरीर पड़ी हैं और कितनी ही नाग़ुफ़्तनी होने के बाइस महफ़िलों में उड़ती फिरती हैं। अक्सर गुफ़्तनी नागुफ़्तनी वो अपने साथ क़ब्र में ले गए। जिस मौज़ू पर बोलते मोती रोलते। हा, मीर दर्द ने किस वक़्त कहा था,

    या रब वो हस्तियाँ अब किस देस बस्तियाँ हैं?

    अब जिनके देखने को आँखें तरसतियाँ हैं?

    उस बाज़ार में मेरी एक रुस्वा सी किताब है, ये फ़ह्हाशी की तारीख़ है। उसका ख़्याल मुझे एक फ़ीचर से पैदा हुआ जो मैंने “चट्टान” के सालगिरा नंबर में लिखा था। सालिक साहब ने ज़ोर दिया कि मैं उस फ़ीचर को मुख़्तलिफ़ अबवाब में तक़सीम कर के किताब लिख दूँ। उस बाज़ार में फिरते फ़िराते मुझे एक ऐसे घराने में जाना पड़ा जिसकी मालकिन कभी जवान थी। एक ज़माने में अल्लामा इक़बाल उस की आवाज़ से ख़ुश होते थे, उसका नाम अमीर था। अमीर का ज़माना लद चुका था। उस वक़्त सत्तर पछत्तर बरस के लपेटे में थी, चेहरे पर झुर्रियों की चंट से मालूम होता था कि लुटे हुए ऐश की तस्वीर है। मैंने भी इधर उधर के टाँके मिलाकर सवाल किया कि वो मुझे इक़बाल के बारे में क्या बता सकती है? लेकिन तरह दे गई। मैंने इसरार किया, उसने रसीद तक दी। मैंने पुचकारना चाहा वो टाल गई। हज़ार जतन किए लेकिन किसी तरह भी ढब पर आई। जब मैंने सारे दांव इस्तेमाल कर लिए तो ख़ुदा का वास्ता डाला। लेकिन उस के कानों पर जूं तक रेंगी। जब मैंने उज़्र-ओ-इनकार की वजह पूछी तो उसने हुक्क़े की नैने छोड़ते हुए कहा,

    “हम लोग शुरफ़ा के राज़ों की नुमाइश या व्यापार नहीं किया करते। आप ख़्वाह-मख़्वाह हवा को मुट्ठी में थामना चाहते हैं।”

    वापस कर मैंने सालिक साहब से इसका ज़िक्र किया तो वो अमीर के ज़िक्र से शश्दर रह गए। पूछा, अभी तक ज़िन्दा है? अर्ज़ किया, जी हाँ। फिर एक वाक़िया सुनाया कि मौलाना गिरामी लाहौर तशरीफ़ लाए तो मुझे दफ़्तर से उठाकर अल्लामा इक़बाल के हाँ ले गए अल्लामा उन दिनों बाज़ार-ए-हकीमां में रहते थे। अली बख़्श से पता चला कि अल्लामा बीमार हैं, धुस्सा लेकर लेटे हुए थे, डाढ़ी बढ़ी हुई चेहरा उतरा हुआ, आँखें धंसी हुईं। गिरामी को देखते ही आबदीदा हो गए। पूछा ख़ैरियत है? मालूम हुआ कि अमीर की माँ ने मेल-मुलाक़ात बंद कर दी है। पिछले तीन रोज़ से मुलाक़ात नहीं हुई। गिरामी खिलखिलाकर हंस पड़े। पंजाबी में कहा,

    छड यार तूं वी ग़ज़ब करना ईं, तीनों अपनी हुंडी किस तरह दे दें। (छोड़ो यार तुम भी ग़ज़ब करते हो, भला वो तुम्हें अपनी हुंडी क्यों कर दे दे)। अल्लामा बेहद ग़मगीन थे। गिरामी ने अली बख़्श से कहा, गाड़ी तैयार करो। मुझे साथ लिया और उस बाज़ार को रवाना हो गए। अमीर के मकान पर पहुँचे, दस्तक दी। अमीर की माँ ने गिरामी को देखा तो ख़ुश दिली से ख़ैरमक़दम किया।

    आप और यहाँ ? अहलन-ओ-सहलन।

    गिरामी ने अमीर की माँ से गिला किया कि तूने हमारे शायर को ख़त्म करने की ठानी है। उसने कहा मौलाना शायरों के पास क्या है, चार क़ाफ़िए और दो रदीफ़ें। क्या मैं अपनी लड़की हाथ से देकर फ़ाक़े मर जाऊँ? आपका शायर तो हमारे हाँ नक़ब लगाने आता है, मेरी लड़की चली गई तो कौन ज़िम्मेदार होगा?

    गिरामी ने उजली डाढ़ी का वास्ता दिया, और दो घंटे की शख़्सी ज़मानत देकर अमीर को साथ ले आए। मैं अली बख़्श के साथ, गिरामी अमीर के साथ घोड़ा दड़की में चला रहा था। अल्लामा के हाँ पहुँचे तो गिरामी ने झिंझोड़ते हुए कहा, उठो जी, गई अमीर।

    सचमुच, अल्लामा ने हैरत से पूछा।

    अमीर सामने खड़ी थी, दफ़’अतन उनका चेहरा जगमगा उठा। सालिक साहब ने ये वाक़िया सुनाते हुए कहा, ज़िन्दगी में इस क़िस्म की आरज़ूएं नागुज़ीर होती हैं। इंसान को उन रास्तों से गुज़रना ही पड़ता है। फ़रमाया जिस ज़माने में इक़बाल अनारकली में रहते थे, उन दिनों लाहौरी दरवाज़ा और पुरानी अनारकली में भी कसबियों के मकान थे। एक दिन मैं अल्लामा के हमराह अनारकली से गुज़र रहा था कि अचानक वो एक टकियाई के दरवाज़ा पर रुक गए। अधेड़ उम्र की काली कलूटी औरत, मूंढे पर बैठी हुक़्क़ा सुलगा रही थी। अंदर गए हुक़्क़ा का कश लगाया, अठन्नी या रुपया उसके हाथ में देकर आगए। मैं भौंचक्का रह गया, डाक्टर साहब ये क्या हरकत? फ़रमाया, सालिक साहब, उस औरत पर निगाह पड़ी तो उसकी शक्ल देखकर लहर सी उठी कि उसके पास कौन आता होगा? फिर मुझे अपने अलफ़ाज़ में तकब्बुर महसूस हुआ। मैं ने ख़्याल किया कि आख़िर उसके पहलू में भी दिल होगा। यही एहसास मुझे उसके पास ले गया कि अपने नफ़स को सज़ा दे सकूँ और उसकी दिलजोई करूँ। ये औरत सिर्फ़ पेट की मार के बाइस यहाँ बैठी है वर्ना इसमें जिस्म के ऐश की अदना सी अलामत भी नहीं है।

    सालिक साहब ने अल्लामा इक़बाल के इन वाक़ियात का ज़िक्र करते हुए कहा, उम्र की आख़िरी तिहाई में वो हर चीज़ से दस्तबर्दार हो गए थे। उनके क़ल्ब का ये हाल था कि आन वाहिद में बेइख़्तियार हो कर रोने लगते, हुज़ूर का नाम आते ही उनके जिस्म पर कपकपी तारी हो जाती, पहरों अश्कबार रहते। एक दफ़ा मैंने हदीस बयान की कि मस्जिद-ए-नबवी में एक बिल्ली ने बच्चे दे रखे थे, सहाबाओं ने बिल्ली को मार कर भगाना चाहा, हुज़ूर ने मना किया। सहाबाओं ने अर्ज़ की, मस्जिद ख़राब करती है। हुज़ूर ने फ़रमाया, इसे मारो नहीं, ये माँ हो गई है। हदीस का सुनना था कि अल्लामा बेइख़्तियार हो गए, धाड़ें मार मार कर रोने लगे। सालिक साहब क्या कहा? मारो नहीं माँ हो गई है, अल्लाह अल्लाह उमूमत का ये शरफ़? सालिक साहब का बयान था कि हज़रत अल्लामा कोई पौन घंटा इसी तरह रोते रहे, मैं परेशान हो गया। उनकी तबीयत बहाल हुई तो मुझे भी चैन आया, वरना जब तक वो अशकबार रहे मैं हिला रहा गोया मुझसे कोई शदीद ग़लती सरज़द हो गई हो।

    सन्1946 में सालिक साहब ने मेरी इस्तिदआ पर रोज़नामा आज़ाद में अपनी जेल यात्रा पर एक मज़मून लिखा फिर यही मज़मून उन्होंने तफ़्सीलात के साथ “सरगुज़श्त” में तहरीर किया। वो नवंबर 1921 ई. में ज़ेर-ए-दफ़ा 153 अलिफ़ गिरफ़्तार हो कर एक साल क़ैद हो गए। लाहौर सेंट्रल जेल से मियांवाली जेल मुंतक़िल कर दिया गया जहाँ पंजाब और दिल्ली के बहुत से पॉलीटिकल क़ैदी रह रहे थे। वो लिखते हैं कि मैंने और अब्दुल अज़ीज़ अंसारी ने मौलाना अहमद सईद देहलवी से अदब-ए-अरबी, सर्फ़-ओ-नह्व अरबी और मंतिक़ का सबक़ पढ़ना शुरू किया। मौलाना लिक़ाउल्लाह उस्मानी पानीपती नमाज़ में हम सब के पेशइमाम थे। सय्यद हबीब मौलाना दाऊद ग़ज़नवी को अंग्रेज़ी पढ़ाते और मौलाना दाऊद सय्यद साहब को अरबी। नतीजा ये हुआ कि इनको अंग्रेज़ी आई उनको अरबी। मौलाना अब्दुल्लाह चूड़ी वाले, मीर-ए-मत्बख़ थे। कभी कभी क़व्वाली भी होती। जिसमें अख़्तर अली ख़ां घड़ा बजाते। सूफ़ी इक़बाल ताली बजाकर तान देते। सय्यद अताउल्लाह शाह बुख़ारी ग़ज़ल गाते। मौलाना अहमद सईद शेख़ मजलिस बन कर बैठे। मौलाना दाऊद ग़ज़नवी और अब्दुल अज़ीज़ अंसारी हाल खेलते। आह उन दोस्तों में से लिक़ाउल्लाह के सिवा एक भी हयात नहीं।

    आन क़दह ब-शिकस्त-ओ-आँ साक़ी न-मान्द।

    सरगुज़श्त का ज़िंदानी हिस्सा बड़ा ही दिलचस्प है। एक तज़्किरा में कई तज़्किरे गए हैं। हसरत के अलफ़ाज़ में क़ैद का ये एक साल उनके सवानेह हयात का क़ीमती मता था।

    उसके बाद कभी क़ैद हुए। ज़मींदार को बदमज़गी से छोड़ा। मेहर साहब की रिफ़ाक़त में इन्क़िलाब निकाला जो बर्तानवी हुकूमत के तर्क-ए-हिंदुस्तान तक चलता रहा। आज़ादी के बाद भी साल छः महीने निकला। आख़िर आब-ओ-हवा को मुवाफ़िक़ पाकर बंद कर दिया। ये ज़िक्र इससे पहले चुका है कि मजीद मलिक (प्रिंसिपल इन्फ़ार्मेशन ऑफीसर) की तहरीक पर हुकूमत-ए-पाकिस्तान की वज़ारत इत्तिलाआत-ओ-मत्बू’आत से मुंसलिक हो कर कराची चले गए। वहाँ फ़र्ज़ी नामों से हुकूमत की पालीसियों के हक़ में मज़ामीन लिखते रहे। बा’ज़ सरकारी मत्बू’आत के तर्जुमे किए। ख़्वाजा नाज़िमुद्दीन की तक़रीरें लिखीं। मलिक ग़ुलाम मोहम्मद का ज़माना आया तो उसी ख़िदमत पर मामूर रहे। कोई चार साल बाद वहाँ से लौटे तो यहाँ मुख़्तलिफ़ अदबी-ओ-इल्मी इदारों से मुंसलिक हो गए। मुनीर इंक्वायरी रिपोर्ट का उर्दू तर्जुमा किया। एक रोज़ अचानक बीमार हो गए। उस बीमारी ने सेहत की इमारत हिला दी। दवाओं के सहारे चलने फिरने के क़ाबिल हो गए लेकिन अंदर ख़ाना कमज़ोर पड़ गए। अक्सर घर ही में रहते। वज़ादारी का ये हाल था कि ताल्लुक़ात बना के तोड़ते नहीं थे। मेरी अहलिया को उन्ही दिनों दिमाग़ का आरिज़ा हो गया। ख़ुद उनकी पोती को भी यही आरिज़ा था। उस मरज़ की अज़िय्यत को समझते थे। मैं अपनी जगह सख़्त परेशान था। वो उस ज़माने में दूसरे तीसरे रोज़ घर से निकलते और सीधे मेरे हाँ चले आते। मेरी बीवी के पास बैठ जाते और उसकी तबीयत को बहलाने लगते। उससे कहते मेरे लिए नमकीन चाय बनाओ। मतलब उसको मसरूफ़ रखने से था। वो बड़े शौक़ से चाय बनाती। घुटनों टिक कर बैठे रहते। मुझे कहते, जाओ दफ़्तर में फेरा डाल आओ, मैं यहाँ बैठा हूँ। मेरी अहलिया के दिल में उन्होंने वालिद की सी जगह बना ली थी और वो भी उस को बेटी ही की तरह देखते भालते थे। उनकी सीरत का ये बांकपन मेरे दिल पर आज तक नक़्श है। क्या वज़ादारी थी कि आज वो बातें ही ख़्वाब-ओ-ख़्याल हो गई हैं। जिस रोज़ उनका इंतिक़ाल हुआ उससे एक दिन पहले कोई नौ बजे सुबह मेरे हाँ तशरीफ़ लाए। हस्ब-ए-मामूल मेरी अहलिया को नमकीन चाय बनाने के लिए कहा। उसने तैयार करके पेश की तो बहुत ख़ुश हुए। फ़रमाया, कुलचा, नमकीन चाय, शलजम और सफ़ेद चावल तो बस कश्मीरियों ही के हाथों लज़ीज़ पकते हैं। चार बजे चाम वापस चले गए, अगले रोज़ सुना कि सालिक साहब फ़ौत हो गए हैं तो यक़ीन नहीं आता था। भागम भाग मुस्लिम टाउन पहुँचा। जिस मकान में ज़राफ़त के फूल खिलते थे, वो मातमकदा बना हुआ था। सालिक साहब वाक़ई अल्लाह को प्यारे हो चुके थे।

    वो इक्का दुक्का अहबाब से मज़ाक़ भी कर लेते लेकिन ख़ास क़िस्म की मजलिसों में जाने और आम तर्ज़ की महफ़िलें रचाने के आदी थे। उनका अपना एक अंदाज़ था। मसलन वो बज़्लासंज ज़रूर थे मगर रेस्टोरानों, होटलों और क़हवाख़ानों में आने जाने से मुतनफ़्फ़िर रहे। उसे अपनी उम्र की मतानत के ख़िलाफ़ समझते थे। उनके नज़दीक रेस्टोरानों और क़हवाख़ानों में बैठ कर गप लड़ाना वाहियात खेल था। एक दफ़ा काफ़ी हाउस के पास से गुज़र रहे थे। चराग़ हसन हसरत (सिंदबाद जहाज़ी) ने देखा तो कुर्सी छोड़ कर बाहर गए। ज़ोर दिया कि अंदर चलें, काफ़ी पियें। “हल्का-ए-रिंदां” को सआदत बख़्शें, लेकिन मुतालिक़न माने।

    “इसमें ऐब क्या है?” हसरत ने कहा।

    “मुझे ऐब ही नज़र आता है।”

    “हसरत भी तो हर रोज़ बैठते हैं।” मैंने अर्ज़ किया।

    “उनमें अभी लड़कपन है।”

    वो नौजवानों की इज़्ज़त करते लेकिन उनसे बेतकल्लुफ़ नहीं होते थे। उनको मालूम था कि इसका नतीजा क्या होता है। जब कभी उन्हें पता चलता कि हसरत से नौजवानों की बम चख़ हो गई है और वो इख़्तिलाज के मरीज़ हैं जिससे उनकी हस्सास तबीयत मुतास्सिर होती है तो वो उन्हें टोकते कि हाथियों की इस डार या कबूतरों की इस टुकड़ी में क्या रखा है? घर में रहा करो। लेकिन हसरत साहब को कॉफ़ी हाउस का चस्का पड़ा हुआ था। वो इस रेवड़ या गल्ले में ज़रूर आते और बिला नाग़ा आते। जान लेवा मरज़ में भी आते रहे। हालाँकि चपरगट्टू और ऊल जूल क़िस्म के नौजवानों से उलझ कर दिल आज़ुर्दा होते थे। हसरत बड़े पाए के मताइबात निगार थे। बामुहावरा ज़बान लिखने में बेमिसाल थे। अदब-ओ-शे’र का ज़ौक़ निहायत शुस्ता-ओ-रफ़्ता पाया था। उनके सामने ग़लत उर्दू लिखना या ग़लत उर्दू बोलना मुश्किल था। वो बरख़ुद ग़लत लोगों को चुटकियों में उड़ा देते। बरगुज़ीदा अदीब और कुहना मश्क सहाफ़ी हो कर भी उन्हें शायराना ऐबों से लगाव था। इसके बरअक्स सालिक साहब ने उम्रभर शराब चखी कूचा-ए-यार में गए। रंगरलियाँ मनाईं गुलछर्रे उड़ाए। उन्हें निस्वानी मौसीक़ी से भी कोई ख़ास दिलचस्पी थी इस क़िस्म की महफ़िलों में शरीक होते। ख़ुद शायर थे। जब इन्क़िलाब से सुबुकदोश हो गए और कराची से वापस गए तो शे’र कहने का शौक़ ताज़ा हो गया। मुशायरों में जाने लगे। आवाज़ रसीली पाई थी। तरन्नुम से पढ़ते। लोग उनका एहतिराम करते लेकिन ये दौर उनके मुशायरों में जाने का नहीं था। मुशायरों पर खलंडरे शायर और तानसेनी गले छाए हुए थे जिन्हें ज़बान की नज़ाकतों से वाजिबी सा ताल्लुक़ था। उन्हें नस्र-ओ-नज़्म दोनों में ज़बान-ओ-बयान की पाबंदियों का एहसास रहता बल्कि इस बारे में अह्ल-ए-ज़बान से भी ज़्यादा सख़्त था। वो नौजवान अदीबों और शायरों की तरह “हम जायज़ समझते हैं” के मरज़ का शिकार नहीं थे। बल्कि अलफ़ाज़ और मुहावरात को असल की तरह इस्तेमाल करते। वो ज़रूरत के मुताबिक़ उनमें तरमीम के भी ख़िलाफ़ थे। उनके नज़दीक ये बदमज़ाक़ी थी। तरक़्क़ीपसंद तहरीक की उन्होंने बड़ी सरपरस्ती की और इसकी वजह ग़ालिबन अहमद नदीम क़ासमी थे। लेकिन तो कभी उनके इज्तिहाद को क़ुबूल किया ज़बान के मुआमले में उन लोगों की बेराह रवी को पसंद फ़रमाया और उनके उन बापर्दा अलफ़ाज़-ओ-तराकीब की हौसला अफ़ज़ाई की जिनकी आड़ में ये लोग ख़ुदा-ओ-मज़हब की तज़हीक करते थे।

    मैंने अपनी किसी नज़्म में मशीयत को तमाशाई लिखा। फ़रमाया ये लिखा करो। मशीयत अल्लाह की रज़ा और उसके इरादे का नाम है। तरक़्क़ी पसंदों को मालूम है कि ये मुसलमानों का मुल्क है और यहाँ इस्लाम को अव्वलियत हासिल है वो खुल के ख़ुदा को गाली नहीं दे सकते। उन्होंने इस्तिख़फ़ाफ़ के लिए मशिय्यत का लफ़्ज़ इंतिख़ाब कर लिया है।

    तरक़्क़ी पसंद अदीबों के सालाना इजलास की सदारत करते हुए एक ज़ोरदार ख़ुतबा पढ़ा, लेकिन उनके नज़रियात-ओ-तसव्वुर को इस्लामी मुआशरा के लिए मुज़िर समझते थे। अलबत्ता दौलत की ग़ैर मुन्सिफ़ाना तक़सीम, तबक़ाती ऊंच नीच और सरमायादाराना इस्तेहसाल के सख़्त ख़िलाफ़ थे। इस सिलसिला में तरक़्क़ी पसंदों के एहसास-ओ-इज़हार की तारीफ़ करते मगर उनका ख़्याल था कि उन अदीबों और शायरों में पचानवे फ़ीसद मौत से पहले मर जाएंगे, बाक़ी पांच फ़ीसद में से निस्फ़ वो हैं जिनके अदब में ज़िन्दा रहने की सलाहियत ही नहीं। उनका ख़्याल था कि अदब-ओ-फ़न को बीख़-ओ-बन से उखाड़ने का नाम तरक़्क़ी पसंदी है। वो उनकी ज़बान और उनके उस्लूब से कुछ ज़्यादा ख़ुश थे अलबत्ता ख़्यालात के उस हिस्से की तारीफ़ करते जिसमें तबक़ात के ख़िलाफ़ जद्द-ओ-जहद का हौसला पाया जाता और मेहनतकशों को उनका हक़ दिलवाने की उमंग होती। वो नारे बाज़ी के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उनका नज़रिया था कि नफ़रत अदब को हलाक कर देती है। वो नई पौद की ख़ुदराई से बेज़ार थे। उनका ख़्याल था कि नफ़रत का जवाब नफ़रत नहीं और मौजूदा नौजवान सरज़निश या तादीब से समझने के हैं। उनके नज़दीक तजरबा बेहतरीन उस्ताद है। फ़रमाते जिस अदब में ज़िंदा रहने की ख़ूबी ही नहीं और जो महज़ सियासी नारों से पैदा हुआ है उससे डरना नहीं चाहिए बल्कि उसको हालात के सिपुर्द कर देना चाहिए। जूंही ये हालात ख़त्म होंगे इस क़िस्म का अदब भी ख़त्म हो जाएगा।

    उन्हें ये एहसास भी था कि अदीबों की नई पौद के ख़्यालात मुँह ज़ोर हैं लेकिन ज़बान कमज़ोर है। चुनांचे फ़न के तसामहात पर वो अक्सर रौशन आसार नौजवानों को टोक देते। एक दफ़ा तासीर ने उनसे कहा सालिक साहब क्या “हमने जाना है या हमने करना है” लिखना दुरुस्त है। फ़रमाया ख़िलाफ़-ए-मुहावरा अह्ल-ए-ज़बान है। “मुझको जाना है, मुझको करना है”, दुरुस्त है। तासीर ने कहा मैंने अपनी तहरीरों में इस क़िस्म के फ़िक़रे लिखे हैं। अह्ल-ए-ज़बान ए’तिराज़ करते हैं। क्या जवाब दूँ? सालिक साहब ने कहा, ग़लती का जवाब क्या होगा। साफ़ कहिए कि मुझी से ग़लती हो गई। तासीर राज़ी हुए। इसरार करने लगे। कोई ऐसा जवाब बताइए जो बज़ाहिर माक़ूल हो। सालिक साहब ने कहा वो तो महज़ सुख़न तराज़ी या कज बहसी होगी। तासीर माने, ज़रूर कोई जवाब होना चाहिए? उन्होंने कहा, तो आप ये कहिए कि “ने” अलामत-ए-फ़ाअली है और “को” अलामत-ए- मफ़ऊली। अगर जाना है का फ़ाइल मैं है तो उसके बाद “ने” ही दुरुस्त है “को” क्यों कर दुरुस्त हो सकता है? तासीर सुन कर उछल पड़े। बस ठीक हो गया। अब ज़बान वालों से निपट लूँगा। सालिक साहब ने कहा, लेकिन मुहावरे के ए’तिराज़ का जवाब क़वाएद से और क़वाएद के ए’तिराज़ का जवाब मुहावरे से देना उसूल-ए-लिसानियात के ख़िलाफ़ है। तासीर कहाँ मानते वो ख़ुद तरक़्क़ी पसंदों के आदम थे लेकिन उनकी जन्नत से निकाले जा चुके थे।

    फ़िल जुमला सालिक साहब एक ज़िन्दा दिल, बज़्ला संज, कोहना मश्क, ख़ुश गुफ़्तार, पाक सीरत, नेक सरिश्त, दोस्त नवाज़, साहब-ए-तर्ज़ और नुक़्ता तराज़ अदीब थे। तक़रीबन निस्फ़ सदी तक क़लम का साथ दिया। ज़िन्दगीभर हज़ारों सफ़हात लिख डाले। इन्क़िलाब के बीस बाइस साल के फाइल ही गवाह हैं। हमेशा क़लम बर्दाश्ता लिखते। सुबह-सवेरे लिखते और गाव तकिया पर टेक लगा कर लिखते। ख़त इतना ख़ूबसूरत था कि मोती पिरोते। मौलाना अबुल कलाम ने एक दफ़ा उनके ख़त की तारीफ़ करते हुए कहा था सालिक साहब, मेहर साहब का ख़त भी आप ही लिख दिया करें। मेहर साहब का ख़त शिकस्ता था। मुसव्वदात उमूमन पेंसिल से लिखते। सिफ़ारतख़ानों के ख़बर नामों की स्लिप्स बनाकर उम्रभर उनकी पुश्त पर अफ़्क़ार-ओ-हवादिस लिखते रहे। यारान-ए-कुहन का तमाम मुसव्वदा पेंसिल से लिखा हुआ था। फ़रमाते, मेरे लिए सुबह-सवेरे नाश्ता करना मुश्किल है। अफ़्क़ार-ओ-हवादिस या शज़रात लिखना मुश्किल नहीं, वो इतना ही सहल है जैसे चाय पी ली, सिगरेट सुलगा लिया।

    सरगुज़श्त के आख़िर में उन्होंने लिखा था।

    आज सरगुज़श्त ख़त्म होती है। 15 अगस्त को पाकिस्तान क़ायम हो गया। इस वक़्त के बाद की सरगुज़श्त लिखना बेहद दुशवार है। मैं अभी अपने दिल-ओ-दिमाग़ और अपने क़लम में इतनी सलाहियत नहीं पाता कि जो कुछ मैंने देखा और सुना और बिसात-ए-सियासत पर शातिरान ने जो चालें चलीं, उनको कलमबंद कर सकूँ और शायद इस सरगुज़श्त को फ़ाश अंदाज़ में लिखना मस्लिहत भी नहीं। अगर चंद साल हयात-ए-मुस्त’आर बाक़ी है तो इंशाअल्लाह सरगुज़श्त का दूसरा हिस्सा भी मुरत्तब होगा और लिखने वाला ही रहा तो अल्लाह अल्लाह... कार-ए-दुनिया किसे तमाम करो।

    आख़िर 27 सितंबर 1959 ई.को इस सरगुज़श्त का “तम्मत-बिलख़ैर” हो गया। अल्लाहुम-मग़्फ़िरलहु।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए