लहू पुकारता है
लहू पुकारता है
हर तरफ़ पुकारता है
सहर हो, शाम हो, ख़ामोशी हो कि हंगामा
जुलूस-ए-ग़म हो कि बज़्म-ए-नशात-आराई
लहू पुकारता है
लहू पुकारता है जैसे ख़ुश्क सहरा में
पुकारा करते थे पैग़म्बरान-ए-इसराईल
ज़मीं के सीने से और आस्तीन-ए-क़ातिल से
गुलू-ए-कुश्ता से बेहिस ज़बान-ए-ख़ंजर से
सदा लपकती है हर सम्त हर्फ़-ए-हक़ की तरह
मगर वो कान जो बहरे हैं सुन नहीं सकते
मगर वो क़ल्ब जो संगीं हैं हिल नहीं सकते
कि उन में अहल-ए-हवस की सदा का सीसा है
वो झुकते रहते हैं लब-हा-ए-इक़तिदार की सम्त
वो सुनते रहते हैं बस हुक्म-ए-हाकिमान-ए-जहाँ
तवाफ़ करते हैं अर्बाब-ए-गी-ओ-दार के गिर्द
मगर लहू तो है बे-बाक ओ सरकश ओ चालाक
ये शोला मय के प्याले में जाग उठता है
लिबास-ए-अत्लस-ओ-दीबा में सरसराता है
ये दामनों को पकड़ता है शाह-राहों में
खड़ा हुआ नज़र आता है दाद-गाहों में
ज़मीं समेट न पाएगी उस की बाँहों में
छलक रहे हैं समुंदर सरक रहे हैं पहाड़
लहू पुकार रहा है लहू पुकारेगा
ये वो सदा है जिसे क़त्ल कर नहीं सकते
- पुस्तक : Ek Khvab aur (पृष्ठ 7)
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