हक़ और घर
कभी इन चिड़ियों से भी पूछना है
तुम्हारा घर कहाँ है
ये घर है क्या ये घर है कब
हुआ करता है किस का ये
रिटाइर हो चुका हूँ मैं
जो कहते हैं वो कॉलेज था
ग़लत हैं वो
है कब पहचान रिश्तों की
है कब पहचान जगहों की
वो मेरा घर था मेरी जान
वही हर रोज़ का जाना
क़तारें कमरों की होतीं
बड़े कुछ और कुछ छोटे
मगर वो सारे अपने थे
मैं संग बच्चों के रहता था
बहुत कुछ सीखता उन से
कभी उन को सिखाता भी
वो मेरा घर था मेरा हक़ था उस पर
ज़ियादा गर नहीं तो कम भी कब था
अभी भी सारे कमरे हैं
अभी भी सारे बच्चे हैं
मगर वो हक़ नहीं है
वो बस अब घर नहीं है
कहाँ जाऊँ मैं उनमें अब
क़तारों में हैं कमरे जैसे थे वो
क्लासों में हैं बच्चे जैसे थे वो
हूँ मैं बस घर से बाहर
सुनाई देगी गर जाऊँगा ख़ुद आवाज़ अपनी
वहाँ बच्चे नहीं होंगे हाँ बस आवाज़ें लौटेंगी
मैं डर जाऊँगा वापस आऊँगा वो घर नहीं है
वहाँ अब मेरा कोई हक़ नहीं है
बरस बीते हैं तब ये जान पाया दर्द क्या है
हमारी बेटियाँ क्यूँ यूँ तड़पती हैं
जब उन की डोली उठती है
उन्हें महसूस हो ये अब नहीं घर
नहीं है हक़ कोई इन का अब उस पर
ये हक़ है अस्ल जो है घर का मालिक
अगर हक़ है तो फिर घर है
नहीं है तो पटख़ लो पाँव कितने
नहीं वो घर तुम्हारा अब
वो कॉलेज हो या माईका!
कहावत है मकीं से ही मकाँ है
ग़लत मैं क्यूँ कहूँ होगा
मगर मेरे लिए ऐसा नहीं है
हमेशा से मकाँ से ही मकीं जाना
हों ये हालात अपने ख़ुद
या फिर हों बेटियों के वो
यही कड़वा वो सच है जो निगलना है
मुझे भी बेटियों को भी
मुझे अपनी ही कड़वाहट से है
दो चार होना अब
सदी बीती है आधी जब
छिना है एक घर मेरा
मिलेगा दूसरा अब कब
इकट्ठा ही मिले शायद
दोबारा फिर रिटाइर हूँ
दोबारा घर का हो अफ़्सोस
या फिर घर न होने का
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