कुछ नाम ऐसे भी होते हैं जो दूसरे नामों में भी जज़्ब हो जाते हैं और इस तरह जज़्ब होते हैं कि दूसरे नाम जब भी लिए जाते हैं तो वो भी उनके साथ ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जाते हैं। ऐसा ही एक नाम जज़्बी का है जो फ़ैज़, जोश , और मजाज़ के नामों के हमराह अपने आप उभर आता है मगर जोश, फ़ैज़ और मजाज़ के साथ जज़्बी का नाम यूँही नहीं उभरता बल्कि इसलिए अपनी सदा बुलन्द करता है कि मैदान-ए-शे’र-ओ-सुख़न में जज़्बी ने भी वही जज़्ब-ओ-मस्ती दिखाई है और उसी जोश-ओ-ख़रोश का मुज़ाहिरा किया है जिसका नज़ारा जोश, फ़ैज़ और मजाज़ के शे’री कारनामों में नज़र आता है। ये और बात है कि जज़्बी उनसे मुख़्तलिफ़ भी हैं कि जोश, फ़ैज़ और मजाज़ की शोहरत के अस्बाब कुछ दूसरे भी हैं जबकि जज़्बी सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी शे’री काविशों के बलबूते पर मशहूर हुए। जज़्बी ने जोश की तरह सर पर यादों का सहरा बाँध कर अपनी कोई बारात नहीं निकाली। न ही वो फ़ैज़ की सूरत किन्हीं दीगर सरगर्मियों में सरगर्म हुए और ज़ंजीर घसीटते हुए पा-ब-जौलाँ कू-ए-यार से सू-ए-दार गए। मजाज़ की मानिन्द मज्नूँ बन कर उन्होंने किसी लाला-रुख़ के काशाने के चक्कर भी नहीं लगाए और न ही अपनी रूदाद-ए-सुख़न-ए-मुख़्तसर में बला-नोशी के क़िस्से जोड़े। वो तो बस मिस्ल-ए-मलंग एक गोशे में पड़े रहे और वहीं बैठे-बैठे गुदाज़-ए-शब में अपनी शाइ’री की शम्अ’ फ़रोज़ाँ करते रहे। ख़ल्वत में पड़े-पड़े शे’री कश्फ़ के ज़रीए’ हयात-ओ-कायनात से पर्दे उठाते रहे और ये इन्किशाफ़ात करते रहे।
दिल को होना था जुस्तजू में ख़राब
पास थी वर्ना मन्ज़िल-ए-मक़्सूद
तुझे आसमाँ नाज़ है इक शफ़क़ पर
ज़मीं पर तो हैं कितने ख़ूनीं नज़ारे
ये सोचता हूँ कि बदला भी है निज़ाम-ए-अलम
ये देखता हूँ कि मौज-ए-नशात भी है कहीं
ऐ मौज-ए-बला उनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं
अपने इन महसूसात-ओ-इन्किशाफ़ात की शम्अ’-ए-फ़रोज़ाँ से सद्र-ए-जम्होरीया-ए-हिंद इन्द्र कुमार गुजराल और अमरीका के साबिक़ वज़ीर-ए-ख़ारिजा मैडलिन एलब्राइट तक के ज़ेह्न-ओ-दिल को रौशन करने वाले जज़्बी की अपनी ज़ीस्त का चराग़ बचपन से ले कर पीरी तक हमेशा आँधियों की ज़द पे रहा। कभी बाप की बे-रुख़ी और बे-तवज्जोही के झोंके उठे, कभी बे-मेहरी-ए-हालात के झक्कड़ चले, कभी ना-क़द्रियों और बे-ए’तिनाइयों के गर्द-बाद गर्दिश में आए। कभी ना-इंसाफ़ियों और ज़ियादतियों के बगूले खड़े हुए। इन सब के ज़ोर और शोर से चराग़-ए-हयात-ए-जज़्बी टिमटिमाया तो बहुत मगर जज़्बी ने अपने वुजूद की लौ को मद्धम नहीं होने दिया। ऐसा भी नहीं कि इन हमलों को वो चुप-चाप सह गए। किसी क़िस्म का कोई इन्तिक़ाम नहीं लिया। उन्होंने एक-एक से इन्तिक़ाम लिया अलबत्ता उनके इन्तिक़ाम का तरीक़ा अलग था। बदला लेने का उन्होंने निराला अन्दाज़ निकाला।
बाप की बे-रुख़ी का बदला लेने के लिए उन्होंने अपने बेटे पर तवज्जोह मर्कूज़ कर दी और ऐसी तवज्जोह मर्कूज़ की कि बेटे ने ता’लीम से लेकर मुलाज़िमत तक के सारे मराहिल एक मर्कज़ पर रह कर तय कर लिए। मुलाज़िमत के वो तमाम मदारिज1 भी जो तदरीसी शो’बों में हासिल किए जाते हैं। जज़्बी ने अपनी तरह अपने बेटे को यहाँ-वहाँ और इधर-उधर भटकने नहीं दिया। गोया अपनी तवज्जोह से सुहेल को यमन के बजाए अलीगढ़ के उफ़ुक़ से तुलू’ कर दिया।
अपनी ना-क़द्रियों का इन्तिक़ाम यूँ लिया कि सब्र-ओ-तहम्मुल को हथियार बना लिया और उसे ऐसा सैक़ल किया कि ग़ालिब ऐवार्ड, इक़बाल सम्मान, कुल हिंद बहादुर शाह ज़फ़र ऐवार्ड वग़ैरा जैसे इन’आमात ख़ुद-ब-ख़ुद उन की झोली में आ गिरे। अपने इसी सब्र-ओ-तहम्मुल से इन्साफ़ पसन्दों को अपने साथ किया और उनके ज़रीए’ अपने दुश्मनों को बिना कुछ बोले और कुछ किए ज़लील-ओ-ख़्वार भी कर दिया और उनके इसी तहम्मुल की ब-दौलत उनकी तख़्लीक़ात मज्मू’ओं से निकल कर प्राइमरी सत्ह से लेकर एम.ए. तक के निसाबात में दाख़िल हो गईं और उनके बा’ज़ अशआ’र एक-एक साहब-ए-ज़ौक़ की रूह का हिस्सा बन गए।
मुझे अफ़सोस है कि मैं बहुत क़रीब रह कर भी उस सूफ़ी-मिनश शाइ’र-ए-मलंग और मर्द-ए-आहन से तक़रीबन दो ढाई साल की मुद्दत में एक-बार भी न मिल सका। और मिला भी तो अलीगढ़ से बाहर सीवान के एक मुशाइ’रे में।
जज़्बी से न मिलने के दो अस्बाब थे। एक तो उनके अदबी क़द का रौ’ब जो ‘उमूमन क़द-शनास तालिब-ए-इ’ल्मों के दिल-ओ-दिमाग़ पर तारी रहता है और दूसरे उनकी गोशा-नशीनी और इस गोशा-नशीनी के बा’इस यूनीवर्सिटी कैम्पस की फ़ज़ाओं में फैली हुई उनकी बद-दिमाग़ी की अफ़्वाह। मैं जज़्बी से इसलिए भी मिलना चाहता था कि उन्हीं के हम-अ’स्र शाइ’र फ़िराक़ गोरखपुरी का ये शे’र मेरी ख़्वाहिश बन कर मेरे ज़ेहन में गूँजा करता था कि :
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-अ’स्रो
जब ये कहोगे उनसे तुम कि हमने फ़िराक़ को देखा था
मगर मैं जब भी उनके घर जाने का इरादा करता तो कभी उनके अदबी क़द का जिन्न आगे बढ़कर मेरा रास्ता रोक देता था तो कभी उनकी बद-दिमाग़ी की अफ़्वाह का देव मेरी राह में आ खड़ा होता हालाँकि जब मैं उनसे मिला तो उनके इर्द-गिर्द न कोई जिन्न था और न कोई देव। वहाँ तो एक ऐसा मुख़्लिस, मिलन-सार और बाग़-ओ-बहार इन्सान था जो तालिब-ए-इ’ल्मों के साथ भी बराबरी का सुलूक और दोस्ताना बर्ताव कर रहा था और ख़ुर्दों की सोहबत में भी पूरी तरह खुल कर हँसी मज़ाक़ के गुल खिला रहा था और लुत्फ़-ओ-इन्बिसात के गौहर लुटा रहा था।
अहमद जमाल पाशा ने जब मेरा त’आरुफ़ कराया तो जज़्बी साहब इस दर्जा ख़ुश हुए जैसा कि कोई मुशफ़िक़ उस्ताद या शफ़ीक़ बाप होता है। मुझसे उनके ख़ुश होने की मेरे ख़याल में तीन वज्हें रही होंगी। पहली वज्ह ये कि मैं उस शो’बे का तालिब-ए-’इल्म था जिसे जज़्बी ने अपना घर समझा। दूसरी ये कि मैं उस ज़बान में रिसर्च कर रहा था जो उन्हें अपनी जान की तरह अ’ज़ीज़ थी और तीसरी शायद ये कि मेरे अन्दर भी वो सलाहियत मौजूद थी जिसकी ब-दौलत कोई तख़्लीक़ी फ़नकार किसी को अपने क़बीले का फ़र्द समझने लगता है। इनमें क़वी-तर सबब ये था कि मैं उनके शो’बे का तालिब-ए-इ’ल्म था जो इस हक़ीक़त का ग़म्माज़ भी था कि उनको अपने शो’बे से किस दर्जा लगाव था मगर अफ़सोस कि इस शो’बे ने उनके साथ दुश्मनों जैसा सुलूक किया और इस हद तक गज़ंद पहुँचाई कि उन्होंने बरसों उसकी तरफ़ रुख़ नहीं किया। ये शो’बे की कोई नई बात नहीं थी, बल्कि ये रिवायत पहले से चली आ रही थी और बा’द तक बाक़ी रही। इस रिवायत की आग में रशीद अहमद सिद्दीक़ी भी जले, आल-ए-अहमद सुरूर भी झुलसे और कई दूसरे भी इसकी लपटों में लपेट लिए गए। इस शो’बे की एक मुस्बत और मज़बूत रिवायत भी रही। वो ये कि बहुत दिनों तक इसमें तख़्लीक़ियत का बोल-बाला रहा। रशीद अहमद सिद्दीक़ी, मज्नूँ गोरखपुरी, आल-ए-अहमद सुरूर, मु’ईन अहसन जज़्बी, ख़ुर्शीदुल-इस्लाम, ख़लीलुर्रहमान आ’ज़मी, राही मासूम रज़ा, शहरयार, क़ाज़ी अब्दुससत्तार। एक से एक मशहूर-ए-ज़माना तख़्लीक़-कार इससे वाबस्ता रहे और अपने फ़न-पारों से इसके नाम में चार चाँद लगाते रहे मगर दिल को गुदाज़ करने, ज़ेह्न को बािलदा बनाने और रूह को गरमाने वाली इस रिवायत को किसी की नज़र लग गई, ग़ैर-तख़्लीक़ियत के सेहर ने इसके इर्द-गिर्द ऐसा हिसार खड़ा किया कि तख़्लीक़ियत का दाख़िला बन्द हो गया। तख़्लीक़ियत के इक्के-दुक्के नुमाइंदे किसी तरह दाख़िल होने में कामयाब हुए भी तो वो हमेशा ग़ैर-तख़्लीक़ी बलाओं की ज़द में रहे।
सीवान की इस मुलाक़ात में गोशा-नशीनी इख़्तियार करने और मुसलसल चुप्पी साध लेने वाले जज़्बी ने ऐसी जल्वत-पसन्दी और महफ़िल-बाज़ी का सुबूत दिया कि हम दंग रह गए। दौरान-ए-दौर-ए-मयकशी उन्होंने ऐसे-ऐसे क़िस्से सुनाए और नशे की तरंगों के साथ लताइफ़ के ऐसे-ऐसे शगूफ़े छोड़े कि हम लोट-पोट हो गए। ‘आलम-ए-सुरूर में एक ऐसा मक़ाम भी आया जहाँ जज़्बी ने तरन्नुम से ग़ज़लें भी सुनाईं। तरन्नुम से ग़ज़लें सुनते वक़्त बार-बार मुझे एक वाक़िआ’ याद आता रहा : किसी महफ़िल में यूनीवर्सिटी के एक उस्ताद ने जज़्बी से तरन्नुम की फ़रमाइश कर दी। जिसे सुनकर जज़्बी चराग़-पा हो गए और ग़ुस्से में ऐसा दीपक राग अलापना शुरू’ किया कि लेक्चरर साहब को अपना दामन बचाना मुश्किल हो गया। वो तो भला हो उस महफ़िल में मौजूद कुछ नब्ज़-शनास सीनियर उस्तादों का कि जिन्होंने उँगलियों में दबे सिगार को माचिस की तीली दिखा-दिखा कर जज़्बी की हालत-ए-जज़्ब को ठंडा किया वर्ना तो उस जूनियर उस्ताद का उस दिन ख़ुदा ही हाफ़िज़ था।
इस वाक़िए’ के साथ-साथ मैं जज़्बी की शख़्सियत को समझने की कोशिश करता रहा कि एक तरफ़ तो जज़्बी किसी उस्ताद की दरख़्वास्त पर बरहमी का इज़्हार करते हैं और दूसरी जानिब बग़ैर किसी फ़रमाइश के तलबा को तरन्नुम से ग़ज़ल सुनाते हैं। जज़्बी की शख़्सियत का ये तज़ाद पूरी तरह तो समझ में नहीं आया, हाँ इतना ज़रूर महसूस हुआ कि जज़्बी तरीक़त-ए-शे’र-ओ-सुख़न के मज्ज़ूब थे। मज्ज़ूब जो सिर्फ़ मन की सुनता है। मन कहता है तो अल्लाह-हू का ना’रा-ए-मस्ताना भी लगाता है और मन नहीं कहता है तो बस हू का ‘आलम लेता है।
इस मुलाक़ात के दौरान जज़्बी के जज़्ब-ओ-मस्ती के कई और रंग भी देखने को मिले, ग़ज़ल सुनाने के बा’द शराब का एक लंबा घूँट भरकर बोले ग़ज़नफ़र कबाब के बग़ैर शराब पीना क्या ऐसा नहीं लगता जैसे ग़रीब मज़दूर रूखी रोटी खा रहे हों। मगर हम लोग तो ग़रीब हैं नहीं, तो फिर ये रूखी रोटी क्यों? जाओ घरवालों को बोलो कि कबाब दे जाएँ।
मैं महफ़िल से उठकर जमाल पाशा के क़िला’-नुमा महल के दरवाज़े के पास पहुँचा और आहिस्ता-आहिस्ता दस्तक देना शुरू’ किया। पाँच-सात मिनट तक मुसलसल दस्तक देने के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो जज़्बी साहब उठकर ख़ुद भी दरवाज़े के पास आ गए और बोले,
“इस तरह नौक करने से बड़े दरवाज़े नहीं खुलते, उन्हें पीटना पड़ता है। यूँ”
और वो धड़ाधड़ दरवाज़े पर मुक्के मारने लगे।
धड़-धड़ की आवाज़ पर वाक़’ई दरवाज़ा खुल गया। एक घबराया और हड़बड़ाया हुआ ख़ादिम क़िस्म का आदमी बाहर निकला और हकलाता हुआ बोला,
“जी, फ़रमाइए।”
“कबाब लाओ कबाब।”, मेरे मुँह खोलने से पहले ही जज़्बी साहब बोल पड़े।
“कबाब!”, वो इस तरह चौंका जैसे किसी पक्के मुसलमान से शराब पिलाने की फ़रमाइश कर दी गई हो।
“हाँ भई कबाब; कहो तो हिज्जे कर के बताऊँ”, जज़्बी साहब का लहजा सख़्त हो गया।
मगर कबाब तो नहीं हैं।”, क़द्र सँभलते हुए उस ख़ादिम-नुमा आदमी ने जवाब दिया।
“क्या कहा? कबाब नहीं हैं? इतनी बड़ी हवेली, वो भी एक मुसलमान रईस की और कबाब नहीं? नहीं-नहीं, कबाब ज़रूर होगा। जाकर किचन में देखो!”, जज़्बी साहब किसी तरह ये मानने को तय्यार न थे कि इस शानदार हवेली में कबाब नहीं होंगे।
वो आदमी चुप रहा।
“क्या इस हवेली में किचन नहीं है?”
“किचन क्यों नहीं होगा साहब!”
“तो फिर जाते क्यों नहीं?”
“बात ये है साहब...”
“हम कुछ सुनने वाले नहीं, तुम जाओ और फ़ौरन कबाब लाओ। हमारे मुँह का मज़ा बिगड़ा जा रहा है। जाओ मुँह क्या ताक रहे हो?”, जज़्बी साहब ने उसे बोलने नहीं दिया। उस ख़ादिम या ख़ादिम-नुमा आदमी की समझ में नहीं आ रहा था कि वो अपने इ’ज़्ज़त-दार मालिक के इस मो’अज़्ज़िज़ मेहमान से किस तरह निमटे कि क़ुदरत को उसकी हालत पर तरस आ गया और उसने उसकी मदद के लिए ख़ुद मालिक को भेज दिया। ‘ऐन उसी वक़्त अहमद जमाल पाशा अपनी मोटर से आ धमके। शायद हमें वो लेने आए थे। मोटर से उतरकर सीधे दरवाज़े के पास आ गए। ग़ालिबन उन्होंने हमें दूर ही से देख लिया था। पास आकर घबराहट के लहजे में बोले,
“सर आप यहाँ?”
“अरे भाई! तुम्हारे इस ख़ादिम से कब से कबाब लाने को कह रहे हैं मगर ये है कि...”
“सर! आज खाने का इन्तिज़ाम कॉलेज में किया गया है ना, इसलिए यहाँ के तमाम बावर्ची इधर लगे हुए हैं।”, जमाल पाशा ने सूरत-ए-हाल को सँभालने की कोशिश की।
“बावर्ची ही तो गए हैं, किचन उठकर तो नहीं चला गया!”, जज़्बी साहब ने सूरत-ए-हाल को फिर से बे-क़ाबू कर दिया।
“दर-अस्ल कई दिनों से कॉलेज फंक्शन में मसरूफ़ होने...”
“रहने दो, रहने दो, मैं सब समझ गया। पाशा तुम कैसे मुसलमान हो कि घर में कबाब तक नहीं रखते। लगता है यहाँ आकर तुम भी बिहारी हो गए हो।”
“बिहारी ही नहीं सर! मैं तो शुद्ध शाकाहारी भी हो गया हूँ, मांसाहारी... बीमारियों ने जिस्म-ओ-जान को दबोच जो रखा है। जल्द तशरीफ़ ले चलिए, शामी, सीख़ और बिहारी तीनों वहाँ आपका बे-सब्री से इन्तिज़ार कर रहे हैं।”
“पाशा! मैं मान गया कि तुम वाक़’ई मज़ाह-निगार हो। अपने घर की उ’र्यानियत पर तुमने कितना ख़ूबसूरत और दबीज़ पर्दा डाल दिया, चलो मैंने तुम्हें मु’आफ़ किया।”
हम लोग जमाल पाशा के हमराह वहाँ पहुँच गए जहाँ हमारे त’आम वग़ैरा का इन्तिज़ाम-ओ-एहतिमाम था। वहाँ पहुँचते ही जमाल पाशा ने पुकारा।,
“निशात देखो तो जज़्बी साहब आए हैं।”, जमाल पाशा ने अपने कॉलेज की सद्र-ए-शो’बा-ए-उर्दू को मुख़ातिब किया।
“कौन जज़्बी?”, एक निस्वानी आवाज़ गूँज पड़ी। थी तो वो सिन्फ़-ए-नाज़ुक के लब-ए-लालीं से निकली हुई आवाज़ मगर काम उसने पत्थर का किया। ऐसी ज़र्ब लगाई कि जज़्बी का चेहरा तो बिगड़ा ही जमाल पाशा के रुख़-ए-रौशन का रंग भी उड़ गया मगर यहाँ भी जमाल पाशा की ज़राफ़त ढाल बन कर खड़ी हो गई। लबों पर मुस्कुराहट लाते हुए वो बोले,
“सर! बात दर-अस्ल ये है कि इस शह्र के शाइ’रों को भी आपके तख़ल्लुस का रोग लग गया है। यहाँ भी अपने हिलाल, ख़याल, कमाल, मलाल वग़ैरा को छोड़कर ज़ियादा-तर शाइ’र जज़्बी हो गए हैं। इसीलिए निशात को ये सवाल करना पड़ा वर्ना तो ये हर तरक़्क़ी-पसन्द शाइ’र को पढ़ाते वक़्त ये शे’र पढ़ना कभी नहीं भूलतीं,
न आए मौत ख़ुदाया तबाह-हाली में
ये नाम होगा ग़म-ए-रोज़गार सह न सका
और ये शे’र तो इन दिनों ये कुछ ज़ियादा ही जोश-ओ-ख़रोश के साथ गुनगुनाने लगी हैं,
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
पाशा की ज़राफ़त-पाशी ने यकायक जज़्बी के चेहरा-ए-ज़हराब को आब-ए-ज़लाल में बदल दिया। गया हुआ रंग मिनटों में वापस आ गया। ये कहना ज़रा मुश्किल है कि ये वाक़’ई जमाल पाशा के रंग-ए-मज़ाह का कमाल था या जज़्बी की उस नफ़्सियात का जिसकी दुखती रग पर उँगली रखते ही साज़ का राग बदल जाता है और यक-लख़्त सुर-ताल तब्दील हो जाते हैं अलबत्ता इतना तो तय है कि जज़्बी ज़ूद-हिस इन्सान थे जो करेला खाकर फ़ौरन कड़वा और शकर फाँक कर तुरंत मीठा हो जाता है और ये भी कि जज़्बी सिर्फ़ अदब तख़्लीक़ ही नहीं करते थे बल्कि अदब से महज़ूज़ भी होते थे उसे appreciate भी करते थे। ये उनके इसी जौहर-ए-तहसीन-शनासी (appreciation) का कमाल है कि उनका जज़्ब-ए-ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब आन की आन में बैठ जाता था और उनका जलाल क़ालिब-ए-जमाल में ढल जाता था।
त’आम पर एहतिमाम से फ़ारिग़ हो कर हम मुशाइ’रा-गाह में पहुँचे तो जज़्बी के एहतिराम में सारे शाइ’र उठ खड़े हुए और नाज़िम-ए-मुशाइ’रा ने वो क़सीदा पढ़ा कि ख़ुद जज़्बी भी शर्मा गए मगर साम’ईन से उन्हें वैसी दाद नहीं मिली जैसी कि ख़ुमार बाराबंकवी के हिस्से में आई।
इख़्तिताम पर बज़्म-ए-मुशाइ’रा से निकल कर जब हम क़याम-गाह पर पहुँचे तो जज़्बी साहब जिस बम को बहुत देर से अपने अन्दर रोके हुए थे वो यकायक फट पड़ा।
“ख़ुमार से अगर उसका तरन्नुम छीन लिया जाए तो उसकी शाइ’री के ग़ुब्बारे की हवा निकल जाए और मुझे मुख़ातिब करते हुए बोले,
“ग़ज़नफ़र! तुमने जोश की यादों की बारात में साग़र के मुत’अल्लिक़ मजाज़ वाली बात तो पढ़ी होगी?”
मैं कुछ झेंपा तो बोले,
“कोई बात नहीं, अब सुन लो, बड़े मज़े की बात है।”
एक-बार नशे के ‘आलम में मजाज़ साग़र से लिपटते हुए बोले,
“मगर एक बात है! मगर एक बात है! मगर एक बात है!”
इस पर साग़र ने पूछा, “क्या बात है?”
मजाज़ ने तरंग में जवाब दिया,
“मगर ये बात है प्यारे कि तू शाइ’र बिल्कुल नहीं है।”
इस पर हँसते हुए साग़र ने रोना शुरू’ कर दिया।
मजाज़ फिर उनके गले लग गए और बोले,
“प्यारे मैं तुझको अपनी जान से ज़ियादा अ’ज़ीज़ रखता हूँ। तेरा कोई जवाब नहीं है।”
ये जवाब सुनकर साग़र ने रोना बन्द कर दिया। थोड़ी देर बाद मजाज़ ने फिर कहा,
“तुझसे इस क़दर मुहब्बत के बा’द भी ख़ुदा की क़सम मैं तुझको शाइ’र तस्लीम कर नहीं सकता। मगर एक बात है, मगर एक बात है।”
और साग़र फिर रोने लगे।
“मेरा जी चाहता है कि ख़ुमार से लिपट कर मजाज़ का ये जुमला दोहराने लगूँ, मगर एक बात है, मगर एक बात, मगर...”
हमारी हँसी रुकी तो बोले,
“ये ख़ुमार गवैया तो है ही, बहुत बड़ा ड्रामे-बाज़ भी है, रहता है बाराबंकी में और पता देता है बंबई का...
मेरा तरन्नुम उससे क्या कम है? मगर मैं तरन्नुम की बैसाखी लगाकर पाँव वाली अपनी शाइ’री को लंगड़ी बनाना नहीं चाहता। हाँ ये और बात है कि वुफ़ूर-ए-सुरूर में कभी मैं अपनी शाइ’री को गुनगुनाने लग जाऊँ।”
“मैं ग़लत नहीं कह रहा हूँ आप लोग कभी ख़ुमार की शाइ’री पढ़िए या तरन्नुम को माइनस करके सुनिए। मेरे मुशाहिदे पर आपको भी ईमान लाना पड़ेगा। मैं ये बात ख़ुमार के मुँह पर भी कह सकता हूँ और शायद इससे भी ज़ियादा सख़्त और तल्ख़ लहजे में कह सकता हूँ। मैं इस मु’आमले में निहायत बे-बाक बल्कि सफ़्फ़ाक क़िस्म का आदमी हूँ, ग़ज़नफ़र! तुम कभी अपने उस्तादों से मा’लूम करना वो सुनाएँगे तुम्हें मेरी बेबाकी के क़िस्से। अलबत्ता एक क़िस्सा जो वो तुम्हें शायद नहीं सुना सकें , सुनाता हूँ, वैसे तो ये क़िस्सा ज़रा अटपटा और शायद... मगर आप लोग चूँकि बालिग़ हो चुके हैं और शे’र-ओ-शाइ’री में पेश होने वाले हर तरह के इ’श्क़-ओ-आशिक़ी के इसरार-ओ-रुमूज़ और मु’आमलात-ए-दिल के नशेब-ओ-फ़राज़ और हर नौ’इयत की हवस-परस्ती से वाक़िफ़ हो चुके हैं, लिहाज़ा अब आपके सामने सुनाने में कोई मुज़ाइक़ा नहीं, इसलिए सुनाता हूँ कि एक-बार एक महफ़िल-ए-याराँ में जोश साहब बड़े ही जोश में, इसकी उसकी, फ़ुलाँ की चलाँ की मारा-मारी की चटख़ारे ले-ले कर बात कर रहे थे और उनकी इस यावा गोई पर फ़लक-शिगाफ़ ठहाके लग रहे थे। शराब का नशा उन्हें और भी बे-लगाम बनाता जा रहा था। अपना यारा खोते हुए उन्होंने अपनी इस मारा-मारी में जब मुझे भी घसीट लिया तो मुझसे चुप रहा नहीं गया और मैं भी तुर्की-ब-तुर्की बोल पड़ा, “इस काम के लिए तो आप भी बुरे नहीं हैं।”
मेरे इस जुमले पर इतने और ऐसे क़हक़हे लगे कि देर तक कमरा गूँजता रहा मगर जोश साहब ऐसे ठंडे पड़े जैसे उन पर यकायक फ़ालिज गिर पड़ा हो। कुछ देर तक तो वो बे-हिस-ओ-हरकत पड़े रहे फिर अचानक हिस्ट्रिया के मरीज़ बन बैठे। मेरे जुमले की तपिश से जोश साहब इतना खौले इतना खौले कि उनके होश-ओ-हवास का ढक्कन उलट गया... तो मियाँ ग़ज़नफ़र! मुझसे किसी की ना-ज़ेबा और ख़िलाफ़-ए-मिज़ाज बात बर्दाश्त नहीं होती ख़्वाह वो अपने दौर का रुस्तम ही क्यों न हो। ऐसे मौक़े’ पर मैं अपना आपा भी खो देता हूँ। यूँ समझिए कि मैं मु’ईन अहसन जज़्बी न रह कर कोई मज्ज़ूब हो जाता हूँ।”
थोड़ी देर बाद अहमद जमाल पाशा जज़्बी साहब को लेकर स्टेशन चले गए कि उनकी ट्रेन का वक़्त हो चला था और मैं अपने दोस्त अहमद तनवीर के हमराह उसके घर चला गया जो कॉलेज के पास ही वाक़े’ था।
दूसरे दिन जब मैं अहमद जमाल पाशा से रुख़्सत की इजाज़त लेने गया तो उन्होंने बताया कि जज़्बी साहब मेरे अख़्लाक़ और फ़रमाँ-बरदारी की बड़ी ता’रीफ़ कर रहे थे और मेरे एक शे’र की भी। जमाल पाशा ने ये भी बताया कि जज़्बी साहब Talent की बड़ी क़द्र करते हैं और अपने लायक़ शागिर्दों से मोहब्बत भी बहुत फ़रमाते हैं और उनकी ये मुहब्बत ही है कि गोशा-नशीनी इख़्तियार कर लेने के बावुजूद मेरी दा’वत पर यहाँ तशरीफ़ लाए और यहाँ तक आने में ख़ासी ज़हमत भी उठाई।
“पाशा साहब आप तो उन्हें बहुत क़रीब से जानते हैं और यहाँ की इस मुख़्तसर मुलाक़ात में मुझे भी महसूस हुआ कि वो मजलिसी आदमी हैं और काफ़ी ज़िन्दा-दिल भी।
फिर उनकी इस गोशा-नशीनी का क्या राज़ है? वो घर से क्यों नहीं निकलते? शो’बे में क्यों नहीं आते? यूनीवर्सिटी की महफ़िलों में शिरकत क्यों नहीं करते? दुनिया से बे-ज़ार क्यों हो गए हैं?”
मेरी बात पर जमाल पाशा ख़ासे उदास हो गए और मुझे मुख़ातिब करते हुए निहायत संजीदा लहजे में बोले,
“ग़ज़नफ़र तुम जज़्बी साहब के कुछ शे’र सुन लो, शायद तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाए।”
इस हिर्स-ओ-हवस की दुनिया में हम क्या चाहें, हम क्या माँगें
जो चाहा हमको मिल न सका, जो माँगा वो भी पा न सके
महका न कोई फूल न चटकी कोई कली
दिल ख़ून हो के सर्फ़-ए-गुलिस्ताँ हुआ तो क्या
ज़िन्दगी इक शोरिश-ए-आलाम है मेरे लिए
जो नफ़स है गर्दिश-ए-अय्याम है मेरे लिए
और आख़िर में ये शे’र भी,
दुनिया ने हमें छोड़ा जज़्बी, हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को
दुनिया को समझ कर बैठे हैं, अब दुनिया-दुनिया कौन करे
वाक़’ई इन शे’रों से मेरे सवालों के जवाब मिल गए और ग़ौर करने पर ये राज़ भी खुल गया कि गोशा-नशीनी इख़्तियार करने के बावुजूद अलीगढ़ से मीलों दूर अहमद जमाल पाशा की महफ़िल में जज़्बी क्यों गए? और अपने क़रीब की महफ़िलों में क्यों नहीं आते।
जज़्बी की रूदाद-ए-सफ़र और अन्दाज़-ए-हयात पर ग़ौर करते वक़्त ये भी महसूस हुआ कि जज़्बी सादा और सीधे ज़रूर थे मगर उनमें टेढ़ापन भी बहुत था। उनकी शख़्सियत के इसी टेढ़ेपन ने उन्हें ज़माना तो ज़माना अपने बाप के आगे भी झुकने नहीं दिया। इसी ने उन्हें भीड़ से निकाल कर अलग किया, मुनफ़रिद बनाया, मज़बूत किया, मसरूर किया। लगता है जज़्बी के रफ़ीक़-ए-कार मशहूर शाइ’र ख़लीलुर्रहमान आ’ज़मी ने अपना ये शे’र शायद जज़्बी के लिए भी कहा था,
लोग हम जैसे थे और हमसे ख़ुदा बन के मिले
हम वो काफ़िर हैं कि जिनसे कोई सज्दा न हुआ
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