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हसरत मोहानी

MORE BYरशीद अहमद सिद्दीक़ी

    उनकी गोल छदरी दाढ़ी, उनकी बारीक आवाज़, उनकी छोटे ताल की ऐनक, बग़ैर फुंदने की तुर्की टोपी, घिसी पिसी चप्पल, मोज़ों से कोई सरोकार नहीं, मोटे खद्दर की मलगज्जी पैवन्द लगी कावाक सी शेरवानी जिस के अक्सर बटन टूटे या ग़ायब, हाथ में बद-रंग साजावट का एक झोला, दरी तकिया और मोटी चादर, मुख़्तसर बिस्तर, टेढ़ा मेढ़ा पुराना छोटा सा एक ट्रंक और तामलोट, ये थे हसरत।

    लेकिन किस क़यामत का ये आदमी था। महशर-ए-ख़याल नहीं मह्शर-ए-अमल। जिस बात को अपने नज़दीक हक़ समझता था उसको किसी बग़ैर तअम्मुल के, बग़ैर घटाए बढ़ाए, बग़ैर हमवार किए बग़ैर मस्लिहत या मौक़ा का इन्तिज़ार किए, बेसाख़्ता ज़बान, बग़ैर पलक झपकाए, मुख़ातब अफ़लातून हो या फ़िरऔन, उसके सामने कह डालना हसरत के लिए मामूली बात थी। ऐसा निडर, सच्चा, मोहब्बत करने वाला और मोहब्बत का गीत गाने वाला अब कहाँ से आएगा। किसी से दबने वाला, हर शख़्स पर शफ़क़त करने वाला, ज़बान का फ़य्याज़, शाइरों का वाली, ग़ज़ल का इमाम, अदब का ख़िदमत गुज़ार। कैसी सच्ची बात एक अज़ीज़ ने कही कि सियासत कोयला का कारोबार है जिसमें सभी का हाथ और बहुतों का मुँह काला होता है सिवाए हसरत के।

    हसरत शख़्स के एतिबार से निहायत इन्तिहा पसन्द वाक़े हुए थे उनके यहाँ तज़ाद की भी कमी नहीं लेकिन उनकी शायरी में जो तवाज़ुन, ताज़गी और तरन्नुम मिलता है वो कम शोअरा के नसीब में आया है। मज़हब और सियासत में कट्टर होने के बावुजूद शायरी में हसरत किस दर्जा शीरीं नवा और शरीफ़-उल-नफ़्स और ज़िन्दगी में कैसे दुरवेश सिफ़त और तेग़-ए-असील थे।

    हसरत अलीगढ़ कॉलेज के बड़े ज़हीन और होनहार तालिब-ए-इल्म थे। अंग्रेज़ दुश्मनी में निकाले गए। अलीगढ़ में स्वदेशी कपड़े की दुकान रख ली। ग़ालिब पर हाशिया लिखा, उर्दू-ए-मोअल्ला की एडिटरी करते रहे और उन मश्ग़लों से जो कुछ रूखा फीका मयस्सर जाता उसी पर इक्तिफ़ा करते और दुनिया की तमाम ऐश-ओ-कामरानी को ठुकराए, फ़रेब-ओ-फ़िरऔनियत पर गरजते और हुस्न-ओ-इश्क़ का राग गाते रहे। किसी साहब-ए-दौलत का ज़ोहरा था कि मोहब्बत और मसकेनत के इस बोरिया नशीन और अज़मत और सदाक़त के इस नक़ीब-ओ-नाख़ुदा से आँख मिला सके। देसी खरे मटियाले काग़ज़ पर उर्दू के मशाहीर, कम नसीब गोशा-गीर और तक़रीबन भुलाए हुए शोरा के कलाम का इन्तिख़ाब शाए और उनकी ख़िदमात को उजागर करते रहे।

    वो ज़माना अलीगढ़ कॉलेज के बड़े दबदबे और तनतने का दौर था। कैसे कैसे तलबा यहाँ थे जो बड़े-बड़ों को ख़ातिर में लाते थे। ब-हैसियत-ए-तालिब-ए-इल्म हसरत यहाँ जिस हैय्यत-कज़ाई से तशरीफ़ लाए और जिस तरह उनका मज़ाक़ उड़ाया गया वो आज तक ज़बान-ज़द है। बाज़ू पर इमाम-ज़ामिन बँधा हुआ, मशरू का पाजामा, एक बुरा पान-दान, साथ लड़कों में ख़ाला अम्माँ के नाम से मशहूर हो गए। लेकिन यही हसरत अपनी ज़हानत, जुरअत और सदाक़त में ऐसे खरे साबित हुए कि साथियों की आँख का तारा बन गए। अलीगढ़ कॉलेज में बहैसियत-ए-तालिब-ए-इल्म, बिदेसी हुकूमत से सबसे पहले ख़ाला अम्माँ ही ने टक्कर ली। कॉलेज में हलचल मच गई और हसरत निकाले गए। इस ज़माने में बग़ावत और आज़ादी के खरे अलम-बर-दार जुनूब में बाल गंगाधर तिलक, मशरिक़ में अरविन्द घोष और शुमाल में लाला लाजपत राय थे। यूपी में हसरत ने इस मशाल को अलीगढ़ से रौशन किया।

    किसी का उस ज़माने में हसरत से तअल्लुक़ रखना अंग्रेज़ी हुकूमत के क़हर-ओ-इताब का मूजिब होता था। लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है अलीगढ़ कॉलेज के अच्छे से अच्छे तालिब-ए-इल्म हसरत की ख़िदमत में अक़ीदत का नज़राना पेश करने ज़रूर हाज़िर होते और उस पर फ़ख़्र करते कि हसरत ने उनको अपने बोरिए पर बिठाया। शफ़क़त और मोहब्बत की बातें कीं और अपना कलाम सुनाया। असातिज़ा-ए-सुख़न के कलाम और शेर-ओ-अदब की बारीकियों और नज़ाकतों से आश्ना किया।

    गुज़िश्ता 35, 36 साल में जो लोग अलीगढ़ से फ़ारिग़-उत-तहसील हो कर पब्लिक लाइफ़ में दाख़िल हुए और नाम पैदा किया उनमें कोई ऐसा नहीं जिसको मैंने बहुत क़रीब से देखा हो और उनको अच्छी तरह जानता पहचानता हूँ। अलीगढ़ में रहते बस्ते एक उम्र हुई। यहाँ की ज़िन्दगी का कौन सा ऐसा पहलू है जो नज़र से गुज़रा हो और कौन सी नेमतें हैं जो यहाँ मयस्सर नहीं आईं। यहाँ के अक्सर तालिब-ए-इल्म सियासी अक़ाइद की बिना पर यहाँ से निकाले भी गए। ऐसों का यहाँ से बेज़ार होना फ़ित्री था लेकिन इस वक़्त दो हस्तियाँ ऐसी याद आती हैं जो यहाँ से जिस अक़ीदे की बिना पर निकाली गईं उसकी उन्होंने तमाम उम्र पैरवी की, हज़ार अक़ूबतें झेलीं लेकिन अपने रास्ते से हटे। उनमें एक हसरत हैं ख़ाला जान के अह्द से लेकर ख़ातिमा बिलख़ैर होने तक बे-ग़र्ज़ी, जफ़ा-तल्बी, हक़-गोई, ख़ुदा-तर्सी और आज़ादी के रास्ता को लम्हा भर के लिए भी नहीं छोड़ा। कैसे कैसे आलाम और आज़माइश से गुज़रे। दो-चार साल नहीं, निस्फ़ सदी से ऊपर, लेकिन दामन कहीं से मुलव्विस हुआ, अपनी नज़र को नीची होने दिया अपने अक़ीदत-मन्दों की नज़र को।

    ख़ुदा रहमत कुनद ईं आशिक़ान-ए-पाक तीनत रा

    अपनी क़ैद-ओ-बन्द की ज़िन्दगी का हाल उन्होंने अपने रिसाले उर्दू-ए-मोअल्ला में बिल-अक़्सात लिखा है जिसमें उस अह्द के हालात-ओ-हवादिस और जेल-ख़ाने की ज़िन्दगी से मुतअल्लिक़ बड़े पते की बातें लिखीं हैं, पढ़ने की चीज़ है।

    कई साल हुए हसरत ने अलीगढ़ में शेर-ओ-शायरी से मुतअल्लिक़ अपना नुक़्ता-ए-नज़र एक मक़ाले की शक्ल में पेश किया था। यूनियन में शायक़ीन का बड़ा अच्छा और सुथरा मजमा था। हसरत ने बड़ी तफ़्सील और बड़ी क़ाबिलियत से शायरी की अक़्साम बताई थीं। बहुत से ऐसे लोग भी थे जो हसरत से बड़ी अक़ीदत रखते थे लेकिन हसरत ने हर तरह की शायरी पर जिस शायराना नुक़्ता-ए-नज़र और आलिमाना अन्दाज़-ए-फ़िक्र से जो बातें बयान की थीं और नून के जवाज़ पर-ज़ोर दिया था उनसे बाज़ ​िसक़ा के मोतक़िदात को झटके लगे। उनको इस पर तअज्जुब हुआ कि हसरत जो ज़िन्दगी में इतने ख़ुश्क और सपाट मज़हबी मोतक़िदात में इतने कट्टर और सियासी नुक़्ता-ए-नज़र में इतने बे-लचक थे वो ग़ैर ​िसक़ा शायरी की हिमायत कैसे कर रहे थे। ये बात तअज्जुब की ज़रूर थी कि जो शख़्स कहीं और किसी से मुफ़ा​िहमत करता हो वो शायरी में इतनी ढील देता हो। शायरी में हसरत का नुक़्ता-ए-नज़र ये था कि शायरी का मेयार शायरी ही है कुछ और नहीं। अभी एक अज़ीज़ ने यक दूर दराज़ मुक़ाम से इस्तिसवाब-ए-राए किया था कि हसरत या मुसहफ़ी का कलाम यू​िनवर्सिटी के निसाब में दाख़िल होना चाहिए या नहीं। इसलिए कि बाज़ों के नज़दीक दोनों के हाँ फ़ह्हाशी और ब्रहंगी मिलती है। ख़त पढ़ कर मुझे हसरत ही का एक शेर बे-इख़्तियार याद गयाः

    रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह

    ज़ाहिद भी किस क़दर है मज़ाक-ए-सुख़न से दूर

    मुझे यहाँ इस्तिफ़्सार पर कुछ कहना नहीं है लेकिन इतना कह देने में कोई मुज़ाइक़ा नहीं कि यू​िनवर्सिटी में शायर और शायरी से तलबा को रूशनास किया जाता है। मुतफ़र्रिक़ और मख़्सूस अशआर को अहमियत नहीं दी जाती। दूसरे ये कि उर्दू ग़ज़ल-गोई पर ईमान लाए बग़ैर हम अपने शेर-ओ-अदब के मेयार-ओ-मंज़िलत से आश्ना नहीं हो सकते और जहाँ तक ग़ज़ल-गोई का तअल्लुक़ है हसरत शुरू से आख़िर तक तक़रीबन निस्फ़ सदी से ऊपर अपने मुआसिरीन में सबसे मुम्ताज , मुनफ़रिद और मुहतरम रहे हैं। सबसे बदनाम सिन्फ़-ए-सुख़न को सबसे पुर-आशोब अह्द में हसरत ने जिस तरह बचाया और सबसे मुम्ताज रखा वो हसरत का बहुत बड़ा कारनामा है। चुनांचे मेरा ख़याल है कि अभी एक नामालूम मुद्दत तक ग़ज़ल-गोई के मेयार हसरत ही रहेंगे। यही बात नज़्म-गोई के सिलसिले में इक़बाल के बारे में वुसूक़ से कही जा सकती है। ख़ुद हसरत की पैरवी कोई कर पाए या नहीं। जिस यू​िनवर्सिटी के तलबा के बारे में ये अन्देशा हो कि हसरत की ग़ज़ल पढ़ कर बद-अतवार हो जाएँगे। मेरी राय में उस यू​िनवर्सिटी को बन्द और उसके असातिज़ा को कुछ और नहीं तो तालीम के काम से हमेशा के लिए महरूम कर देना चाहिए।

    कोई पंद्रह सोला साल उधर की बात है, एक दफ़ा सफ़र में हसरत का साथ हो गया। मैं दुनिया की हर तकलीफ़ बर्दाश्त कर सकता हूँ, थर्ड क्लास की भीड़ से जाँबर नहीं हो सकता। हसरत हस्ब-ए-मामूल थर्ड क्लास में सफ़र कर रहे थे। मैं नहीं कह सकता कि जिस डिब्बे में वो सफ़र कर रहे थे उसका क्या हाल था, कितनी भीड़ थी, कैसे लोग थे और कैसा तकलीफ़-देह मौसम था लेकिन हसरत के बुशरा या बातचीत से मुताल्लिक़ ज़ाहिर नहीं होता था कि उनको शम्मा बराबर भी कोई तकलीफ़ थी। गाड़ी ठहरती तो मैं प्लेटफार्म पर उतर कर उनको देख आता। जब देखता हुजूम में इज़ाफ़ा पाता। मुझे देख पाते तो हँस कर पुकारते और ऐसा मालूम होता जैसे इससे दिल-चस्प और आराम-देह सफ़र इन्होंने पहले कभी नहीं किया था। एक दफ़ा जा कर देखता हूँ तो उनके कन्धे पर किसी ग़रीब की छोटी सी बच्ची चिथड़े लगाए हुए बैठी है और हसरत साहब अपनी पोटली खोले हुए खाना खा रहे हैं और बच्ची को भी खिला रहे हैं। मैंने कहा हसरत साहब ये क्या है? कहने लगे कोई बात नहीं। भीड़ ज़्यादा हो गई थी, अन्देशा था कि बच्ची कुचल जाए। मैंने कहा हसरत साहब काश इस वक़्त आपका फ़ोटो लिया जा सकता और इसके नीचे लिख दिया जाता “हिन्दोस्तान में शायरी” कहने लगे “जी नहीं उसके नीचे लिखा जाता हिन्दोस्तान में भूक।”

    उर्दू पी. एच. डी. का ज़बानी इम्तिहान लेने हसरत अलीगढ़ तशरीफ़ लाए थे, उसी सज-धज से जिसका ज़िक्र ऊपर कर चुका हूँ। सफ़र ख़र्च का बिल फ़ार्म दस्तख़त के लिए पेश किया गया तो बोले “ये फ़स्ट क्लास किराया कैसा? मैं तो थर्ड क्लास में सफ़र किया करता हूँ। दर-अस्ल मैं दिल्ली जा रहा था, प्रोग्राम ऐसा रखा था कि यहाँ उतर पड़ूँ और इम्तिहान लेकर आगे बढ़ जाऊँ, फिर ये किराया कैसा? ठहरने का अलाउंस क्यों? तआम-ओ-क़याम तो आपके हाँ रहा।” बड़ी देर तक बड़े मज़े की रद्द-ओ-क़द्ह होती रही और अलीगढ़ से अपनी उलफ़त का इज़हार करते रहे। हसरत बड़े ज़िन्दा-दिल और ख़ुश-गुफ़्तार थे। मैंने कहा, “मौलाना ये रुपए तो आप मेरी ख़ातिर ले लें और मेरे ही ऊपर अपने हाथ से सर्फ़ कर दें।” बोले हाँ ये हो सकता है बताइए कैसे?” मैंने कहा “मेरे लिए एक वैसा ही यूनीफ़ार्म बनवा दीजिए जैसा कि आप पहनते रहे हैं।” बे-इख़्तियार हँस पड़े, फिर बोले “यूनीफ़ार्म क्या कीजिएगा।” मैंने कहा “दुश्मनों का ख़याल है कि आप अपने बाद अपना ख़लीफ़ा मुझ ही को नाम-ज़द करेंगे। उस वक़्त ये सज्जादा मेरे काम आएगा।” बोले “ख़िरक़ा या सज्जादा।” मैंने कहा “न ख़िरक़ा सज्जादा।” उनका कारोबार सब ही करते हैं। आपकी यूनीफ़ार्म में तो आप का ख़लीफ़ा ख़ानक़ाह बर्दोश नज़र आएगा। बहुत महज़ूज़ हुए रह रह कर हँसते और दाद देते रहे।

    हसरत हिन्दुस्तानी पार्लीमेंट के मेम्बर थे लेकिन उनके अपने अन्दाज़-ए-दुरवेशाना में कोई फ़र्क़ आया। मेम्बरों की आराम-देह कुशादा और पुर-फ़िज़ा क़याम-गाह, टेलीफ़ोन, मोटर, तफ़रीह, दावत, दीद-ओ-बाज़दीद। एक ग़ैर-मुसर्रफ़ शिकस्ता मस्जिद में चटाई पर क़याम रहता था। फ़र्श पर आस-पास अख़बारात, काग़ज़ात और फाइलें। वक़्त आया तो किसी दुकान पर जा कर खाना ख़ालिया। काग़ज़ात झोले में डाले पार्लियामेंट पहुँच गए। रास्ता अक्सर पैदल ही तय करते और मौक़ा जान पड़ता तो पार्लियामेंट में ऐसी दो टूक और बेलाग तक़रीर करते कि दर-ओ-बाम गूँज उठते।

    तनम मी ब-लरज़द चू याद आवरम

    दिल्ली में एक नीम सरकारी सियासी क़िस्म का इज्तिमा था। बाज़ अहम और नाज़ुक मसाइल ज़ेर-ए-बहस थे। शाम को अस्राना था। अयान-ओ-अकाबिर जमा थे। हसरत भी मदऊ थे। ऐसे मौक़े पर ऐसी पार्टियाँ सिर्फ़ चाय पीने पिलाने के लिए नहीं होती और बातें भी मद्द-ए-नज़र होती हैं। आराइश-ओ-ज़ेबाइश, जाह-ओ-हशम, साज़-ओ-सामान, तकल्लुफ़-ओ-तवाज़ो, साहिबान-ए-सर्वत, माहिरीन-ए-सियासत, अकाबिर-ए- इल्म-ओ-हिकमत अपने अपने वज़्न और वक़ार के साथ और ख़्वातीन मा अपनी तमाम जलवा सामानियों के मौजूद थीं। फ़िज़ा आरास्ता चमन पैरास्ता इतने में एक तरफ़ से हसरत नुमूदार हुए। उस सज-धज से जो सिर्फ़ उनकी थी। उसी वक़ार दुरवेशी और अन्दाज़-ए-क़लन्दरी से जो उनका मसलक था और उसी शोला सामआनी-ओ-शबनम-अफ़्शानी के साथ जो उनकी ज़िन्दगी थी। मजमा में एक लहर सी दौड़ गई। हर शख़्स ने बड़े लुत्फ़-ओ-एहतिराम से हसरत की पज़ीराई। की और देखते देखते वो सबकी तवज्जो और तपाक का मर्कज़ बन गए। शाइस्ता फ़िक़रे, लुत्फ़ की बातें, अक़ीदत-ओ-मोहब्बत की पेशकश। ऐसा मालूम होने लगा जैसे ये तक़रीब हसरत ही के ख़ैर-मक़दम के लिए मुनअक़िद हुई थी, फ़र्माइश शुरू हो गई, हसरत ने शेर सुनाना शुरू कर दिए। हसरत ज़्यादा-तर अपना कलाम तहत-उल-लफ़्ज़ सुनाते थे बिल्कुल जैसे बातें करते हैं। मगर मालूम नहीं क्यों कभी कभी तरन्नुम भी फ़रमाने लगते जिस पर मुझे हमेशा हँसी जाती। उनका तरन्नुम ऐसा होता जिस में कोई मासूम बच्चा तरन्नुम के हर उसूल से बेगाना महज़ तरन्नुम की नक़्ल कर रहा हो।

    हसरत अपना कलाम सुना रहे थे। सारे अकाबिर उनके गिर्द जमा हो गए। महफ़िल का रंग ही बदल गया। थोड़ी देर तक ज़ेहन में कुछ और बातें आती रहीं और अपना अपना नक़्श छोड़ती चली गईं। सारा गिर्द-ओ-पेश जो दौलत, इमारत और नफ़ासत का तर्जुमान और आईना-दार था। एक शख़्स की मौजूदगी से क्या से क्या हो गया और उस मर्द-ए-दुरवेश के जलाल और उसकी शायरी के जुलु में वो सारा एहतिमाम किस दर्जा सतही और ज़िम्नी मालूम होने लगा। कितनी ऐसी बातें ज़ेहन में आईं जिनको बा-ज़ाबिता और बा-मआनी तहरीर का जामा पहनाना ना-मुमकिन होने लगा। यकायक इक़बाल की एक नज़्म के नुक़ूश तसव्वुर में उभरने लगे और बे-इख़्तियार याद आने लगा:

    उसका मक़ाम बुलन्द उसका ख़याल अज़ीम उसका सुरूर उसका शौक़, उसका नियाज़ उसका नाज़ ख़ाकी-ओ-नूरी-निहाद बन्दा-ए-मौला सिफ़ात हर दो-जहाँ से ग़नी उसका दिल-ए-बे-नियाज़ उसकी उम्मीदें क़लील, उसके मक़ासिद जलील उसकी अदा दिल-फ़रेब उसकी निगह दिल-नवाज़ नर्म दम-ए-गुफ़्तगू, गर्म दम-ए-जुस्तजू रज़्म हो या बज़्म हो पाक-दिल पाक-बाज़ नुक़्ता-ए-पुरकार-ए- हक़, मर्द-ए-ख़ुदा का यक़ीं और ये आलम तमाम वहम-ओ-तिलिस्म-ओ-मिजाज़ अक़्ल की मंज़िल है वो इश्क़ का हासिल है वो हल्क़ा-ए-आफ़ाक़ में गर्मी-ए-महफ़िल है वो आह वो मरदान-ए-हक़! वो अरबी शह-सवार हामी-ए-ख़ल्क़-ए-अज़ीम, साहिब-ए-सिद्क़-ओ-यक़ीं जिनकी हुकूमत से है फ़ाश ये रम्ज़-ए-ग़रीब सल्तनत-ए-अहल-ए-दिल, फ़क़्र है शाही नहीं जिनकी निगाहों ने की तर्बिय्यत-ए- शर्क़-ओ-ग़र्ब ज़ुल्मत-ए-यूरोप में थी जिनकी ख़िरद राह बीं नक़्श हैं सब नातमाम ख़ून-ए-जिगर के बग़ैर नग़्मा है सिवा-ए-ख़ाम ख़ून-ए-जिगर के बग़ैर

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