दोज़ख़ी
रोचक तथ्य
سعادت حسن منٹو کا اقتباس اس خاکہ کے بارے میں ’’ساقی‘‘ میں ’’دوزخی‘‘ چھپا۔ میری بہن نے پڑھا اور مجھ سے کہا۔’’سعادت! یہ عصمت کتنی بے ہودہ ہے۔ اپنے موئے بھائی کو بھی نہیں چھوڑا کم بخت نے۔ کیسی کیسی فضول باتیں لکھی ہیں۔‘‘ میں نے کہا۔’’ اقبال اگر میری موت پر تم ایسا ہی مضمون لکھنے کا وعدہ کرو۔ تو خدا کی قسم میں آج مرنے کے لئے تیار ہوں۔‘‘ شاہجہان نے اپنی محبوبہ کی یاد قائم رکھنے کیلئے تاج محل بنوایا۔ عصمت نے اپنے محبوب بھائی کی یاد میں’’دوزخی‘‘ لکھا۔ شاہجہان نے دوسروں سے پتھر اٹھوائے۔ انہیں ترشوایا اور اپنی محبوبہ کی لاش پر عظیم الشان عمارت تعمیر کرائی۔ عصمت نے خود اپنے ہاتھوں سے اپنے خواہرانہ جذبات چن چن کر ایک اونچا مچان تیار کیا اور اس پر نرم نرم ہاتھوں سے اپنے بھائی کی نعش رکھ دی۔ تاج شاہ جہان کی محبت کا برہنہ مرمریں اشتہار معلوم ہوتا ہے۔ لیکن’’دوزخی‘‘ عصمت کی محبت کا نہایت ہی لطیف اور حسین اشارہ ہے۔ وہ جنت جو اس مضمون میں آباد ہے۔ عنوان اس کا اشتہار نہیں دیتا۔
जब तक कॉलेज सर पर सवार रहा पढ़ने लिखने से फ़ुर्सत ही न मिली जो अदब की तरफ़ तवज्जोह की जाती और कॉलेज से निकल कर बस दिल में यही बात बैठ गई कि हर चीज़ जो दो साल पहले लिखी गई बोसीदा, बद-मज़ाक़ और झूठी है। नया अदब सिर्फ़ आज और कल में मिलेगा। इस नए अदब ने इस क़दर गड़बड़ाया कि न जाने कितनी किताबें सिर्फ़ नाम देखकर ही वाहियात समझ कर फेंक दीं और सबसे ज़ियादा बेकार किताबें जो नज़र आईं वो अज़ीम बेग चुग़ताई की थीं। घर की मुर्ग़ी दाल बराबर वाला मज़मून। घर के हर कोने में उनकी किताबें रुलती फिरतीं। मगर सिवाए अम्माँ और दो एक पुराने फ़ैशन की भाबियों के किसी ने उठा कर भी न देखीं। यही ख़याल होता भला उनमें होगा ही क्या? ये अदब नहीं फक्कड़, मज़ाक़, पुराने इश्क़ के सड़ियल क़िस्से और जी जलाने वाली बातें होंगी। यानी बे-पढ़े राय क़ाइम, मुझे ख़ुद यक़ीन नहीं आया कि मैंने अज़ीम भाई की किताबें क्यों न पढ़ीं। शायद इसमें थोड़ा सा ग़ुरूर भी शामिल था और ख़ुद-सताई भी। ये ख़याल होता था ये पुराने हैं हम नए।
एक दिन यूँही लेटे-लेटे उनका एक मज़मून “यक्का” नज़र आया, मैं और रहीम पढ़ने लगे। न जाने किस धुन में थे कि हँसी आने लगी और इस क़दर आई कि पढ़ना दुश्वार हो गया, हम पढ़ ही रहे थे कि अज़ीम भाई आ गए और अपनी किताब पढ़ते देखकर खिल गए मगर हम जैसे चिड़ गए और मुँह बनाने लगे, वो एक होशियार थे, बोले, “लाओ मैं तुम्हें सुनाऊँ।” और ये कह कर दो एक मज़मून जो हमें सुनाए तो सही मानों में हम ज़मीन पर लोटने लगे। सारी बनावट ग़ायब हो गई। एक तो उनके मज़मून और फिर उनकी ज़बानी। मालूम होता था हँसी की चिंगारियाँ उड़ रही हैं।
जब वो ख़ूब अहमक़ बना चुके तो बोले, “तुम लोग तो कहते हो मेरे मज़मूनों में कुछ नहीं...” और उन्होंने छेड़ा, लो, हमारे मुँह उतरकर ज़रा-ज़रा से निकल आए और बे-तरह चिढ़ गए। झुंजला कर उल्टी सीधी बातें करने लगे। जी जल गया और फिर इसके बाद और भी उनकी किताबों से नफ़रत हो गई।
मैंने उनके मज़ामीन की उनकी ज़िन्दगी में कभी तारीफ़ न की। हालाँकि वो मेरे मज़मून देखकर ऐसे ख़ुश होते थे कि बयान नहीं। इस क़दर प्यार से तारीफ़ करते थे मगर यहाँ तो उनकी हर बात से चिढ़ने की आदत थी। मैं समझती थी कि वो मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं और ब-ख़ुदा वो शख़्स जब किसी का मज़ाक़ उड़ाता था तो जी चाहता था बच्चों की तरह ज़मीन पर मचल जाएँ और रोएँ। किस क़दर तन्ज़, कैसी कड़वी मुस्कुराहट और कटते हुए जुमले। मैं तो हर वक़्त डरती थी कि मेरा मज़ाक़ उड़ाया और मैंने बद-ज़बानी की।
कभी कहते थे कि, “मुझे डर लगता है कि कहीं तुम मुझसे अच्छा न लिखने लगो।”, और मैंने सिर्फ़ चन्द मज़मून लिखे थे इसलिए जी जलता था कि ये मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।
उनके इन्तिक़ाल के बाद न जाने क्यों मरने वाले की चीज़ें प्यारी हो गईं। उनका एक-एक लफ़्ज़ चुभने लगा और मैंने उम्र में पहली दफ़्अ उनकी किताबें दिल लगा कर पढ़ीं। दिल लगा कर पढ़ने की भी ख़ूब रही। गोया दिल लगाने की भी ज़रूरत थी! दिल ख़ुद-ब-ख़ुद खिंचने लगा। ओफ़्फ़ो, तो ये कुछ लिखा है उनकी रुलने वाली किताबों में। एक-एक लफ़्ज़ पर उनकी तस्वीर आँखों में खिंच जाती और पल भर में वो ग़म और दुख में डूबी हुई मुस्कुराने की कोशिश करती हुई आँखें वो अन्दोह-नाक सियाह घटाओं की तरह मुर्झाए हुए चेहरे पर पड़े हुए घने बाल, वो पीली नीलाहट लिए हुए बुलन्द पेशानी, पज़मुर्दा ऊदे होंट जिनके अन्दर क़ब्ल-अज़-वक़्त तोड़े हुए ना-हमवार दाँत और लाग़र सूखे-सूखे हाथ और औरतों जैसे नाज़ुक, दवाओं में बसी हुई लम्बी उँगलियों वाले हाथ और फिर उन हाथों पर वरम आ गया था। पतली-पतली खपची जैसी टाँगें जिनके सर पर वरम जैसे सूजे हुए बद-वज़ा पैर जिनके देखने के डर की वज्ह से हम लोग उनके सिरहाने ही की तरफ़ जाया करते थे और सूखे हुए पिंजरे जैसे सीने पर धोंकनी का शुबहा होता था। कलेजे पर हज़ारों, कपड़ों, बनियानों की तहें और उस सीने में ऐसा फड़कता हुआ चुलबुला दिल! या अल्लाह ये शख़्स क्यों कर हँसता था, मालूम होता था कोई भूत है या जिन्न जो हर ख़ुदाई ताक़त से कुश्ती लड़ रहा है, नहीं मानता मुस्कुराए जाता है ख़ुदा-ए-जब्बार-ओ-क़ह्हार चढ़-चढ़ कर खाँसी और दमा का अज़ाब नाज़िल कर रहा है और ये दिल क़हक़हे नहीं छोड़ता। कौन सा दुनिया-ओ-दीन का दुख था जो क़ुदरत ने बचा रखा था मगर फिर भी न रुला सका। उस दुख में जलन, हँसते नहीं हँसाते रहना, किसी इन्सान का काम नहीं। मामूँ कहते थे, “ज़िन्दा लाश।” ख़ुदाया अगर लाशें भी इस क़दर जानदार, बेचैन और फड़कने वाली होती हैं तो फिर दुनिया एक लाश क्यों नहीं बन जाती। मैं एक बहन की हैसियत से नहीं एक औरत बन कर उनकी तरफ़ नज़र उठा कर देखती तो दिल लरज़ उठता था। किस क़दर ढीट था उनका दिल। उसमें कितनी जान थी। मुँह पर गोश्त नाम को न था। मगर कुछ दिन पहले चेहरे पर वरम आ जाने से चेहरा ख़ूबसूरत हो गया था। कनपटी उभर गई थीं। पिचके हुए गाल दबीज़ हो गए थे... एक मौत की सी जिला चेहरे पर आई थी और रंगत में कुछ अजीब तिलिस्मी सब्ज़ी सी आ गई थी। जैसे हनूत की हुई ममी, मगर आँखें मालूम होता था किसी बच्चे की शरीर आँखें जो ज़रा सी बात पर नाच उठती थीं और फिर कभी उनमें नौ-जवान लड़कों की सी शोख़ी जाग उठती थी और यही आँखें कभी दौरे की शिद्दत से घबरा कर चीख़ उठतीं। उनकी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ नीली सत्ह गदली ज़र्द हो जाती और बेकस हाथ लरज़ने लगते। सीना फटने पर आ जाता। दौरा ख़त्म हुआ कि फिर वही रौशनी, फिर वही रक़्स फिर वही चमक।
अभी चन्द दिन हुए मैंने पहली मर्तबा ख़ानम पढ़ी, हीरो वो ख़ुद नहीं। उनमें इतनी जान ही कब थी मगर वो हीरो उनके तख़य्युल का हीरो है। वो उनके दबे हुए जज़्बात का तख़य्युली मुजस्समा है जैसे एक लंगड़ा ख़्वाबों में नाचता कूदता, दौड़ता हुआ देखता है ऐसे ही वो मरज़ में गिरफ़्तार निढाल पड़े अपने हमज़ाद को शरारतें करता देखते थे। काश, एक दफ़्अ और सिर्फ़ एक दफ़्अ उनकी “ख़ानम” इस हीरो को देख लेती।
शायद औरों के लिए “ख़ानम” कुछ भी नहीं। लेकिन सिवाए लिखने वाले के और बाक़ी सारे कैरेक्टर दुरुस्त और ज़िन्दा हैं भाई साहब, भाई जान, नानी अम्माँ, शेख़ानी, वालिद साहब, भतीजे, भंगी बहिश्ती ये सब के सब हैं और रहेंगे। यही होता था बिल्कुल यही और अब भी सब घरों में ऐसा ही होता है। कम-अज़-कम मेरे घर में तो था और एक-एक लफ़्ज़ घर की सच्ची तस्वीर है। जब अज़ीम बेग लिखते थे तो सारा घर और हम उनके लिए ऐक्टिंग किया करते थे। हम हिलते-जुलते खिलौने थे और वो एक नक़्क़ाश जिसने बिल्कुल अस्ल की नक़्ल कर दी। जितनी दफ़्अ “ख़ानम” को पढ़ती हूँ यही मालूम होता है कि ख़ानदान का ग्रुप देखती हूँ। वो भाभी जान और ख़ानम झगड़ रही हैं। वो भाई साहब शरारतें ईजाद कर रहे हैं और मुसन्निफ़ ख़ुद सर झुकाए ख़ामोश तस्वीर-कशी में मश्ग़ूल है।
“खुरपा बहादुर” जिसका पहला टुकड़ा “रूह-ए-लताफ़त” में छपा है ये सब तख़य्युली है, लाचार-ओ-मजबूर इन्सान अपने हमज़ाद से दुनिया जहान की शरारतें करवा लेता है। वो ख़ुद तो दो क़दम नहीं चल सकता। लेकिन हमज़ाद चोरियाँ करता, शरारतें करता है। ख़ुद तो एक ऊँगली का बोझ नहीं सहार सकता, मगर हमज़ाद जी भर कर मार खाता है और टस से मस नहीं होता। मुसन्निफ़ को अरमान था कि काश, वो भी उतना मज़बूत होता कि दूसरे भाईयों की तरह डेढ़-डेढ़ सौ जूते खा कर कमर झाड़ कर उठ खड़ा होता। तंदुरुस्त लोग क्या जानें एक बीमार के दिल में क्या-क्या अरमान होते हैं। पर-कटा परिन्दा वैसे नहीं तो ख़्वाबों में तो दुनिया-भर की सैर कर आता है। यही हाल उनका था। वो जो कुछ न थे अफ़्साने में वही बन कर दिल की आग बुझा लेते थे। कुछ तो चाहिए न जीने के लिए।
शुरू ही से रोते-धोते पैदा हुए। रूई के गालों पर रखकर पाले गए। कमज़ोर देखकर हर एक मुआफ़ कर देता। क़वी- हैकल भाई सर झुका कर पिट लेते। कुछ भी करें वालिद साहब कमज़ोर जानकर मुआफ़ कर देते। हर एक दिलजूई में लगा रहता। मगर बीमार को बीमार कहो तो उसे ख़ुशी कब होगी? इन मेहरबानियों से एहसास-ए-कमज़ोरी और बढ़ता। बग़ावत और बढ़ती। ग़ुस्सा बढ़ता मगर बेबस, सबने उनके साथ गाँधी जी वाली नान-वॉयलेंस शुरू कर दी थी। वो चाहते थे कोई तो उन्हें भी इन्सान समझे। उन्हें भी कोई डाँटे उन्हें भी कोई ज़िन्दा लोगों में शुमार करे। लिहाज़ा एक तरकीब निकाली और वो ये कि फ़सादी बन गए। जहाँ चाहा दो आदमियों को लड़ा दिया। अल्लाह ने दिमाग़ दिया था और फिर उसके साथ बला का तख़य्युल और तेज़ ज़बान, चटख़ारे ले-ले कर कुछ ऐसी तरकीबें चलते कि झगड़ा ज़रूर होता। बहन-भाई, माँ-बाप सबको नफ़रत हो गई। अच्छा-ख़ासा घर मैदान-ए-जंग बन गया और सब मुसीबतों के ज़िम्मेदार ख़ुद, बस सारी ख़ुद-परस्ती के जज़्बात मुतमइन हो गए और कमज़ोर-ओ-लाचार, हर दम का रोगी, थेटर का विलेन हीरो बन गया, और क्या चाहिए? सारी कमज़ोरियाँ हथियार बन गईं ज़बान बद से बदतर हो गई। दुनिया में हर कोई नफ़रत करने लगा। सूरत से जी मतलाने लगा। हँसते बोलते लोगों को दम भर में दुश्मन बना लेना बाएँ हाथ का काम हो गया।
लेकिन मक़्सद तो ये न था कि वाक़ई दुनिया उन्हें छोड़ दे। घर वालों ने जितना उनसे खिंचना शुरू किया उतना ही वो लिपटे। आख़िर में ख़ुदा मुआफ़ करे, उनकी सूरत देखकर नफ़रत आती थी। वो लाख कहते मगर दुश्मन नज़र आते थे। बीवी शौहर न समझती बच्चे बाप न समझते, बहन ने कह दिया तुम मेरे भाई नहीं और भाई आवाज़ सुनकर नफ़रत से मुँह मोड़ लेते। माँ कहती, “साँप जना था मैंने।”
मरने से पहले क़ाबिल-ए-रहम हालत थी, बहन हो कर नहीं इन्सान बन कर कहती हूँ जी चाहता था कि जल्दी से मर चुकें। आँखों में दम है मगर दिल दुखाने से नहीं चूकते। अज़ाब-ए-दोज़ख़ बन गए। हज़ारों कहानियों और अफ़्सानों का हीरो एक विलेन बन कर मुतमइन हो चुका था। वो चाहता था अब भैया से कोई प्यार करे, बीवी पूजा करे, बच्चे मुहब्बत से देखें, बहनें वारी जाएँ और माँ कलेजे से लगाए।
माँ ने तो वाक़ई कलेजे से लगा लिया। भूला-भटका रास्ते पर आन लगा। आख़िर को माँ थी। मगर औरों के दिल से नफ़रत न गई। यहाँ तक कि फेफड़े ख़त्म हो गए। वरम बढ़ गया। आँखें चुंधिया गईं और अंधों की तरह टटोलने पर भी रास्ता न मिला। हीरो बन कर भी हार उनकी ही रही। जो चाहा न मिला। उसके बदले नफ़रत, हिक़ारत, कराहत मिली, इन्सान किस क़दर पुर-हवस होता है। इतनी शोहरत और नाम होने के बावजूद हिक़ारत की ठोकरें खा कर जान दी। सुब्ह चार बजे, आज से 42 बरस पहले जो नन्हा सा कमज़ोर बच्चा पैदा हुआ था, वो ज़िन्दगी का नाटक खेल चुका था। 20 अगस्त को सुब्ह शमीम ने आकर कहा, “मुन्ने भाई ख़त्म हो रहे हैं उठो।”
“वह कभी ख़त्म न होंगे, बेकार मुझे जगा रहे हो।”, मैंने बिगड़ कर सुब्ह की ठंडी हवा में फिर सो जाने का इरादा किया।
“अरे कम्बख़्त, तुझे याद कर रहे हैं।”, शमीम ने कुछ परेशान हो कर हिलाया।
“उनसे कह दो अब हश्र के दिन मिलेंगे... अरे शमीम वो कभी नहीं मर सकते।”, मैंने वसूक़ से कहा।
मगर जब मैं नीचे आई तो उनकी ज़बान बन्द हो चुकी थी। कमरा सामान से ख़ाली कर दिया गया था। सारा कूड़ा करकट, किताबें हटा दी गई थीं। दवा की बोतलें, लाचारी की तस्वीर बनी लुढ़कना रही थीं। दो नन्हे बच्चे परेशान हो हो कर दरवाज़े को तक रहे थे। भाभी उन्हें ज़बरदस्ती चाय पिला रही थीं। माँ पलंगकी चादर बदल रही थीं। सूखी-सूखी आहें उनके कलेजे से निकल रही थीं। आँसू बन्द थे।
मुन्ने भाई, मैंने उन पर झुक कर कहा। एक लम्हे को आँखें अपने महवर पर रुकीं, होंट सिकुड़े और फिर वही नज़ा की हालत तारी हो गयी। हम सब बाहर बैठ कर चार घंटे तक सूखे बेजान हाथों की जंग देखते रहे। मालूम होता था इज़राईल भी पस्त हो रहे हैं। जंग थी कि ख़त्म ही न होती थी।
“ख़त्म हो गए मुन्ने भाई।”, न जाने किस ने कहा।
“वो कभी ख़त्म नहीं हो सकते।”, मुझे ख़याल आया।
और आज मैं उनकी किताबें देखकर कहती हूँ, ना-मुम्किन, वो कभी नहीं मर सकते। उनकी जंग अब भी जारी है, मरने से क्या होता है मेरे लिए तो वो मर कर ही जिए और न जाने कितनों के लिए वो मरने के बाद पैदा होंगे और बराबर पैदा होते रहेंगे। उनका पैग़ाम “दुख से लड़ो, नफ़रत से लड़ो, और मर कर भी लड़ते रहो।” ये कभी न मर सकेगा। उनकी बाग़ियाना रुह को कोई नहीं मार सकता। वो नेक नहीं थे। पारसा न होते अगर उनकी सेहत अच्छी होती। वो झूठे थे। उनकी ज़िन्दगी झूठी थी। सबसे बड़ा झूठ थी। उनका रोना झूठा, हँसना झूठा, लोग कहते हैं माँ-बाप को दुख दिया, बच्चों को दुख दिया, और सारे जग को दुख दिया। वो एक इफ़्रीत थे जो अज़ाब-ए-दुनिया बन कर नाज़िल हुए और अब दोज़ख़ के सिवा उनका कहीं ठिकाना नहीं। अगर दोज़ख़ ऐसे लोगों का ठिकाना है तो एक बार ज़रूर दोज़ख़ में जाना पड़ेगा। सिर्फ़ ये देखने कि जिस शख़्स ने दुनिया की दोज़ख़ में यूँ हँस-हँस तीर खाए और तीर-अन्दाज़ों को कड़वे तेल में तला वो दोज़ख़ में अज़ाब नाज़िल करने वालों को क्या कुछ न कुछ चिढ़ा-चिढ़ा कर हँस रहा होगा। बस, मैं वो तल्ख़ तन्ज़ भरी हँसी देखना चाहती हूँ जिसे देखकर दोज़ख़ का दारोग़ा भी जल उठता होगा।
मुझे यक़ीन है वो अब भी हँस रहा होगा। कीड़े उसकी खाल को खा रहे होंगे। हड्डियाँ मिट्टी में मिल रही होंगी। मुल्लाओं के फ़तवों से उसकी गर्दन दब रही होगी। आरों से उसका जिस्म चीरा जा रहा होगा मगर वो हँस रहा होगा। आँखें शरारत से नाच रही होंगी। नीले मुर्दा होंट तल्ख़ी से हिल रहे होंगे। मगर कोई उसे रुला नहीं सकता।
वो शख़्स जिसके फेफड़ों में नासूर, टाँगें अर्से से अकड़ी हुई। बाहें इंजेक्शनों से गुदी हुई, कूल्हे में अमरूद बराबर फोड़ा, आख़िरी दम और च्यूँटियाँ जिस्म में लगना शुरू हो गईं। क्या हँस कर कहता है ये च्यूँटी साहिबा भी किस क़दर बेसब्र हैं। यानी क़ब्ल-अज़-वक़्त अपना हिस्सा लेने आन पहुँचीं। ये मरने से दो दिन पहले कहा। दिल चाहिए, पत्थर का कलेजा हो मरते वक़्त जुम्ले कसने के लिए।
उनका एक जुम्ला हो तो लिखा जाए। एक लफ़्ज़ हो जो याद आए। पूरी की पूरी किताबें ऐसे ऐसे चुटकुलों से भरी पड़ी हैं, दिमाग़ था कि इंजन बिना आग-पानी के हर वक़्त चलता रहता था और ज़बान की क़ैंची इस क़दर नपे-तुले जुम्ले निकालती थी कि जम कर रह जाते थे।
नए लिखने वालों के आगे उनकी गाड़ी नहीं चली। दुनिया बदल गई है ख़यालात बदल गए हैं हम लोग बद-ज़ुबान हैं और मुँहफट। हमारा दिल दुखता है तो रो देते हैं, सरमाया-दारी, सोशलिज़्म और बेकारी ने हम लोगों को झुलसा दिया है। हम जो कुछ लिखते हैं दाँत पीस-पीस कर लिखते हैं। अपने पोशीदा दुखों, कुचले हुए जज़्बात को ज़हर बना कर उगलते हैं। वो भी दुखी थे। नादार, बीमार और मुफ़लिस थे। सरमाया-दारी से आजिज़, मगर फिर भी इतनी हिम्मत थी कि ज़िन्दगी का मुँह चिड़ा देते थे। दुख में ठट्ठा लगा लेते थे। वो अफ़्सानों ही में नहीं हँसते थे ज़िन्दगी के हर मुआमले में दुख को हँसकर नीचा कर देते थे।
बातों के इस क़दर शौक़ीन कि दुनिया का कोई इन्सान हो उससे दोस्ती, “खुरपा बहादुर” में जो “शाह लंकरान” के हालात हैं वो एक मीरासन से मालूम हुए। उससे ऐसी दोस्ती थी कि बस बैठे हैं और घंटों बकवास हो रही है। लोग मुतहय्यर हैं कि या अल्लाह ये बुढ़िया मीरासन से क्या बातें हो रही हैं। मगर जो कुछ उन्होंने लिखा है उसी मीरासन ने बताया है।
और तो और भंगन, बहिश्तन, राह चलतों को रोक कर बातें करते थे। यहाँ तक कि कुछ दिन हस्पताल में रहे, वहाँ रात को जब ख़ामोशी हो जाती आप चुपके से सारे मरीज़ों को समेट कर गप्पें उड़ाया करते। हज़ारों क़िस्से सुनते और सुनाते, वही क़िस्से सवानेह की रूहें महारानी का ख़्वाब, चमकी और यरेड़े बन गए। वो हर चीज़ ज़िन्दगी से लेते थे और ज़िन्दगी में कितने झूठे हैं। यही बात है कि उनकी कहानियों में बहुत सी बातें बईद-अज़-क़यास मालूम होती हैं। चूँकि उनका शाइराना तख़य्युल हर बात को यक़ीन करता था।
उनकी नाॅवेलें बाज़ जगह वाहियात हैं। फ़ुज़ूल सी ख़ुसूसन “कोलतार” तो बिल्कुल रद्दी है, मगर उसमें भी हक़ीक़त को अस्ली रंग में गड़बड़ कर के लिख दिया है। शरीर बीवी तो बिल्कुल फ़ुज़ूल है मगर अपने ज़माने में बड़ी चलती हुई चीज़ थी।
चमकी एक दहकता हुआ शोला है, यक़ीन नहीं आता कि इस क़दर सूखा मारा इन्सान जिसने अपनी बीवी के अलावा किसी की तरफ़ आँख उठा कर न देखा, तख़य्युल में किस क़दर अय्याश बन जाता है। ओफ़्फ़ो, वो चमकी की ख़ामोश निगाहों के पैग़ाम। वो हीरो का उनकी हरकतों से मस्हूर हो जाना और फिर ख़ुद मुसन्निफ़ की ज़िन्दगी। किस क़दर मुकम्मल झूठ। ये अज़ीम भाई नहीं उनका हमज़ाद होता था जो उनके जिस्म से दूर हो कर हुस्न-ओ-इश्क़ की अय्याशियाँ कराता है। अज़ीम भाई की मक़बूलियत यूँ भी मौजूदा अदब में यानी बिल्कुल नए अदब में न थी कि वो खुली बातें न लिखते थे। वो औरत का हुस्न देखते थे मगर उसका जिस्म बहुत कम देखते थे। जिस्म की बनावट की दास्तानें पुरानी मस्नवियों गुल-बकावली, ज़ह्र-ए-इश्क़ वग़ैरह में बहुत नुमायाँ थीं और फिर उन्हें पुरानी कह दिया गया। लेकिन अब ये फ़ैशन निकला है कि वही पुराना सीने का उतार चढ़ाव पिंडलियों की गाउदी, रानों का गुदाज़ नया अदब बन गया है। वो उसे उर्यानी समझते थे और उर्यानी से डरते थे गो जज़्बात की उर्यानी उनके यहाँ आम है। और बहुत ग़लीज़ बातें भी लिखने में नहीं झिजकते थे वो औरत के जज़्बात तो उर्यां देखते थे मगर ख़ुद उसे कपड़े पहने देखते थे। वो ज़ियादा बे-तकल्लुफ़ी से मुझसे बात नहीं करते थे और बहुत बच्चा समझते थे, कभी किसी जिन्सी मसअले पर तो वो किसी से बहस करते ही न थे। एक दोस्त से सिर्फ़ इतना कहा कि नए अदीब बड़े जोशीले हैं लेकिन भूके हैं और ऊपर से उन पर जिन्सी असर बहुत है। जो कुछ लिखते हैं अमाँ खाना मालूम होता है, ये भी कहा करते थे कि हिंदुस्तानी अदब में हर ज़माने में जिन्स बहुत नुमायाँ रहती है यहाँ के लोग जिन्स से बहुत मुतअस्सिर हैं। हमारी शाइरी, मुसव्विरी, क़दीम परस्तिश से भी जिन्सी भूक का पता चलता है। अगर ज़रा देर इश्क़-ओ-मुहब्बत को भूल जाएँ तो मक़्बूल-ए-आम नहीं रह सकते। यही वज्ह है कि बहुत जल्द अदब में उनका रंग ग़ायब हो कर वही अलिफ़ लैला का रंग ग़ालिब आ गया।
उन्हें हिजाब इम्तियाज़ अली से ख़ास लगाव था। (मैं मुहतरमा से मुआफ़ी माँग कर कहूँगी कि मरने वाले का राज़ है) कहा करते थे, ये औरत बहुत प्यारे झूठ बोलती है। उन्हें शिकायत थी कि मैं बहुत उल्टे सीधे झूठ बोलती हूँ। मेरे झूठ भूके की पुकार हैं! और उनके झूठ भूके की मुस्कुराहटें। अल्लाह जाने उनका क्या मतलब होता था।
हम उनके अफ़्सानों को अमूमन झूठ कहा करते थे। जहाँ उन्होंने कोई बात शुरू की और वालिद साहब मरहूम हँसे, फिर क़स्र-ए-सहरा लिखने लगे। वो उनकी गप्पों को क़स्र-ए-सहरा कहते थे। अज़ीम भाई कहते, सरकार दुनिया में झूठ बग़ैर कोई रंगीनी नहीं! बात को दिलचस्प बनाना चाहो तो झूठ उसमें मिला दो।
वो यह भी कहते कि जन्नत और दोज़ख़ का बयान भी तो क़स्र-ए-सहरा है।
इस पर मामूँ कहते, अरे ज़िन्दा लाशों को मना करो ये कुफ़्र है। इस पर वो मामूँ के तवह्हुम-परस्त ससुराल वालों का तमस्ख़ुर उड़ाते थे।
उन्हें पीरी-मुरीदी ढोंग मालूम होता था। लेकिन कहते थे दुनिया का हर ढोंग एक मज़ेदार झूठ है और झूठ ही मज़ेदार है।
कहते थे मेरी सेहत इजाज़त देती तो मैं अपने बाप की क़ब्र पुजवा देता। बस दो साल क़व्वाली करा देता और चादर चढ़ाता। मज़े से आमदनी होती।
उन्हें धोकेबाज़ और मक्कार आदमी से मिलकर बड़ी ख़ुशी होती थी। कहते थे, धोका और मक्कारी मज़ाक़ नहीं अक़्ल चाहिए इन चीज़ों के लिए।
उन्हें नाच-गाने से बड़ा शौक़ था मगर किस नाच से? ये जो फ़क़ीर बच्चे आते हैं उनको अमूमन पैसे दे कर ढोल पर नाचते हुए फ़क़ीरों को इस शौक़ से देखा करते थे कि उनका इन्हिमाक देखकर रश्क आता था। न जाने उन्हें उस नंगे-भूके नाच में क्या कुछ नज़र आता था।
मैंने उन्हें कभी नमाज़ पढ़ते न देखा । क़ुरआन शरीफ़ लेट कर पढ़ते थे और बे-अदबी से, इसके साथ-साथ सो जाते थे। लोगों ने मलामत की तो उस पर काग़ज़ चढ़ा कर कह दिया करते थे कुछ नहीं क़ानूनी किताब है। झूठ तो ख़ूब निभाते थे।
हदीस बहुत पढ़ते थे और लोगों से बहस करने के लिए अजीब-अजीब हदीसें ढूँढ कर हिफ़्ज़ कर लेते थे और सुना कर लड़ा करते थे। उनकी हदीसों से लोग बड़े आजिज़ थे। क़ुरआन की आयात भी याद थीं और बे-तकान हवाला देते थे। शक करो तो सिरहाने से क़ुरआन निकाल कर दिखा देते थे।
यज़ीद के बड़े मद्दाह थे और इमाम हुसैन अ. की शान में बकवास किया करते थे। लोगों से घंटों बहस होती थी। कहते थे मैंने ख़्वाब में देखा कि हज़रत इमाम हुसैन अ. खड़े हैं, उधर से यज़ीद लईन आया, आपके पैर पकड़ लिए, गिड़गिड़ाया, हाथ जोड़े तो आपका ख़ून जोश मारने लगा और उसे उठा कर सीने से लगा लिया। बस मैंने भी उस दिन से यज़ीद की इज़्ज़त शुरू कर दी। जन्नत में तो उनका मिलाप भी हो गया, फिर हम क्यों लड़ें।
सियासत से कम दिलचस्पी थी। कहते थे, बाबा हम लीडर बन नहीं सकते तो फिर क्या कहें, लोग कहेंगे तुम ही कुछ कर के दिखाओ और यहाँ कम्बख़्त खाँसी और दमा नहीं छोड़ता। बहुत साल हुए कुछ मज़ामीन 'रियासत' में सियासियात और इकनॉमिक्स पर लिखे थे वो न जाने क्या हुए। मज़हब का जुनून सा था।
मगर आख़िर में बहस कम कर दी थी और कहते थे, “भई तुम लोग तो हट्टे-कट्टे हो और मैं मरने वाला हूँ और जो कहीं दोज़ख़-जन्नत सब निकल आएँ तो क्या करूँगा। लिहाज़ा चुप ही रहो।” पर्दे के ख़िलाफ़ तो कभी से थे मगर आख़िर में कहते थे, “ये पुरानी बात हो गई अब पर्दा रोके नहीं रुक सकता। इस मुआमले में हम कर चुके। अब तो नई परेशानियाँ हैं।” लोग कहते थे दोज़ख़ में जाओगे, तो फ़रमाते, “यहाँ कौन सी अल्लाह मियाँ ने जन्नत दे दी जो वहाँ दोज़ख़ की धमकियाँ हैं। कुछ परवाह नहीं हम तो आदी हैं। अल्लाह मियाँ अगर हमें दोज़ख़ में जलाएँगे तो उनकी लकड़ी और कोयला बेकार जाएगा। क्योंकि हम तो हर अज़ाब के आदी हैं।” कभी कहते, “अगर दोज़ख़ में रहे तो हमारे जरासीम तो मर जाएँगे। जन्नत में तो हम सारे मौलवियों को दिक़ में लपेट लेंगे।”
यही वज्ह है कि सब उन्हें बाग़ी और दोज़ख़ी कहते हैं। वो कहीं पर भी जाएँ। मैं ये देखना चाहती हूँ क्या वहाँ भी उनकी वही क़ैंची जैसी ज़बान चल रही है? क्या वहाँ वो हूरों से इश्क़ लड़ा रहे हैं या दोज़ख़ के फ़रिश्तों को जला कर मुस्कुरा रहे हैं। मौलवियों से उलझ रहे हैं या दोज़ख़ के भड़कते शोलों में उनकी खाँसी गूँज रही है। फेफड़े फूल रहे हैं और फ़रिश्ते उनके इंजेक्शन घोंप रहे हैं। फ़र्क़ ही क्या एक दोज़ख़ से दूसरी दोज़ख़ में। “दोज़ख़ी” का क्या ठिकाना।
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