कहा कौन बुज़दिल है
आवाज़ आई वही जो
शिकस्ता सदाओं के बन में खड़ा है
जवाँ-साल गीतों की मय्यत उठाए
वही जो उदासी की जलती दो-पहरी में
राहत का अरमाँ लिए ढूँढता है
बुलंदी पे परवाज़ करते हुए
कुछ परिंदों के साए
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है जो
इस यक़ीं पर पला है
कि अज्दाद के फ़ैसलों की अमानत को
इक हामिला की तरह वो उठाए हुए है
अंधेरे उजाले जो इस वाहिमे से जुड़ा है
कि माज़ी की सतवत को
माथे पे अपने सजाए हुए है
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है जो
'उसरत-ए-'इल्म-ओ-हिकमत के पाताल में
बैठ कर सोचता है
कि हाथों में तहज़ीब 'इरफ़ान और आगही का
फरेरा उठाए हुए है
कि बीमार सीने पे हर्फ़-ए-सदाक़त का
ज़रकार तमग़ा लगाए हुए है
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है जिस की
‘अज़ीमत के आसार-ओ-अक़दार पर
क़हर टूटें अगर
मौत और ज़िंदगी दोनों जिस के लिए
तौक़-ए-ला'नत बनें
और वो ताज़ा ज़ख़्मों से बहते हुए ख़ून को
चश्म-ए-नम के प्यालों से धोता रहे
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है जो
ख़ौफ़ के साएबाँ में खड़ा
'अज़्म-ए-जाँबाज़ की रिफ़'अतें ढूँढता है
मोहब्बत की शादाब वादी में जो
गुखरुओं से भरी नफ़रतें ढूँढता है
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है जो
नस्ल तहज़ीब और ख़ून के ज़मज़मों को
'अक़ीदों की तलवार से काटता है
रिफ़ाक़त के जज़्बों ने सदियों के साए में
सींचा है जिस पेड़ की टहनियों को
उसे कुंद हथियार की धार से काटता है
वो बुज़दिल है
आवाज़ आई वो बुज़दिल है
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