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मुंशी प्रेमचंद

जे. नंदर कुमार

मुंशी प्रेमचंद

जे. नंदर कुमार

MORE BYजे. नंदर कुमार

    प्रेमचंद की कुछ बातें करने मैं आज आप के सामने हूँ। इस बात पर जी में कुछ बेचैनी होती है। आज वो हमारे बीच मे नहीं हैं और कभी वो दिन थे कि लोग पास बैठ कर चर्चा किया करते थे और उनकी हंसी का क़हक़हा किसी वक़्त भी सुना जा सकता था। पर इस बात पर आज अटक कर भी तो नहीं रहा जा सकता है। दुनिया में कौन सदा बैठा रहता है और कौन बैठा रहेगा। आदमी आते हैं और जो उनके ज़िम्मे काम होता है करते हुए पर्दे के पीछे चले जाते हैं। प्रेमचंद उस अन्जान पर्दे के पीछे हो कर आँखों से ओझल हो गए हैं। याद से दूर कर लेना उन्हें मुम्किन नहीं है। ज़िन्दगी उनके औसत से ज़्यादा नहीं रही। कुल छप्पन(56) बरस इस दुनिया में जिए। कहीं ये बरस रौशनी के बरस थे और उनकी ज़िन्दगीसच्ची मेहनत ईमानदारी और सादगी की ज़िन्दगी थी।

    ये तो आप और हम जानते हैं कि हिंदुस्तान में हिंदी और उर्दू भाषाएं जब तक हैं प्रेमचंद का नाम मिट नहीं सकता। वो धुंधला भी नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों ज़बानों को पास लाने में और उन दोनों को गढ़ने में उनका बहुत हाथ है। उनके ख़यालात हिंदुस्तान की ज़िन्दगी में घुल मिल गए हैं और वो हमारी तारीख़ का जुज़ बन गये हैं। उनकी कहानियां घर घर फैली हैं, उनकी किताबों के वरक़ लोगों के दिलों में बस गए हैं।

    लेकिन इस सच्चाई का बानी कौन था। ये बहुत लोगों को मालूम होगा। क्या चीज़ थी जो प्रेमचंद की तहरीरों को इस क़दर उम्दा बना देती थी, ये जानने के लिए ज़रा पीछे जाकर देखना चाहिए। उनकी हंसी तो मशहूर ही है। ज़िन्दगी में मैंने खुले गले का वैसा क़हक़हा और कहीं नहीं सुना। गोया जिस मन से हंसी का वो फ़व्वारा निकलता था उसमें किसी तरह का कीना और मैल तो रह ही नहीं सकता।

    उन पर चोटें भी कम नहीं पड़ी। सब ही तरह की मुसीबतें झेलना पड़ीं। फिर भी उनकी हंसी धीमी या फीकी नहीं हुई। या तो वो सब बातों में एक तरह की अलाहेदगी के बहाव से अलग करके देख सकते थे। इस ख़ूबी की क़ीमत समझने के लिए हमें उनके बचपन के ज़माने को भी कुछ देखना चाहिए।

    छुटपन की बात है कि माँ गुज़र चुकी थी पिता का भी पंद्रहवीं बरस इंतिक़ाल हो गया था। घर में दूसरी माँ थी और भाई थे और बहन थी। घर में कई तन पालने को थे, पर आमदनी पैसे की थी। उधर बालक प्रेमचंद के मन में एम.ए. पास करके वकील बनने का अरमान था। ब्याह भी छुटपन में हो गया था। वही लिखते हैं पाँव में जूते थे। बदन पर साबित कपड़े थे। गिरानी अलग, दस सेर के जौ थे। स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी। क्वींस कॉलेज बनारस में पढ़ता था। फ़ीस माफ़ हो गई थी। इम्तहान सर पर और मैं बाँस के फाटक एक लड़के को पढ़ाने जाया करता था। जाड़े का मौसम था। चार बजे शाम को पहुँच जाता। छः बजे छुट्टी पाता। वहाँ से मेरा घर पांच मील के फ़ासले पर था। तेज़ चलने पर भी आठ बजे रात से पहले घर पहुँचता।

    अपनी आप-बीती कहानी जो उन्होंने लिखी है उससे उनके शुरू के जीवन के दिन आँखों के आगे आजाते हैं। माँ कम उम्री में ही उन्हें छोड़कर चल बसीं। पंद्रह साल की उम्र में पिता भी छोड़ गए। शादी छुटपन ही में हो चुकी थी, घर में कई आदमी थे। गाँव से रोज़ाना दस मील चल कर पढ़ने पहुँचते। गुज़ारे के लिए तीन और पांच रुपये की ट्यूशन पाए। मैट्रिक जूं तूं पास हुआ अब आगे के लिए कोशिशें कीं। सिफ़ारिश भी पहुँचाई लेकिन कामयाब हुए। दाख़िला हो गया तो हिसाब उन्हें ले डूबता रहा। साल-हा-साल रियाज़ी के मज़मून की वजह से वो फ़ेल होते रहे। आख़िर दस बारह साल बाद जब रियाज़ी इख़्तियारी मज़मून हुआ तब बड़ी आसानी से उन्होंने वह इम्तहान पास कर लिया। पढ़ाई के दिनों में कितने दिन उन्हें भुने चनों पर रहना पड़ा और कितने दिन एक दम बिन खाए गुज़ारे, इसका शुमार ही नहीं। आख़िर एक दिन पास खाने को कौड़ी बची थी तब दो बरस से बड़े प्यार के साथ संभाल कर रखी हुई एक किताब दूकान पर बेचने पहुँचे। दो रूपये की किताब का एक में सौदा हुआ। रूपया ले कर दुकान से उतर रहे थे कि एक शख़्स ने पूछा, “क्या पढ़ते हो?” “नहीं, मगर पढ़ने को दिल चाहता है।” “मैट्रिक पास हो?”, “जी हां।” “नौकरी तो नहीं चाहते?”, “नौकरी कहीं मिलती ही नहीं।” उन्ही भले मानुस ने उन्हें मुलाज़िमत दी तो शुरू में अट्ठारह रूपये तन्ख़्वाह हुई। यहीं से उनकी ज़िन्दगी का शुरू समझना चाहिए।

    मेरी पहली मुलाक़ात 1888ई. में हुई। दिसंबर का महीना था। बनारस से लौट रहा था। बनारस में उनका ख़त मिल गया था कि ठीक किस जगह उनका मकान है, आने की इत्तिला दे सका था। सीधा वहाँ पहुँचा। पहले कभी उन्हें देखा था। थोड़ी ख़त-ओ-किताबत हो चुकी थी। इसी भरोसे मैं लखनऊ उनके घर जा धमका, मैं अनजान वो मशहूर मुसन्निफ़। मुझे क़लम पकड़ने का शऊर सीखने का था। उनके क़लम की धाक थी। लेकिन उन्होंने ख़त ऐसा भेजा था कि गोया दोनों हाथ फैलाकर वो मुझे बुला रहे हैं। सूरज अभी निकला भी था कि मैंने ज़ीने पर पहुँच कर आवाज़ें दीं। ज़ीना खुला और एक शख़्स ऐसे नज़र आए जैसे नींद से अभी उठे हों। ख़ुमार आँखों में अभी बाक़ी था। मूछें बड़ी बड़ी थीं। क़द कुछ पिस्ता। माथा उठा हुआ था। पर उस वक़्त बालों ने आकर उसे ढक लिया था और ये सब मिलाकर सर कुछ छोटा मालूम हो रहा था। लाल इमली की ऊनी चादर एक कंधे पर लिये थे। जो यूँ भी बहुत साफ़ थी। रानों में धोती काफ़ी ऊँची बंधी हुई थी। ख़्याल पड़ता है कि बदन पर नीम आस्तीन एक मज़नी थी सच पूछिए तो मैं इसके लिए तैयार था कि ये शख़्स प्रेमचंद होंगे। ये गुमान हो सकता था, पर यही थे प्रेमचंद।

    बोले कौन साहब हैं।

    मैंने कहा, नन्दर।

    इतना कहने के बाद तो जैसे मैं ख़ाली ही छोड़ा गया। ज़ीना के पास दालान में पानी फैला था। और कमरे के अंदर एक मैली कुचैली मेज़ थी। लेकिन प्रेमचंद मुझको लेकर ऐसे बैठ गए कि मैं किसी चीज़ के लिए बोल ही सका। इसी तरह कोई नौ बज गए। इतने में अंदर से कहलाया गया कि आज दवा आएगी कि नहीं। प्रेमचंद सुनकर चौंके, बोले, जैनेन्द्र, ये लो हमें तो वक़्त का ख़्याल ही नहीं रहा। तुम मुँह हाथ धोओ। इतने में दवा ले आता हूँ और इतने में मैं क्या देखता हूँ कि प्रेमचंद ताक़ से शीशी उठा उन्हीं कपड़ों और उसी स्लीपर में खट खट ज़ीना से उतर कर दवा लेने चल दिए। आते ही जो एक डेढ़ घंटे उनसे बातें हुईं तब मैं देख सका कि प्रेमचंद अपने ख़यालात की दुनिया में कितने जगे हुए रहते हैं। पच्छिम में क्या लिखा और सोचा जा रहा है, इसका उन्हें पूरा इल्म था और वो इल्म सही था। इन सब बातों के बारे में उनकी राय अपनी ही थी। दूसरों की नहीं। खुली आँखों और खुली अक़्ल से चीज़ों को देखते परखते थे लेकिन आपस के बरताव में इतने जागे हुए थे ये नहीं कहा जा सकता, मगर उसकी उन्हें परवाह थी।

    ख़ैर लौट कर आए। नाश्ता किया। गप शप की, खाना खाया और बोले दफ़्तर चलें। राह में जो पहला यक्का मिला। उससे पूछा क्यों दोस्त चलते हो।

    यक्के वाले ने क्या जवाब दिया मुझे ठीक याद नहीं। लेकिन उसने जितने पैसे बतलाए उसमें कुछ कमी उन्होंने अपनी तरफ़ से नहीं की। ये देखा कि वो बढ़िया चमकीला है कि नहीं। यक्के में बैठे बैठे यक्के वाले बूढ़े मुसलमान से दो एक ही बातों में उन्होंने एक तरह की बराबरी पैदा करली और उसे अपना बना लिया।

    दफ़्तर पहुँच कर बोले, चलो जैनेन्द्र एक दोस्त है। उन्हें तुम्हारा हाथ दिखाएं। मैंने कहा, हाथ क्यों। बोले भाई वो इस हुनर के उस्ताद हैं। देखो तो जानोगे आख़िर हाथ दिखाया गया। और लौटते वक़्त पूछने लगे कहो जैनेन्द्र क्या राय है।

    मैंने कहा, मुझे इस इल्म पर यक़ीन नहीं और मुस्तक़बिल में अपने से कुछ उम्मीद है। ये जवाब प्रेमचंद को पसंद आया वो दूसरे की शख़्सियत को कम करके देखना पसंद नहीं करते थे। उन्होंने कहा कि मुझे अपने मुस्तक़बिल के बारे में उम्मीद होने का कोई हक़ नहीं है।

    सवेरे का आया हुआ जब मैं उसी शाम प्रेमचंद के घर से लौट कर चलने लगा तो मुझे मालूम हुआ कि जाने कब से किसी भाई से बिछड़ रहा हूँ। उन्होंने अपने मेरे दर्मियान कोई फ़र्क़ मुझे महसूस नहीं होने दिया। बोले जैनेन्द्र जा रहे हो। मैंने कहा, हाँ। कहने लगे मैं ये जानता था, ऐसा था तो आए ही क्यों। मैंने फिर कभी जल्दी आने का वादा किया और रुख़्सत हो गया। इस तरह पहली ही दफ़ा मुझे प्रेमचंद से मुहब्बत हो गई कि वो कुछ भी और हों चाहे हों लेकिन अंदर तक खरे आदमी हैं और दिल उनका सही है और साबित है।

    उसके बाद तो ख़त-ओ-किताबत काफ़ी हुई और मालूम हुआ कि वो बड़े बनने के पीछे नहीं हैं। सच्चा बनना उनका मक़सद है। अपने को सदा मामूली ही आदमी गिनते हैं। मैंने कहा आपको क्यों ये मालूम नहीं कि बाहर आपकी कितनी शोहरत है।

    बोले, इस शोहरत का मुस्तहिक़ कोई और ही होगा। सच जानो मैं तो मज़दूर हूँ लिखते वक़्त मुझे हर घड़ी ये महसूस होता है। पहली बार दिल्ली आए उसकी कहानी दिलचस्प है। मैंने नागहानी एक कार्ड में उन्हें लिखा कि ये लोग घर आए हुए हैं। लेकिन आप भी यहाँ होते तो बड़ी रौनक़ रहती। इस अपने ख़त का इंतज़ार मुझे इस अपने ख़त के इंतज़ार में था, देखा कि तीसरे रोज़ सवेरे ही सवेरे प्रेम चंद कंधे पर कम्बल लटकाए गली में से चले रहे हैं, मैं अचम्भे में रह गया। बोला ये क्या, तार ख़त, ऐसे कहाँ से चले रहे हैं। बोले, कल दोपहर बाद तुम्हारा ख़त मिला। वक़्त था ही। गाड़ी मिल सकती थी इसी लिए चला रहा हूँ। मैंने कहा तार तो दे दिया होता। बोले देखा, तुम्हारा घर मिल गया कि नहीं। तार में नाहक़ पैसे क्यों ख़राब करता।

    मालूम हुआ कि दिल्ली आने का ज़िन्दगी में उनके लिए ये पहला मौक़ा है। इस ज़हानत पर मैं हैरत में रह गया। पांच छः रोज़ यहाँ रहे। उन दिनों काफ़ी दिलचस्पी रही। कई पार्टियां दी गईं और बराबर लोग उनको पूछते और घेरते रहे। मैं मन में समझा था कि चलो इससे उनकी तबीयत बहली रही होगी, लेकिन बात उल्टी थी। चलने लगे तो बोले जैनेन्द्र ये क्या तमाशा बना डाला है।

    मैंने कहा क्यों लोगों का आप पर हक़ नहीं है। बोले, मैं यहाँ इज़्ज़त पाता रहूं और घर वाले? इसी सिलसिले में मालूम हुआ कि ज़िन्दगी में दिल्ली में बीतने वाले ये पहले होश के चार पांच दिन हैं कि जब उन्होंने सवेरे काम नहीं किया है। इसके बाद यहाँ एक लिट्रेरी कान्फ़्रेंस में सद्र बना कर प्रेमचंद को हमने बुलाया। लेकिन वो आने को राज़ी ही हुए। ख़त लिखा, तार दिए, लेकिन उन्होंने लिखा तुम बुलाओ तो जाऊँ, लेकिन कान्फ़्रेंस की तोहमत क्यों लेते हो। आख़िर रज़ामंदी दी है तो तार में लिखा, Reaching With Protest।

    इन सब चीज़ों से मैंने देखा कि उन्हें दिल की तलाश है जहाँ प्रेम हो रहा वो बे-दाम हाज़िर हो सकते हैं, मगर वैसे नहीं। दुनिया की शान-ओ-शौकत उनके नज़दीक कोई चीज़ नहीं है। बड़े बड़े जलसों और मजमों में बेलाग और बेलौस ख़्याल से मैंने उन्हें घूमते हुए देखा है। गोया वो धूम धाम के नहीं हैं। किसी और ही गहरी सच्चाई के ख़्वाहां हैं।

    एक बात पर अक्सर उनके साथ बातचीत हो गई है और वो है ईश्वर और धर्म। वो ईश्वर की वजूद के क़ाइल नहीं होते थे। क्योंकि वो देखते थे कि ईश्वर और धर्म अच्छे से ज़्यादा बुरे काम में लाए जाते थे।

    पूछते, दुनिया में ज़ोर है, ज़ुल्म है। लोग सताए जाते हैं और भूकों मरते हैं, चारों तरफ़ तो दुख की चीख़ पुकार है। तुम उस ईश्वर को मानोगे जो इस सबकी इजाज़त देता है। मैंने देखा है कि ऐसे वक़्त उनकी क़ुव्वत-ए-गोयाई कम हो गई है और आँखों में चमक गई है या तो दुनिया की दुख की चीख़ उस वक़्त भी उनके कानों के अंदर पड़ रही है और वो उन्हें चैन लेने देना चाहती है। मैं कहता कि मुझे ईश्वर के विश्वास से बचने की राह मिल जाए तो मैं ख़ुद बच निकलना चाहता हूँ। वो कहते कि दुखियों के दुख की तरफ़ से दिल को कड़ा करके तुम ईश्वर में बंद होना चाहते हो यही तो? मैं कहता हूँ, हाँ, यही। दिल को और दूसरा कौन सा सहारा है। मैंने देखा है कि इस बयान से उनमें गर्मी गई और अपने को बहुत ज़्यादा कोसने को तैयार हो गए हैं कि क्यों दुखियों के दुख दर्द में वो पूरी तरह घुल मिल नहीं सकते। वो मुसीबत ज़दों की हालत देखकर ख़ुदा के मुनकिर हो जाते थे। लेकिन मैं सदा ये मानता आया हूँ कि देन और दुखी लोगों की हिमायत करना और उनके दर्द को अपना बना लेने से उनको दिली ख़ुशी हासिल होती थी। और इस लिहाज़ से प्रेमचंद सच्चे मानी में रहम-दिल और मज़हबी आदमी थे। मुझे वो दिन याद है। कलकत्ता से लौटा था प्रेमचंद खाट पर पड़े थे। बीमार थे और वो मौत की बीमारी साबित होने वाली थी। जिस्म ज़र्द हो गया था, हड्डियों के सिवा उस तन में क्या बाक़ी रह गया था। उसी दिन की तस्वीर है जो जहाँ-तहाँ अख़बारों में छपी है। पेट की तकलीफ़ बढ़ रही थी, किसी करवट चैन था।

    लेकिन देखता हूँ कि आँखों में उनकी अब भी मीठे सपने भरे हैं और चेहरे पर बशाशत है। उनके दिल में कोई शिकायत है और कोई मैल है।

    बीमारी के वक़्त शिद्दत-ए-मर्ज़ में तक़दीर से हर कोई नाराज़ हो जाता है और तबीयत चिड़चड़ी हो जाती है। लेकिन खाट पर पड़े पड़े प्रेमचंद को उस दिन भी अपनी हालत की फ़िक्र नहीं थी। उन्हें ये फ़िक्र थी कि हमको कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई है।

    बोले जैनेन्द्र दुख में ईश्वर मिला करते हैं लेकिन मुझे अब भी उसकी ज़रूरत मालूम नहीं होती है। मालूम होता है आख़िर तक ईश्वर को तकलीफ़ नहीं दूँगा।

    आज भी उस हालत को याद करके मैं तअज्जुब करता हूँ कि वो क्या ताक़त थी जो मौत के सर पर झूलने पर भी प्रेमचंद को पुरसुकून बनाए रखती थी। उनकी सारी निगाहें मेरी निगाह के पीछे रह जाती हैं और बीमार प्रेमचंद की वो मुतमइन आँखें मेरी आँखों के सामने जाती हैं। दो एक बार मौक़ा आया है कि मैंने उनकी आँखों में आँसू गिरते देखे हैं। एक किताब का ज़िक्र करते हुए वो ज़ार-ओ-क़तार रो पड़े। वो अपने को क़ाबू में नहीं रख सके और जिस दुखिया के दर्द पर उनका जी इस तरह मिट कर रोया था वो एक मामूली बाज़ारी औरत थी। एक रूसी नॉवेल का वो एक कैरेक्टर थी। प्रेमचंद का दिल उसकी तक्लीफ़ पर बेबस तौर पर इस तरह भर आया था कि कहा नहीं जा सकता। लेकिन वही नर्म दिल अपने दुख-दर्द पर तो हिलता भी था। ज़िन्दगी में मुसीबत उन पर कम नहीं पड़ी। क्या मुसीबतें उन्होंने नहीं झेलीं लेकिन उनका दिल मज़बूत रहा। वही दिल दूसरों की मुसीबत देख कर फ़ौरन पिघल जाता था।

    फिर तो आख़िरी दर्शन ही मुझे मिले। सवेरे सात बजे के क़रीब उनको बेहोशी आजाने वाली थी और उसके पीछे ही पीछे मौत भी। उसी रात दो ढाई बजे तक मैं उनके पलंग के पास बैठा रहा। वो आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर सकते थे। एक एक लफ़्ज़ पर उन्हें सांस लेना होता था। काया उनकी सफ़ेद पड़ गई थी। हाथ और पैरों में सूजन थी फिर भी थोड़ी बहुत मन की बात मुझ तक पहुँचा ही सकते थे।

    मैंने देखा कि उस वक़्त जो बात उनके दिल में थी वो अपनी हालत की नहीं थी। जिसके लिए जिए उसी लिट्रेचर की ऊंचाई और भलाई की तरफ़ तब भी उनकी निगाह थी। वही एक उनकी लगन थी।

    प्रेमचंद की शख़्सियत के बारे में मैं कोई अंदाज़ा नहीं देना चाहता हूँ। वो काम दूसरों का है। उनकी ज़िन्दगी की बहुत सी बातें मुझे याद आती हैं। एक लम्बा अरसा उनके साथ रह सह कर मेरा बीता है। उनकी याद पर कुछ जी भर आता है और दिल भारी हो जाता है। दुनिया में उनसे बड़ी बड़ी हस्तियाँ हैं और होती रहती हैं। उनके बीच प्रेमचंद को कहाँ रखना होगा। ये मुअर्रिख़ जाने, मेरा इस से कुछ सरोकार नहीं। लेकिन ये जानता हूँ कि प्रेमचंद की ज़िन्दगी भी एक लगन का नमूना थी। और वो आधी ज़िन्दगी नहीं थी उसमें हम सबके सीखने के लिए बहुत कुछ सबक़ मिल सकते हैं।

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