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हाली

MORE BYमौलवी अब्दुल हक़

    ग़ालिबन 1892 ई. या 93 ई. का ज़िक्र है जब मैं मदरसतुल-उलूम मुसलमानान-ए-अलीगढ़ में तालिब इल्म था। मौलाना हाली उस ज़माने में यूनियन की पास की बनगलिया में मुक़ीम थे। मैं उस साल तातीलों के ज़माने में वतन नहीं गया था तो बोर्डिंग हाउस ही में रहा। अक्सर मग़रिब के बाद कुछ देर के लिए मौलाना की ख़िदमत में हाज़िर होता था। मौलवी साहब उस ज़माने में “हयात-ए-जावेद” की तालीफ़ में मसरूफ़ थे और साथ ही साथ “यादगार-ए-ग़ालिब” को भी तर्तीब दे रहे थे। उन्हीं दिनों में मेरे एक अज़ीज़ मेरे हाँ मेहमान थे, मैं जो एक दिन मौलाना के हाँ जाने लगा तो वो भी मेरे साथ हो लिये। कुछ देर मौलाना से बातचीत होती रही। लौटते वक़्त रस्ते में अज़ीज़ मेहमान फ़रमाने लगे कि मिलने से और बातों से तो ये नहीं मालूम होता कि ये वही मौलवी हाली हैं जिन्होंने “मुसद्दस” लिखा है। ये मौलाना की फ़ित्री सादगी थी जो इस ख़्याल का बाइस हुई।

    एक दूसरा वाक़िया जो मेरी आँखों के सामने पेश आया और जिसका ज़िक्र मैंने किसी दूसरे मौक़ा पर किया है। ये 1905ई. का ज़िक्र है, जब गुफ़रान मआब आला हज़रत मरहूम की जुबली बलदा-ए-हैदराबाद और तमाम रियासत में बड़े जोश और शौक़ से मनाई जा रही थी। मौलाना हाली भी उस हवेली में सरकार की तरफ़ से मदऊ किए गए थे और निज़ाम क्लब के एक हिस्से में ठहराए गए। ज़माना-ए-क़याम में अक्सर लोग सुबह से शाम तक उनसे मिलने के लिए आते रहते थे। एक रोज़ का ज़िक्र है कि एक साहब जो अलीगढ़ कॉलेज के ग्रेजुएट और हैदराबाद में एक मुअज़्ज़िज़ ओहदे पर फ़ाइज़ थे, मौलाना से मिलने आए, टम टम पर सवार थे। ज़ीने के क़रीब उतरना चाहते थे। साईस की शामत आई तो उसने गाड़ी दो क़दम आगे जा कर खड़ी की। ये हज़रत इस ज़रा सी चूक पर आपे से बाहर हो गए और साड़ साड़ कई हंटर ग़रीब के रसीद कर दिए। मौलाना ये नज़ारा ऊपर बरामदे में खड़े देख रहे थे उसके बाद वो खट खट कर के सीढ़ियों पर से चढ़ कर ऊपर आए। मौलाना से मिले। मिज़ाजपुर्सी की और कुछ देर बातें करके रुख़सत हो गए। मैं देख रहा था। मौलाना का चेहरा बिल्कुल मुतग़य्यर था, वो बरामदे में टहलते जाते थे और कहते थे “हाय ज़ालिम ने क्या किया।” उस रोज़ खाना भी अच्छी तरह खा सके, खाने के बाद क़ैलूले की आदत थी। वो भी नसीब हुआ। फ़रमाते थे ये मालूम होता है कि गोया वो हंटर किसी ने मेरी पीठ पर मारे हैं। इस कैफ़ियत से जो कर्ब और दर्द मौलाना को था शायद उस बदनसीब साईस को भी हुआ होगा।

    मौलाना की सीरत में ये दो मुमताज़ ख़ुसूसियतें थीं। एक सादगी और दूसरी दर्द दिली और यही शान उनके कलाम में है। उनकी सीरत और उनका कलाम एक है या यूँ समझिए कि एक दूसरे का अक्स हैं।

    मुझे अपने ज़माने के नामवर अस्हाब और अपनी क़ौम के अक्सर बड़े शख्सों से मिलने का इत्तफ़ाक़ हुआ है लेकिन मौलाना हाली जैसा पाक सीरत और ख़साइल का बुज़ुर्ग मुझे अभी तक कोई नहीं मिला। नवाब इमाद-उल-मलिक फ़रमाया करते थे कि “सर सय्यद की जमात में बहैसियत इंसान के मौलाना हाली का पाया बहुत बुलंद था, इस बात में सर सय्यद भी उन्हें नहीं पहुंचते थे।” जिन लोगों ने उन्हें देखा है या जो उनसे मिले हैं वो ज़रूर इस क़ौल की तसदीक़ करेंगे।

    ख़ाकसारी और फ़रौतनी ख़ल्क़ी थी, इस क़दर बड़े होने पर भी छोटे बड़े सबसे झुक कर और ख़ुलूस से मिलते थे। जो कोई उनसे मिलने आता ख़ुश हो कर जाता और फिर उम्रभर उनके हुस्न-ए-अख़्लाक़ का मद्दाह रहता था। उनका रुतबा बड़ा था मगर उन्होंने कभी अपने आपको बड़ा समझा। बड़ों का अदब और छोटों पर शफ़क़त तो वो करते ही थे लेकिन बा’ज़ औक़ात वो अपने छोटों का भी अदब करते थे। तालिब इल्मी के ज़माने में एक बार जब वो अलीगढ़ में मुक़ीम थे, मैं और मौलवी हमीदुद्दीन मरहूम उनसे मिलने गए तो वो सरोक़द ताज़ीम के लिए खड़े हो गए। हम अपने दिल में बहुत शर्मिंदा हुए। मौलवी हमीदुद्दीन ने कहा भी कि “आप हमें ताज़ीम देकर मह्जूब करते हैं।” फ़रमाने लगे कि “आप लोगों की ताज़ीम करूँ तो किसकी करूँ, आइन्दा आप ही तो क़ौम के नाख़ुदा होने वाले हैं।”

    इससे बढ़कर ख़ाकसारी का सबूत क्या होगा कि उन्होंने अपनी किताबों पर जो असली मअनों में तस्नीफ़ होती थीं हमेशा “मुरत्तबा” लिखा, कभी “मुअल्लिफ़ा” या “मुसन्निफ़ा” का लफ़्ज़ नहीं लिखा।

    ऑल इंडिया मुस्लिम एजूकेशनल कान्फ़्रेंस के मशहूर सफ़ीर मौलवी अनवार अहमद मरहूम कहते थे कि एक बार वो पानीपत गए। जाड़ों का ज़माना था। अँधेरा हो चुका था। स्टेशन से सीधे मौलाना के मकान पर पहुँचे। दालान के पर्दे पड़े हुए थे। उन्होंने पर्दा उठाया और झांक कर देखा। मौलवी साहब फ़र्श पर बैठे थे और सामने आग की अंगीठी रखी थी। उन्हें देखकर बहुत ख़ुश हुए और उठकर मिले और अपने पास बिठा लिया मिज़ाजपुर्सी के बाद कुछ देर इधर उधर की बातें होती रहीं, उसके बाद खाना मंगवाया, अनवार अहमद मरहूम खाने के बहुत शौक़ीन थे। पानीपत की मलाई बहुत मशहूर थी। उनके लिए मलाई मंगवाई। खाना खाने के बाद कुछ वक़्त बातचीत में गुज़रा फिर उनके लिए पलंग बिछवाकर बिस्तर करा दिया और ख़ुद आराम करने के लिए अंदर चले गए। ये भी थके हुए थे, पड़ कर सो रहे। मौलवी अनवार अहमद कहते थे कि रात के बारह एक बजे उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि कोई शख़्स उनकी रज़ाई को आहिस्ता-आहिस्ता छू रहा है। उन्होंने चौंक कर पूछा कौन? मौलवी साहब ने कहा, मैं हूँ। आज सर्दी ज़्यादा है मुझे ख़्याल हुआ कि शायद आपके पास ओढ़ने का सामान हो तो ये कम्बल लाया था और आपको ओढ़ा रहा था। अनवार अहमद साहब कहते थे कि मुझ पर उनकी इस शफ़क़त का ऐसा असर हुआ कि उम्रभर नहीं भूल सकता।

    मेहमान के आने से (और अक्सर ऐसा होता था) वो बहुत ख़ुश होते थे और सच्चे दिल से ख़ातिर तवाज़ो करते थे और उसके ख़ुश रखने की कोशिश करते थे।

    मौलाना बहुत ही रक़ीक़-उल-क़ल्ब थे। दूसरे की तकलीफ़ को देखकर बेचैन हो जाते थे और जहाँ तक इख़्तियार में होता उसके रफ़ा करने की कोशिश करते थे। हाजतमंदों की हाजत रवा करने में बड़ी फ़राख़ दिली से काम लेते थे। बावजूद ये कि उनकी आमदनी क़लील थी लेकिन अपने पराए ख़ुसूसन मुसीबतज़दा लोगों के साथ सुलूक करते रहते थे। सिफ़ारिशें करके लोगों के काम निकालते थे। इसमें बड़े छोटे की कोई तख़्सीस थी। बामुरव्वत ऐसे थे कि इनकार नहीं कर सकते थे। इस क़लील आमदनी पर भी हाजतमंद उनके हाँ से महरूम नहीं जाते थे।

    तास्सुब उनमें नाम को था। हर क़ौम-ओ-मिल्लत के आदमी से यकसाँ ख़ुलूस और मोहब्बत से पेश आते थे। हिंदू मुस्लिम इत्तिहाद के बड़े हामी थे। जब कभी हिंदू मुस्लिम नज़ा का कोई वाक़िया सुनते थे उन्हें बहुत रंज-ओ-अफ़सोस होता था। तहरीर-ओ-तक़रीर में तो क्या निज की और बे-तकल्लुफ़ी की गुफ़्तगू में भी उनकी ज़बान से भी कोई कलमा ऐसा सुनने में नहीं आया जो किसी फ़िरक़े की दिल आज़ारी का बाइस हो बल्कि अगर कोई ऐसी बात कहता तो बुरा मानते और नसीहत करते थे। बेतास्सुबी का वस्फ़ उन्ही लोगों में पाया जाता है जिनकी तबीयत में इन्साफ़ होता है।

    हिन्दी उर्दू का झगड़ा उनके ज़माने में पैदा हो चुका था, और उसने नागवार सूरत इख़्तियार करली थी, लेकिन बावजूद इसके कि उन्होंने उम्रभर उर्दू की ख़िदमत की और अपनी तहरीरों से उर्दू का दर्जा बहुत बुलंद कर दिया। वो इन्साफ़ की बात कहने से कभी चूके, चुनांचे “ग़मख़ाना-ए-जावेद” के तब्सिरे में लिखते हैं,

    आजकल अह्ल-ए-मुल्क की बदक़िस्मती से जो इख़्तिलाफ़ हिंदू और मुसलमानों में उर्दू ज़बान की मुख़ालिफ़त या उसकी हिमायत की वजह से बरपा है इसकी रफ़ादाद हो सकती है तो इस तरीक़े से हो सकती है कि हिंदू तालीम याफ़्ता अस्हाब कुशादा दिली और फ़य्याज़ी के साथ उर्दू ज़बान में जो दरहक़ीक़त ब्रजभाषा की एक तरक़्क़ी याफ़्ता सूरत और उसकी एक प्रवान चढ़ी हुई औलाद है उसी तरह तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ करें जिस तरह हमारे हर दिल अज़ीज़ हीरो ने इस तूलानी तज़किरे को ख़त्म करने का इरादा किया है। और मुसलमान मुसन्निफ़ीन बेज़रूरत उर्दू में अरबी फ़ारसी के ग़ैर मानूस अलफ़ाज़ इस्तेमाल करने से जहाँ तक हो सके परहेज़ करें और उनकी जगह ब्रजभाषा के मानूस और आम फ़हम अलफ़ाज़ से उर्दू को मालामाल करने की कोशिश करें और इस तरह दोनों क़ौमों में आश्ती और सुलह की बुनियाद डालें और एक मुतनाज़े फीह ज़बान को मक़बूला-ए-फ़रीक़ैन बनाएँ जैसी कि लखनऊ जाने से पहले तक़रीबन अह्ल-ए-दिल्ली की ज़बान थी। मज़कूरा बाला इख़्तिलाफ़ के मुताल्लिक़ जो तास्सुब और नागवारी का इल्ज़ाम हिन्दुओं पर लगाया जाता है इस क़िस्म का बल्कि इससे ज़्यादा सख़्त इल्ज़ाम मुसलमानों पर लगाया जा सकता है। कौन नहीं जानता कि मुसलमान बावजूद ये कि तक़रीबन एक हज़ार बरस से हिंदुस्तान में आबाद हैं मगर इस तवील मुद्दत में उन्होंने चंद मुस्तसनियात को छोड़कर कभी संस्कृत या ब्रजभाषा की तरफ़ बावजूद सख़्त ज़रूरत के आँख उठाकर नहीं देखा, जिस संस्कृत को यूरोप के मुहक़्क़िक़ लातीनी-ओ-यूनानी से ज़्यादा फ़सीह, ज़्यादा वसीअ और ज़्यादा बाक़ायदा बताते हैं और जिसकी तहक़ीक़ात में उमरें बसर कर देते हैं। मुसलमानों ने आम तौर पर कभी इसको क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं समझा। अगर ये कहा जाए कि संस्कृत का सीखना कोई आसान काम नहीं है तो ब्रजभाषा जो बमुक़ाबला-ए-शगुफ़्ता और फ़साहत-ओ-बलाग़त से लबरेज़ है उसको भी उमूमन बेगानावार नज़रों से देखते रहे हालाँकि जो उर्दू उनको इस क़दर अज़ीज़ है उसकी ग्रामर का दार-ओ-मदार बिल्कुल ब्रजभाषा या संस्कृत की ग्रामर पर है। अरबी फ़ारसी से इस को इस क़दर ताल्लुक़ है कि दोनों ज़बानों के अस्मा इसमें कसरत के साथ शामिल हो गए हैं। बाक़ी तमाम अजज़ाए कलाम जिनके बग़ैर किसी ज़बान की नज़्म-ओ-नस्र मुफ़ीद मअनी नहीं हो सकती, ब्रजभाषा या संस्कृत की ग्रामर से माख़ूज़ हैं। सच ये है कि मुसलमानों का हिंदुस्तान में रहना और संस्कृत या कम से कम ब्रजभाषा से बेपर्वा या मुतनफ़्फ़िर होना बिल्कुल अपने तईं इस मिस्ल का मिस्दाक़ बनाना है कि दरिया में रहना और मगरमच्छ से बैर।

    ये बात बा’ज़ लोगों को बहुत नागवार गुज़री और बा’ज़ उर्दू अख़बारों ने इसकी तरदीद भी छापी लेकिन जो सच्ची बात थी वो कह गुज़रे, इस ख़्याल का इज़हार उन्होंने कई जगह किया है कि जो शख़्स उर्दू का अदीब और मुहक़्क़िक़ होना चाहता है उसे संस्कृत या कम से कम हिन्दी भाषा का जानना ज़रूरी है। “मुक़द्दमा शे’र-ओ-शायरी” में एक मक़ाम पर फ़रमाते हैं,

    “उर्दू पर क़ुदरत हासिल करने के लिए सिर्फ़ दिल्ली या लखनऊ की ज़बान का ततब्बो ही काफ़ी नहीं है। बल्कि ये भी ज़रूरी है कि अरबी फ़ारसी से कम मुतवस्सित दर्जे की लियाक़त और नीज़ हिन्दी भाषा में फ़िल-जुमला दस्तगाह बहम पहुँचाई जाए। उर्दू ज़बान की बुनियाद जैसा कि मालूम है हिन्दी भाषा पर रखी गई है, इसके तमाम अफ़आल और तमाम हुरूफ़ और ग़ालिब हिस्सा अस्मा का हिन्दी से माख़ूज़ है और उर्दू शायरी की बिना फ़ारसी शायरी पर जो अरबी शायरी से मुस्तफ़ाद है क़ायम हुई है, नीज़ उर्दू ज़बान में बड़ा हिस्सा अस्मा का अरबी और फ़ारसी से माख़ूज़ है। पस उर्दू ज़बान का शायर जो हिन्दी भाषा को मुतलक़ नहीं जानता और महज़ अरबी-ओ-फ़ारसी के तान गाड़ी चलाता है वो गोया अपनी गाड़ी बग़ैर पहियों के मंज़िल-ए-मक़सूद तक पहुँचानी चाहता है। और जो अरबी-ओ-फ़ारसी से नाबलद है और सिर्फ़ हिन्दी भाषा या महज़ मादरी ज़बान के भरोसे पर उसका बोझ का मुतहम्मिल होता है वो ऐसी गाड़ी ठेलता है जिसमें बैल नहीं जोते गए।”

    एक बार जब उर्दू लुग़त की तर्तीब का ज़िक्र उनसे आया तो फ़रमाने लगे कि “उर्दू लुग़ात में हिन्दी के वो अलफ़ाज़ जो आम बोल-चाल में आते हैं या जो हमारी ज़बान में खप सकते हैं बिला तकल्लुफ़ कसरत से दाख़िल करने चाहिएं।” ख़ुद अपनी नज़्म-ओ-नस्र में वो हिन्दी अलफ़ाज़ ऐसी ख़ूबसूरती से लिख जाते थे कि ये मालूम होता था कि वो गोया इसी मौक़े के लिए वज़ा हुए थे। उन्होंने बहुत से ऐसे अलफ़ाज़ उर्दू अदब में दाख़िल किए जो हमारी नज़रों से ओझल थे और जिनका आज तक किसी अदीब या शायर ने तो क्या हिन्दी अदीबों और शायरों ने भी इस्तेमाल नहीं किया था, लफ़्ज़ का सही और बरमहल इस्तेमाल जिससे कलाम में जान पड़ जाए और लफ़्ज़ ख़ुद बोल उठे कि लिखने वाले के दिल में क्या चीज़ खटक रही है, अदीब का बड़ा कमाल है और ये कोई हाली से सीखे। दिलों में घर कर लेने के जो गुर अदब में हैं, उनमें से एक ये भी है।

    नाम नुमूद छू कर नहीं गया था। वरना शोहरत वो बदबला है कि जहाँ ये आती है कुछ कुछ शेख़ी ही जाती है। हमारे शायरों में तो तअल्ली ऐब ही नहीं रही, बल्कि शेवा हो गई है। वो सीधी-सादी बातें करते थे और जैसा कि आम तौर पर दस्तूर है बातों बातों में शे’र पढ़ना, बहस करके अपनी फ़ज़ीलत जताना और इशारे कनाए में दूसरों की तहक़ीर और दरपर्दा अपनी बड़ाई दिखाना उनमें बिल्कुल था। हाँ शे’र में अलबत्ता कहीं कहीं तअल्ली गई है, मगर वो भी ऐसे लतीफ़ पैराए में कि ख़ाकसारी का पहलू वहाँ भी हाथ से जाने नहीं पाया। मसलन,

    गरचे हाली अगले उस्तादों के आगे हीच हैं

    काश होते मुल्क में ऐसे ही और दो-चार हीच

    या

    माल है नायाब पर गाहक हैं इससे बे-ख़बर

    शहर में खोली है हाली ने दुकाँ सबसे अलग

    उनका ज़ौक़-ए-शे’र आला दर्जा का था जैसा कि “हयात-ए-सादी, यादगार-ए-ग़ालिब और मुक़द्दमा शे’र-ओ-शायरी” से ज़ाहिर है। लेकिन वो ख़्वाह-मख़्वाह उसकी नुमाइश नहीं करना चाहते थे। हाँ, जब कोई पूछता या इत्तफ़ाक़ से बात पड़ती तो वो खुल कर इसके निकात बयान करते थे।

    हमारे हाँ ये दस्तूर सा हो गया है कि जब कभी कोई किसी शायर से मिलता है तो उससे अपना कलाम सुनाने की फ़र्माइश करता है। शायर तो शायर से इसलिए फ़र्माइश करता है कि उसे भी अपना कलाम सुनाने का शौक़ गुदगुदाता है और जानता है कि उसके बाद मुख़ातब भी उससे यही फ़र्माइश करेगा और बा’ज़ औक़ात तो इसकी भी ज़रूरत नहीं पड़ती, बग़ैर फ़र्माइश ही अपने कलाम से महज़ूज़ फ़रमाने लगते हैं। दूसरे लोग इसलिए फ़र्माइश करते हैं कि शायर उनसे उसकी तवक़्क़ो रखता है (बा’ज़ शायर तो इसके लिए बेचैन रहते हैं) लेकिन बा’ज़ लोग सच्चे दिल से इस बात के आर्ज़ूमंद होते हैं कि किसी शायर का कलाम उसकी ज़बान से नहीं सुनें। लोग मौलाना हाली से भी फ़र्माइश करते थे, वो किसी किसी तरह टाल जाते थे और अक्सर ये उज़्र कर देते थे कि मेरा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है अपना लिखा भी याद नहीं रहता। ये महज़ उज़्र लंग ही था इसमें कुछ हक़ीक़त भी थी। लेकिन असल बात ये थी कि वो ख़ुद नुमाई से बहुत बचते थे।

    जिन दिनों मौलाना हाली का क़याम हैदराबाद में था एक दिन गिरामी मरहूम ने चाय की दावत की। चंद और अहबाब को भी बुलाया, चाय वग़ैरा के बाद जैसा कि मामूल है फ़र्माइश हुई कि कुछ अपना कलाम सुनाइये। मौलाना ने वही हाफ़िज़े का उज़्र किया हरचंद लोगों ने कहा कि जो कुछ भी हो याद वो फ़रमाइये, मगर मौलाना उज़्र ही करते रहे, इतने में एक साहब को ख़ूब सूझी, वो चुपके से उठे और कहीं से दीवान-ए-हाली ले आए और ला के सामने रख दिया। अब मजबूर हुए कि कोई उज़्र नहीं चल सकता था। आख़िर उन्होंने यह ग़ज़ल सुनाई जिसका मतला था,

    है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूब तर कहाँ

    अब ठेरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ

    आजकल तो हमारे अक्सर शायर लय से या ख़ासतौर से गाके पढ़ते हैं, उनका ज़िक्र नहीं लेकिन जो तहत-उल-लफ़्ज़ पढ़ते हैं, उनमें बा’ज़ तरह तरह से चश्म-ओ-अब्रू, हाथ, गर्दन और जिस्म से काम लेते और बा’ज़ औक़ात ऐसी सूरतें बनाते हैं कि बेइख़्तियार हंसी जाती है। मौलाना सीधे सादे तौर से पढ़ते थे। अलबत्ता मौक़े के लिहाज़ से इस तरह अदा करते कि उससे असर पैदा होता था। एक बार अलीगढ़ कॉलेज में मोहमडन एजूकेशनल कान्फ़्रेंस का सालाना जलसा था। मौलाना का मिज़ाज कुछ अलील था। उन्होंने अपनी नज़्म पढ़ने के लिए मौलवी वहीदुद्दीन सलीम साहब को दी जो बहुत बुलंद आवाज़ मुक़र्रर, पढ़ने में कमाल रखते थे। सलीम साहब एक ही बंद पढ़ने पाए थे कि मौलाना से रहा गया। नज़्म उनके हाथ से ले ली और ख़ुद पढ़नी शुरू की। ज़रा सी देर में सारी मजलिस में कोहराम मच गया।

    सर सय्यद तो उस ज़माने में ख़ैर मूरिद-ए-लान-ओ-तान थे ही और हरकस-ओ-नाकस उन पर मुँह आता था। लेकिन उसके बाद जिस पर सबसे ज़्यादा एतिराज़ात की बौछार पड़ी वो हाली थे। एक तो हर वो शख़्स जिसका ताल्लुक़ सय्यद अहमद ख़ां से था, यूँ ही मर्दूद समझा जाता था, इस पर उनकी शायरी जो आम रंग से जुदा थी और निशाना-ए-मलामत बन गई थी और “मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी” ने तो ख़ासी आग लगा दी। अह्ल-ए-लखनऊ इस मुआमले में छुई-मुई से कम नहीं, वो मामूली सी तन्क़ीद के भी रवादार नहीं होते। उन्हें ये वहम हो गया था कि ये सारी कार्रवाई उन्हीं की मुख़ालिफ़त में की गई है। फिर क्या था, हर तरफ़ से नुक्ताचीनी और तान-ओ-तारीज़ की सदा आने लगी। “अवध पंच में एक तवील सिलसिला-ए-मज़ामीन मुक़द्दमा के ख़िलाफ़ मुद्दत तक निकलता रहा जो अदबी तन्क़ीद का अजीब-ओ-ग़रीब नमूना था वो सिर्फ़ बेतुके और मुहमल एतिराज़ात ही का मजमूआ था बल्कि फक्कड़ और फब्तियों तक नौबत पहुँच गई थी, जिन मज़ामीन के उनवान।

    अब्तर हमारे हमलों से हाली का हाल है

    मैदान पानीपत की तरह पायमाल है

    तो इससे समझ लीजिए कि इस उनवान के तहत क्या कुछ ख़ुराफ़ात बकी गई होगी, मौलाना ये सब कुछ सहते रहे लेकिन कभी एक लफ़्ज़ ज़बान से निकाला।

    क्या पूछते हो क्योंकर सब नुक्ता चीं हुए चुप

    सब कुछ कहा उन्होंने पर हमने दम मारा

    लेकिन आख़िर एक वक़्त आया कि नुक्ताचीनों की ज़बानें बंद हो गईं और वही लोग जो उन्हें शायर तक नहीं समझते थे, उनकी तक़लीद करने लगे।

    गुल तो बहुत यारों ने मचाया पर गए अक्सर मान हमें

    मुख़ालिफ़त सहने का उनमें अजीब-ओ-ग़रीब माद्दा था। कैसा ही इख़्तिलाफ़ हो वो सब्र के साथ रहते थे। जवाब देते थे लेकिन हुज्जत नहीं करते थे। बा’ज़ औक़ात नामाक़ूल बात और कट हुज्जती पर ग़ुस्सा आता था लेकिन ज़ब्त से काम लेते थे। ज़ब्त और एतिदाल उनके बहुत बड़े औसाफ़ थे और ये दो खूबियाँ उनके कलाम में भी कामिल तौर पर पाई जाती हैं। ये अदीब का बड़ा कमाल है। ये बात सिर्फ़ असातिज़ा के कलाम में पाई जाती है। वरना जोश में आकर आदमी सर रिश्ता-ए-एतिदाल खो बैठता है और बहक कर कहीं का कहीं निकल जाता है और बजाए कुछ कहने के चीख़ने चिल्लाने लगता है।

    उनका एक नवासा था, माँ उसकी बेवा थी और उसका एक ही लड़का था। इकलौता लड़का बड़ा लाडला होता है। उस पर एक आफ़त ये थी कि सिरा की बीमारी में मुब्तला था, इसलिए हर तरह उसकी ख़ातिर और रज़ाजूई मंज़ूर थी। वो मौलाना को बहुत दिक़ करता मगर वो उफ़ तक करते। वो एंडे बेंडे सवालात करता। ये बड़े तहम्मुल से जवाब देते। वो फ़ुज़ूल फ़रमाइशें करता, ये उसकी तामील करते। वो ख़फ़ा होता और बिगड़ता, ये उसकी दिलदही करते। वो रूठ जाता, ये उसे मनाते वो लड़ कर घर से भाग जाता ये उसे ढूंडते फिरते। पानीपत से कहीं बाहर जाते तो वो उन्हें धमकी आमेज़ ख़त लिखता। ये शफ़क़त आमेज़ ख़त लिखते और समझाते बुझाते। कुछ उसकी दुखिया माँ का पास, वो सबसे ज़्यादा उस पर शफ़क़त फ़रमाते और उसकी हट, ख़फ़गी, रूठने मचलने को सहते और खूबी आज़ुर्दगी या बेज़ारी का इज़हार करते। अगरचे जवान हो गया था मगर मिज़ाज उसका बच्चों का था। सलीम मरहूम फ़रमाते थे कि एक बार उसने मौलाना को ऐसा धमकाया कि वो गिर पड़े। कहीं ख़्वाजा सज्जाद हुसैन साहब ने देख लिया। वो बहुत ब्रहम हुए और शायद उसके एक थप्पड़ मार दिया। मौलवी साहब इस पर सख़्त नाराज़ हुए और ख़्वाजा साहब से बातचीत मौक़ूफ़ कर दी और जब तक उन्होंने उस लड़के से माफ़ी नहीं मांग ली, उनसे साफ़ हुए।

    मौलाना ने दुनियावी जाह-ओ-माल की कभी हवस नहीं की, जिस हालत पर थे उस पर क़ाने थे, और ख़ुशी ख़ुशी ज़िन्दगी बसर करते और उसमें औरों की भी मदद करते रहते थे। उनकी क़नाअत का सबूत इससे बढ़कर क्या होगा कि उन्हें अरबिक स्कूल में साठ रुपया माहाना तनख़्वाह मिलती थी। जब हैदराबाद में उनके वज़ीफ़े की कार्रवाई हुई तो उन्होंने साठ से ज़्यादा तलब किए जिसके तख़्मीनन पछत्तर हाली होते हैं। एक मुद्दत तक पछत्तर ही मिलते रहे। बाद में पच्चीस का इज़ाफ़ा हुआ। रियासत-ए-हैदराबाद से मामूली आदमियों को बेशक़रार वज़ीफ़े मिलते हैं, वो चाहते तो कुछ मुश्किल था, मगर उन्होंने कभी ज़्यादा की हवस की और जो मिलता था वो उसके लिए बहुत शुक्रगुज़ार थे।

    ग़ालिबन सिवाए एक आध के उन्होंने कभी अपनी किसी किताब की रजिस्ट्री कराई। जिसने चाहा छाप ली। उनकी तसानीफ़ माल-ए-य़ग़मा थीं। मुसद्दस तो इतना छपा कि शायद ही कोई किताब छपी हो। ये कैसी सैर चश्मी और आला ज़र्फ़ी की बात है। ख़ुसूसन ऐसे शख़्स के लिए जिसकी आमदनी महदूद और बढ़ती हुई जरूरतों से कम हो।

    मुरव्वत के पुतले थे। जब तक ख़ास मजबूरी हो किसी की दरख़्वास्त रद नहीं करते थे। वक़्त बे-वक़्त लोग जाते और फ़ुज़ूल बातों में वक़्त ज़ाए करते, वो बैठे सुना करते लेकिन महज़ दिल-आज़ारी के ख़्याल से ये होता कि ख़ुद उठकर चले जाते या किनायतन इशारतन कोई ऐसी बात कहते कि लोग उठ जाते। हैदराबाद के क़ियाम में मैंने इसका ख़ूब तमाशा देखा।

    इसी तरह तबीयत में हया भी थी। जिस साल हैदराबाद तशरीफ़ लाए, सर सय्यद की बरसी का जलसा भी उन्हीं की मौजूदगी में हुआ। उनसे ख़ासतौर से दरख़्वास्त की गई कि इस जलसे के लिए सर सय्यद की ज़िन्दगी पर कोई मज़मून पढ़ें। नवाब इमाद-उल-मुल्क बहादुर सदर थे। मौलाना ने इस मौक़े के लिए बहुत अच्छा मज़मून लिखा था। मज़मून ज़रा तवील था। पढ़ते पढ़ते शाम हो गई, इसलिए आख़िरी हिस्सा छोड़ दिया। क़ियामगाह पर वापस कर फ़रमाने लगे मेरा गला बिल्कुल ख़ुश्क हो गया था और हलक़ में कांटे पड़ गए थे, अच्छा हुआ जो अँधेरा हो गया वरना इस से आगे एक हर्फ़ पढ़ा जाता। मैंने कहा वहाँ पानी शर्बत वग़ैरा का सब इंतज़ाम था, आपने क्यों फ़रमाया, उसी वक़्त पानी या शर्बत हाज़िर कर दिया जाता, कहने लगे इतने बड़े मजमे में पानी मांगते हुए शर्म मालूम हुई।

    जब किसी होनहार तालीम याफ़्ता नौजवान को देखते तो बहुत ख़ुश होते और हौसला अफ़ज़ाई करते थे। क़द्रदानी का ये हाल था कि जहाँ कोई अच्छी तहरीर नज़र से गुज़रती तो उसकी फ़ौरन दाद देते और ख़त लिख कर लिखने वाले की हिम्मत बढ़ाते थे। “पैसा” अख़बार जब रोज़ाना हुआ तो सबसे पहले मौलाना ने मुबारकबाद का तार दिया। मौलवी ज़फ़र अली ख़ां की कारगुज़ारियों से ख़ुश हो कर उनकी तारीफ़ में नज़्म लिखी। “हमदर्द” और मौलाना मोहम्मद अली की मदहसराई की और जब कभी कोई ऐसी बात देखते जो क़ाबिल-ए-एतिराज़ होती तो बड़ी हमदर्दी और शफ़क़त से समझाते और उस का दूसरा पहलू समझाते। उनके ख़ुतूत में ऐसे बहुत से इशारे पाए जाते हैं। उनके बा’ज़ हमअस्र इस बात से नाराज़ होते थे कि मौलाना दाद देने और तारीफ़ करने में बड़ी फ़य्याज़ी बरतते हैं जिससे लोगों का दिमाग़ फिर जाता है। मुम्किन है ये सही हो। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी तो है। उनकी ज़रा सी दाद से कितना दिल बढ़ जाता था और आइन्दा काम करने का हौसला होता था।

    हमअस्रों और हम चश्मों की रिक़ाबत पुरानी चीज़ है और हमेशा से चली रही है। जहाँ तक मुझे उनसे गुफ़्तगू करने का मौक़ा मिला और बा’ज़ वक़्त छेड़ छेड़ कर और कुरेद कुरेद कर देखा और उनकी तहरीरों के पढ़ने का इत्तफ़ाक़ हुआ। मौलाना इस ऐब से बुरे मालूम होते हैं। मुहम्मद हुसैन आज़ाद और मौलाना शिबली की किताबों पर कैसे अच्छे तब्सिरे लिखे हैं और जो बातें क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं उनकी दिल खोल कर दाद दी है। मगर उन बुज़ुर्गों में से किसी ने मौलाना की किसी किताब के मुताल्लिक़ कुछ नहीं लिखा। आज़ाद मरहूम उनका नाम तक सुनने के रवादार थे। इस मुआमले में उनकी तबीयत का रंग बऐनही ऐसा था जैसे किसी सूत का होता है। लाहौर में कर्नल हालराइड की ज़ेर-ए-हिदायत जो जदीद रंग के मुशायरे हुए उनमें दोनों ने तब्अ-आज़माई की। बरखा-रुत, हुब्ब-ए-वतन, निशात-ए-उम्मीद उसी ज़माने की नज़्में हैं। मौलाना की इन नज़्मों की जो तारीफ़ हुई तो ये अमर हज़रत आज़ाद की तब-ए-नाज़ुक पर गिरां गुज़रा, उस वक़्त से उनका रुख़ ऐसा फिरा कि आख़िर दम तक ये फांस निकली। आज़ाद अपने रंग के बेमिसाल निसार हैं मगर शे’र के कूचे में उनका क़दम नहीं उठता लेकिन मौलाना की इंसाफ पसंदी मुलाहिज़ा कीजिए कैसे साफ़ लफ़्ज़ों में इस नई तहरीक का सहरा आज़ाद के सर बाँधते हैं।

    “1874ई. में जो कि राक़िम पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो से मुताल्लिक़ और लाहौर में मुक़ीम था, मौलवी मुहम्मद हुसैन आज़ाद की तहरीक और कर्नल हालराइड डायरेक्टर सर रिश्ता-ए-तालीम पंजाब की ताईद अंजुमन पंजाब ने एक मुशायरा क़ायम किया था जो हर महीने एक बार अंजुमन के मकान में मुनअक़िद होता था।”

    बात में बात निकल आती है जब “हयात-ए-जावेद” शाए हुई तो मौलाना ने तीन नुस्ख़े मुझे भेजे थे। एक मेरे लिए, एक मौलवी अज़ीज़ मिर्ज़ा के लिए और तीसरा एक मुहतरम बुज़ुर्ग और अदीब जो उस वक़्त इत्तफ़ाक़ से हैदराबाद में वारिद थे। मैंने ले जाकर ये किताब उनकी ख़िदमत में पेश की। शुक्रिया तो रहा एक तरफ़ देखते ही फ़रमाया कि “ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा का आईना है” वहाँ और भी कई साहब मौजूद थे। मैं ये सुनकर दम-ब-ख़ुद रह गया, यूँ भी कुछ कहना सु-ए-अदब था लेकिन जहाँ पढ़ने से पहले ऐसी राय का इज़हार कर दिया हो वहाँ ज़बान से कुछ निकालना बेकार था।

    अब इस मुक़ाबले में एक वाक़िया सुनिए। क़ियाम-ए-हैदराबाद में एक रोज़ मौलवी ज़फ़र अली ख़ां मौलाना से मिलने आए। उस ज़माने में वो दक्कन रिव्यू निकालते थे। कुछ अर्से पहले उस रिसाले में एक दो मज़मून मौलाना शिबली की किसी किताब या रिसाले पर शाए हुए थे। उनमें किसी क़दर बेजा शोख़ी से काम लिया गया था। मौलाना ने इसके मुताल्लिक़ ज़फ़र अली ख़ां से ऐसे शफ़क़त आमेज़ पैराए में नसीहत करनी शुरू की कि उनसे कोई जवाब बन पड़ा, और सर झुकाए आँखें नीची किए चुपचाप सुना किए। मौलाना ने ये फ़रमाया कि मैं तन्क़ीद से मना नहीं करता, तन्क़ीद बहुत अच्छी चीज़ है और अगर आप लोग तन्क़ीद करेंगे तो हमारी इस्लाह क्यों कर होगी लेकिन तन्क़ीद में ज़ातियात से बहस करना या हंसी उड़ाना मंसब-ए-तन्क़ीद के ख़िलाफ़ है।

    ख़ुद मौलाना पर बहुत सी तन्क़ीदें लिखी गईं और नुक्ताचीनियां की गईं लेकिन उन्होंने कभी उसका बुरा माना। मौलाना हसरत मोहानी का वाक़िया जो मुझसे मौलवी सलीम मरहूम ने बयान फ़रमाया और अब शेख़ इस्माईल साहब ने अपने मज़मून में लिखा है बहुत ही पुरलुत्फ़ है।

    1903ई. में जब मौलवी फ़ज़ल-उल-हसन साहब हसरत मोहानी ने अलीगढ़ से “उर्दू-ए-मोअल्ला” जारी किया तो जदीद शायरी के इस मुजद्दिद आज़म पर भी एतिराज़ात का एक लामतनाही सिलसिला शुरू किया। मौलाना के पास अगरचे “उर्दू-ए-मोअल्ला” बाक़ायदा पहुँचता था मगर आपने कभी एतिराज़ात का जवाब दिया और मुख़ालिफ़त पर नाराज़गी का इज़हार फ़रमाया।

    अलीगढ़ कॉलेज में कोई अज़ीमुश्शान तक़रीब थी। नवाब मोहसिन-उल-मुल्क मरहूम के इसरार पर मौलाना हाली भी इसमें शिरकत की ग़रज़ से तशरीफ़ लाए और हस्ब-ए-मामूल सय्यद ज़ैन-उल-आबदीन मरहूम के मकान पर फ़िरोकश हुए। एक सुबह हसरत मोहानी दोस्तों को साथ लिये हुए मौलाना की ख़िदमत में हाज़िर हुए। चंदे इधर उधर की बातें हुआ कीं इतने में सय्यद साहब मौसूफ़ ने भी अपने कमरे से हसरत को देखा। उन मरहूम में लड़कपन की शोख़ी अब तक बाक़ी थी। अपने क़ुतुबख़ाने में गए और “उर्दू-ए-मोअल्ला” के दो तीन पर्चे उठा लाए।

    हसरत और उनके दोस्तों का माथा ठनका कि अब ख़ैर नहीं और उठकर जाने पर आमादा हुए मगर ज़ैन-उल-आबदीन कब जाने देते थे। ख़ुद पास बैठ गए। एक पर्चे के वर्क़ उलटना शुरू किए और मौलाना हाली को मुख़ातिब करके हसरत और “उर्दू-ए-मोअल्ला” की तारीफों के पुल बांध दिए। किसी मज़मून की दो चार सतरें पढ़ते और वाह, ख़ूब लिखा कह कर दाद देते थे, हाली भी हूँ हाँ से ताईद करते जाते थे। मगर हसरत के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं।

    इतने में सय्यद साहब मस्नूई हैरत बल्कि वहशत का इज़हार करके बोले, “ऐ मौलाना, ये देखिए, आपकी निस्बत क्या लिखा है? और कुछ इस क़िस्म के अलफ़ाज़ शुरू किए, “सच तो ये है कि हाली से बढ़कर मुख़र्रिब ज़बान कोई हो नहीं सकता और वो जितनी जल्द अपने क़लम को उर्दू की ख़िदमत से रोकें उतना ही अच्छा है।”

    फ़रिश्ता मनुष हाली ज़रा मुक़द्दर नहीं हुए और मुस्कुरा कर कहा “तो ये कहना कि नुक्ताचीनी इस्लाह-ए-ज़बान का एक बेहतरीन ज़रिया है और ये ऐब में दाख़िल नहीं।”

    कई रोज़ बाद एक दोस्त ने हसरत से पूछा कि “हाली के ख़िलाफ़ अब भी कुछ लिखोगे?” जवाब दिया कि “जो कुछ लिख चुका हूँ उसी का मलाल अब तक दिल पर है।”

    (रिसाला ज़माना माह दिसंबर 1908ई. जिल्द 11 नम्बर 6 सफ़ा 298 ता 299)

    (माख़ूज़ अज़ तज़्किरा-ए-हाली सफ़ा 195 ता 198)

    मौलाना हाली अंग्रेज़ी मुतलक़ नहीं जानते थे, एक आध बार सीखने का इरादा किया, हो सका। लेकिन हैरत ये है कि मग़रिबी तालीम-ओ-तहज़ीब के मंशा को जैसा कि वो समझते थे उस वक़्त बहुत से अंग्रेज़ तालीम याफ़्ता भी नहीं समझते थे। उनका कलाम और उनकी तसानीफ़ इसकी शाहिद हैं और जो ये समझते थे कि वो कर के दिखाया। आज सैंकड़ों तालीम याफ़्ता मौजूद हैं लेकिन उनमें से कितने हैं जिन्होंने उसका अश्र-ए-अशीर भी किया हो। फिर यही नहीं कि हमारे शायरों और मुसन्निफ़ों की तरह बिल्कुल ख़्याली शख़्स थे। बल्कि जो कहते और समझते थे उस पर आमिल भी थे। आदमी मुफ़क्किर भी हो और अमली भी, ऐसा शाज़ होता है, ताहम मौलाना ने अपनी बिसात के मुवाफ़िक़ अमली मैदान में भी अपनी दो यादगारें छोड़ी हैं। एक तो उन्होंने अपने वतन पानीपत में मदरसा क़ायम किया जो अब हाली मुस्लिम स्कूल के नाम से मौसूम है और एक पब्लिक ओरिएंटल लाइब्रेरी क़ायम की जो पानीपत में सबसे बुलंद और पुरफ़िज़ा मुक़ाम पर वाक़े है। इसमें किताबों का एक अच्छा-ख़ासा ज़ख़ीरा है जिससे पानीपत वाले मुस्तफ़ीद होते।

    मौलाना कमज़ोरों और बेकसों के बड़े हामी थे। ख़ासकर औरतों की जो हमारे हाँ सबसे बेकस फ़िर्क़ा है, उन्होंने हमेशा हिमायत की “मुनाजात-ए-बेवा” और “चुप की दाद” ये दो ऐसी नज़्में हैं जिनकी नज़ीर हमारी ज़बान में क्या हिंदुस्तान की किसी ज़बान में नहीं। इन नज़्मों के एक एक मिसरे से ख़ुलूस, जोश, हमदर्दी और असर टपकता है। ये नज़्में नहीं, दिल-ओ-जिगर के टुकड़े हैं। लिखना तो बड़ी बात है, कोई इन्हें बे चश्म-ए-नम पढ़ भी नहीं सकता।

    जिन लोगों ने सिर्फ़ उनका कलाम पढ़ा है शायद वो समझते होंगे कि मौलाना हर वक़्त रोते और बिसूरते रहते होंगे। इसमें शक नहीं कि उनका दिल दर्द से लबरेज़ था और ज़रा सी ठेस से छलक उठता था, मगर वो बड़े शगुफ़्ता मिज़ाज और ख़ुश तबा थे, ख़ुसूसन अपने हम सोहबत यारों में बड़ी ज़राफ़त और शोख़ी से बातें करते थे। उनके कलाम में भी कहीं कहीं ज़राफ़त और ज़्यादातर तंज़ की झलक नज़र आती है।

    जदीद तालीम के बड़े हामी थे और इसकी इशाअत और तलक़ीन में मक़दूर भर कोशिश करते रहे। लेकिन आख़िरी उम्र में हमारे कॉलेजों के तलबा को देख कर उन्हें किसी क़दर मायूसी होने लगी थी। मुझे ख़ुद याद है कि जब उनके नाम हैदराबाद में एक रोज़ “ओल्ड ब्वॉय” आया तो उसे पढ़ कर बहुत अफ़सोस करने लगे कि इसमें सिवाए मस्ख़रापन के कुछ भी नहीं होता। उन्हें अलीगढ़ के तलबा से इससे आला तवक़्क़ो थी।

    उनकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि उर्दू ज़बान में आला दर्जा के नॉवेल ख़ुसूसन ड्रामे लिखे जाएं और इस बात पर अफ़सोस करते थे कि यूरोपियन ज़बानों से बेहतरीन नॉवेलों और ड्रामों का उर्दू में तर्जुमा नहीं किया गया ताकि वो नमूने का काम दें। ये गुफ़्तगू उन्होंने कुछ इस ढंग से की जिससे मुतरश्शेह होता था कि उनका जी चाहता था कि ख़ुद कोई ड्रामा लिखें लेकिन स्टेज से वाक़िफ़ होने और कोई उम्दा नमूना सामने आने से मजबूर हैं।

    आख़िर में उनकी दो बड़ी तमन्नाएं थीं। एक तो उर्दू ज़बान में तज़कीर-ओ-तानीस के उसूल मुंज़ब्त करना और एक कोई और बात थी जो इस वक़्त मेरे ज़ेहन से बिल्कुल निकल गई है। जब मेरा तक़र्रुर औरंगाबाद पर हुआ था तो मैंने मौलाना की ख़िदमत में लिखा कि यहाँ की हवा बहुत मो’तदिल और ख़ुशगवार है। पानी बहुत लतीफ़ है, और ख़ुसूसन जिस मुक़ाम पर मैं रहता हूँ वो बहुत ही पुरफ़िज़ा है। आप कुछ दिनों के लिए यहाँ तशरीफ़ ले आइए, सेहत को भी फ़ायदा होगा और जो काम आप करना चाहते हैं वो भी आसानी से अंजाम पा जाएगा। कोई मुख़िल औक़ात भी होगा और यक़ीन है कि आप यहाँ कर बहुत ख़ुश होंगे। वो आने के लिए बिल्कुल आमादा थे मगर उनके फ़र्ज़ंद ख़्वाजा सज्जाद हुसैन साहब और दूसरे अज़ीज़-ओ-अका़रिब रज़ामंद थे। उज़्र ये था कि दूर दराज़ का सफ़र है, ज़ईफ़ी का आलम है। तबीयत यूँ भी नासाज़ रहती है, ऐसी हालत में इतनी दूर का सफ़र खिलाफ-ए-मस्लिहत है। मौलाना ने ये सब कैफ़ियत मुझे लिख भेजी और साथ ही ये भी लिख दिया कि जब तुम इधर आओ तो दो एक रोज़ के लिए पानीपत भी चले आना। उस वक़्त में तुम्हारे साथ हो लूंगा, फिर कोई चूँ-चरा नहीं करेगा। जब मैं गया तो वो बीमार हो चुके थे और बीमारी ने इतना तूल खींचा कि जान लेकर गई।

    मरहूम हमारी क़दीम तहज़ीब का बेमिस्ल नमूना थे। शराफ़त और नेक नफ़्सी उन पर ख़त्म थी। चेहरे से शराफ़त, हमदर्दी और शफ़क़त टपकती थी और दिल को उनकी तरफ़ कशिश होती थी। उनके पास बैठने से ये मालूम होता था कि कोई चीज़ हम पर असर कर रही है। दरगुज़र का ये आलम था कि कोई उनसे कैसी बदमुआमलगी और बदसुलूकी क्यों करे, उनके ताल्लुक़ात में कभी फ़र्क़ आता। जब मिलते तो उसी शफ़क़त-ओ-इनायत से पेश आते और क्या मजाल कि उसकी बदसुलूकी और बदमुआमलगी का ज़िक्र ज़बान पर आने पाए। इसी से नहीं किसी दूसरे से भी कभी ज़िक्र आता। इससे बढ़कर क्या तालीम होगी। ऐसे लोग जिनसे हर शख़्स हज़्र करता जब उनसे मिलते तो उनके हुस्न-ए-सुलूक और मुहब्बत का कलमा पढ़ते हुए जाते थे। परले दर्जे के नुक्ताचीं जो दूसरों की ऐब गीरी किए बग़ैर मानते ही नहीं उनके डंक यहाँ आकर गिर जाते थे। अख़लाक़ अगर सीखने की चीज़ है तो वो ऐसे ही पाक नफ़्स बुज़ुर्गों की सोहबत में सकते हैं। वरना यूँ दुनिया में पंद-ओ-नसाएह की कोई कमी नहीं, दफ़्तर के दफ़्तर भरे पड़े हैं। कैसा ही बुरा ज़माना क्यों हो दुनिया कभी अच्छों से ख़ाली नहीं होती। अब भी बहुत से साहब-ए-इल्म-ओ-फ़ज़ल, बाकमाल, ज़ी वजाहत, नेक सीरत और नेक दिल लोग मौजूद हैं मगर अफ़सोस कि कोई हाली नहीं।

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