जालिब की इन्फ़िरादियत
दवामी मौज़ूआत की दवामी शाइ’री की अहमियत मुसल्लम है। मगर बा’ज़ सूरतों में हंगामी और लम्हाती शाइ’री भी दवाम हासिल करने की तवानाइयों का मुज़ाहिरा करती है और इस तरह लम्हे फ़न में ढल कर सदियाँ बन जाते हैं। हबीब जालिब ने शाइ’री का आग़ाज़ दवामी मौज़ूआत से किया और कुछ ही अर्से में उन्होंने अपनी इन्फ़िरादियत यूँ तस्लीम करा ली कि इस शाइ’री को सहल-ए-मुम्तना’ की एक बलीग़ मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है। सलासत-ए-इज़्हार बहुत मुश्किल फ़न है, ख़ास तौर से जब इज़्हार ऐसे जज़्बाती तसव्वुरात का हो जिन को फ़न में मुन्तक़िल करते हुए पेशतर उर्दू शाइ’रों ने तवील तराकीब और पै-दर-पै इज़ाफतों और अरबी फ़ारसी के भारी भरकम अल्फ़ाज़ की भरमार कर दी हो। यूँ मैं समझता हूँ कि सलासत-ए-इज़्हार उर्दू शाइ’री की एक क़दीम रिवायत से बाक़ायदा बग़ावत है और जालिब ने इब्तेदाई दौर की ग़ज़लों में अपने आपको इस तरह का एक कामयाब बाग़ी साबित किया है।
इसके बा’द जालिब ने अपने फ़न में इज़्हार की एक और सिफ़त को इतनी ख़ूबी और तसलसुल से बरता कि वो पाकिस्तान की गुज़िश्ता बीस बरस की तारीख़ में आज़ादी-ए-इज़्हार और जुर्अत की एक अलामत बन गया। और लुत्फ़ की बात ये है कि आज़ादी-ओ-जुर्अत के इज़्हार में भी वो सलासत-ए-इज़्हार से दस्त-कश न हुआ। बल्कि मेरी राय के मुताबिक इस दौर में जालिब की मुल्क-गीर मक़्बूलियत में उसके मौज़ूआत की अहमियत और हमा-गीरी के अ’लावा उसकी सलासत-ए-इज़्हार का भी बड़ा हाथ है क्योंकि वो जो भी कहता है, कुछ इस तरह आम बोल-चाल के अन्दाज़ में कहता है कि उसका कलाम पढ़ने और सुनने वाले के दिल-ओ-दिमाग़ में बराह-ए-रास्त उतर कर उसकी शख़्सियत में रच-बस जाता है।
हबीब जालिब तरक़्क़ी पसंद अदब की तहरीक की पैदावार है मगर गुज़िश्ता बीस बरस के अदबी मन्जर में उसकी शख़्सियत शायद वाहिद शख़्सियत है जिसने बजाए ख़ुद एक तहरीक का मनसब अदा किया है। तरक़्क़ी-पसंद अदब की तहरीक तो अब तक रवाँ-दवाँ है मगर उसकी तन्ज़ीम आज से रुब्अ’ सदी पहले इन्तिशार का शिकार हो गई थी और तंज़ीम की ग़ैर मौजूदगी में किसी वाहिद शाइ’र का एक तहरीक-साज़ बन कर नुमायाँ होना बहुत ही दुश्वार मर्हला है। हबीब जालिब ने ये मर्हला कमाल-ए-पा-मर्दी से तय किया है और इसलिए वो मुआसर उर्दू शाइ’री में हक़ गोई और बेबाक-गोई की एक अ’लामत बन गया है। हर फ़र्द अपनी अपनी मआशरती मजबूरियों का असीर होता है और शाइ’र भी मुआशरे ही के अफ़्राद होते हैं। इसलिए वो इस असीरी से मुस्तसना नहीं होते।
हबीब जालिब भी आपकी और हमारी तरह इस मुआ’शरे का एक रुक्न है। मगर उसका इम्तियाज़ ये है कि उसने इस तरह की किसी मजबूरी के साथ कोई समझौता नहीं किया। यही सबब है कि उर्दू शाइ’री की तारीख़ में उसका नाम हमेशा एहतराम से लिया जाएगा। उसने न तो अलामत का सहारा लेकर ख़ुद को चिल्मन के पीछे छुपाया और न इस्तिआ’रे को फैला कर अपने माज़ी-उज़-ज़मीर को फ़न्नी पैतरों के ग़िलाफ़ों में लपेट कर पेश किया। हर बात बराह-ए-रास्त की और क़तई तौर पर ग़ैर-मुबहम और दो टूक-अल्फ़ाज़ में की और ये सब कुछ उस दौर में किया जब सच बोलना अपना सिर काट कर हथेली पर धर लेने के मुतरादिफ़ था।
बेशक अल्लामा इक़बाल और उनके बा’द मुतअ’द्दिद तरक़्क़ी-पसंद शोअरा ग़ज़ल को अस्री हक़ाइक़ के इज़्हार का ज़रिया बनाने में क़ाबिल-ए-क़द्र काम कर चुके थे और ग़ज़ल को क़दीम दौर के मुअ’य्यन मौज़ूआत के हब्स से निकालने के लिए ज़मीन हमवार कर चुके थे मगर जब कोई काश्त करने वाला ही न हो तो हमवार ज़मीनें भी वीरानों में बदल जाती हैं।
इस दौर में सिर्फ़ जालिब ही एक शाइ’र है जिसने छुप-छुपा कर नहीं बल्कि दिन की रौशनी में और सारी दुनिया के सामने उन मम्नूअ’ ज़मीनों का रुख़ किया और उनमें हक़-ओ-सदाक़त और हौसला-ओ-जुर्अत की ऐसी फ़सीलें काश्त कीं कि ख़ुद उसके हिस्से में तो क़ैद-ओ-बंद की सऊबतें आईं मगर उसने आने वाली नस्लों के लिए सच बोलना आसान बना दिया।
उसके सियासी रुझानात से भी इख़्तिलाफ़ किया जा सकता है और ये भी ज़रूरी नहीं कि बा’ज़ शख़्सियात की तन्क़ीद से सभी उसके साथ मुत्तफ़िक़ हों मगर ये तय है कि उसने जो कुछ भी कहा, हैरत अंगेज़ हौसले और ख़ुलूस के साथ कहा। ये हौसला उसे सदाक़त के ए’तिमाद ने भी दिया और मुल्क के उन अवाम की हिमायत ने भी जिनकी महरूमियाँ और जिन के बुनियादी हुक़ूक़ की पामाली जालिब की शाइ’री का मौज़ूअ बनी और उसने इतनी मक़्बूलियत हासिल की कि वो अपनी ज़िन्दगी ही में एक Legend बन गया। ये शोहरत और मक़्बूलियत और इ’ज्ज़त उस पर आसमान से नहीं फट पड़ी, उसने ये सब कुछ बे-शुमार क़ुर्बानियाँ दे कर हासिल किया है कि उसकी अ’ज़ीम जद्द-ओ-जहद ही उसका इस्तेहक़ाक़ है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.