वालिदा मरहूमा की याद में
रोचक तथ्य
From Part-3. 1908 (Bang-e-Dara)
ज़र्रा ज़र्रा दहर का ज़िंदानी-ए-तक़दीर है
पर्दा-ए-मजबूरी ओ बेचारगी तदबीर है
आसमाँ मजबूर है शम्स ओ क़मर मजबूर हैं
अंजुम-ए-सीमाब-पा रफ़्तार पर मजबूर हैं
है शिकस्त अंजाम ग़ुंचे का सुबू गुलज़ार में
सब्ज़ा ओ गुल भी हैं मजबूर-ए-नमू गुलज़ार में
नग़्मा-ए-बुलबुल हो या आवाज़-ए-ख़ामोश-ए-ज़मीर
है इसी ज़ंजीर-ए-आलम-गीर में हर शय असीर
आँख पर होता है जब ये सिर्र-ए-मजबूरी अयाँ
ख़ुश्क हो जाता है दिल में अश्क का सैल-ए-रवाँ
क़ल्ब-ए-इंसानी में रक़्स-ए-ऐश-ओ-ग़म रहता नहीं
नग़्मा रह जाता है लुत्फ़-ए-ज़ेर-ओ-बम रहता नहीं
इल्म ओ हिकमत रहज़न-ए-सामान-ए-अश्क-ओ-आह है
या'नी इक अल्मास का टुकड़ा दिल-ए-आगाह है
गरचे मेरे बाग़ में शबनम की शादाबी नहीं
आँख मेरी माया-दार-ए-अश्क-ए-उननाबी नहीं
जानता हूँ आह में आलाम-ए-इंसानी का राज़
है नवा-ए-शिकवा से ख़ाली मिरी फ़ितरत का साज़
मेरे लब पर क़िस्सा-ए-नैरंगी-ए-दौराँ नहीं
दिल मिरा हैराँ नहीं ख़ंदा नहीं गिर्यां नहीं
पर तिरी तस्वीर क़ासिद गिर्या-ए-पैहम की है
आह ये तरदीद मेरी हिकमत-ए-मोहकम की है
गिर्या-ए-सरशार से बुनियाद-ए-जाँ पाइंदा है
दर्द के इरफ़ाँ से अक़्ल-ए-संग-दिल शर्मिंदा है
मौज-ए-दूद-ए-आह से आईना है रौशन मिरा
गंज-ए-आब-आवर्द से मामूर है दामन मिरा
हैरती हूँ मैं तिरी तस्वीर के ए'जाज़ का
रुख़ बदल डाला है जिस ने वक़्त की परवाज़ का
रफ़्ता ओ हाज़िर को गोया पा-ब-पा इस ने किया
अहद-ए-तिफ़्ली से मुझे फिर आश्ना इस ने किया
जब तिरे दामन में पलती थी वो जान-ए-ना-तवाँ
बात से अच्छी तरह महरम न थी जिस की ज़बाँ
और अब चर्चे हैं जिस की शोख़ी-ए-गुफ़्तार के
बे-बहा मोती हैं जिस की चश्म-ए-गौहर-बार के
इल्म की संजीदा-गुफ़्तारी बुढ़ापे का शुऊ'र
दुनयवी ए'ज़ाज़ की शौकत जवानी का ग़ुरूर
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
बे-तकल्लुफ़ ख़ंदा-ज़न हैं फ़िक्र से आज़ाद हैं
फिर उसी खोए हुए फ़िरदौस में आबाद हैं
किस को अब होगा वतन में आह मेरा इंतिज़ार
कौन मेरा ख़त न आने से रहेगा बे-क़रार
ख़ाक-ए-मरक़द पर तिरी ले कर ये फ़रियाद आऊँगा
अब दुआ-ए-नीम-शब में किस को मैं याद आऊँगा
तर्बियत से तेरी में अंजुम का हम-क़िस्मत हुआ
घर मिरे अज्दाद का सरमाया-ए-इज़्ज़त हुआ
दफ़्तर-ए-हस्ती में थी ज़र्रीं वरक़ तेरी हयात
थी सरापा दीन ओ दुनिया का सबक़ तेरी हयात
उम्र भर तेरी मोहब्बत मेरी ख़िदमत-गर रही
मैं तिरी ख़िदमत के क़ाबिल जब हुआ तू चल बसी
वो जवाँ-क़ामत में है जो सूरत-ए-सर्व-ए-बुलंद
तेरी ख़िदमत से हुआ जो मुझ से बढ़ कर बहरा-मंद
कारोबार-ए-ज़िंदगानी में वो हम-पहलू मिरा
वो मोहब्बत में तिरी तस्वीर वो बाज़ू मिरा
तुझ को मिस्ल-ए-तिफ़्लक-ए-बे-दस्त-ओ-पा रोता है वो
सब्र से ना-आश्ना सुब्ह ओ मसा रोता है वो
तुख़्म जिस का तू हमारी किश्त-ए-जाँ में बो गई
शिरकत-ए-ग़म से वो उल्फ़त और मोहकम हो गई
आह ये दुनिया ये मातम-ख़ाना-ए-बरना-ओ-पीर
आदमी है किस तिलिस्म-ए-दोश-ओ-फ़र्दा में असीर
कितनी मुश्किल ज़िंदगी है किस क़दर आसाँ है मौत
गुलशन-ए-हस्ती में मानिंद-ए-नसीम अर्ज़ां है मौत
ज़लज़ले हैं बिजलियाँ हैं क़हत हैं आलाम हैं
कैसी कैसी दुख़्तरान-ए-मादर-ए-अय्याम हैं
कल्ब-ए-इफ़्लास में दौलत के काशाने में मौत
दश्त ओ दर में शहर में गुलशन में वीराने में मौत
मौत है हंगामा-आरा क़ुलज़ुम-ए-ख़ामोश में
डूब जाते हैं सफ़ीने मौज की आग़ोश में
ने मजाल-ए-शिकवा है ने ताक़त-ए-गुफ़्तार है
ज़िंदगानी क्या है इक तोक़-ए-गुलू-अफ़्शार है
क़ाफ़िले में ग़ैर फ़रियाद-ए-दिरा कुछ भी नहीं
इक मता-ए-दीदा-ए-तर के सिवा कुछ भी नहीं
ख़त्म हो जाएगा लेकिन इम्तिहाँ का दौर भी
हैं पस-ए-नौह पर्दा-ए-गर्दूं अभी दौर और भी
सीना चाक इस गुल्सिताँ में लाला-ओ-गुल हैं तो क्या
नाला ओ फ़रियाद पर मजबूर बुलबुल हैं तो क्या
झाड़ियाँ जिन के क़फ़स में क़ैद है आह-ए-ख़िज़ाँ
सब्ज़ कर देगी उन्हें बाद-ए-बहार-ए-जावेदाँ
ख़ुफ़्ता-ख़ाक-ए-पय सिपर में है शरार अपना तो क्या
आरज़ी महमिल है ये मुश्त-ए-ग़ुबार अपना तो क्या
ज़िंदगी की आग का अंजाम ख़ाकिस्तर नहीं
टूटना जिस का मुक़द्दर हो ये वो गौहर नहीं
ज़िंदगी महबूब ऐसी दीदा-ए-क़ुदरत में है
ज़ौक़-ए-हिफ़्ज़-ए-ज़िंदगी हर चीज़ की फ़ितरत में है
मौत के हाथों से मिट सकता अगर नक़्श-ए-हयात
आम यूँ उस को न कर देता निज़ाम-ए-काएनात
है अगर अर्ज़ां तो ये समझो अजल कुछ भी नहीं
जिस तरह सोने से जीने में ख़लल कुछ भी नहीं
आह ग़ाफ़िल मौत का राज़-ए-निहाँ कुछ और है
नक़्श की ना-पाएदारी से अयाँ कुछ और है
जन्नत-ए-नज़ारा है नक़्श-ए-हवा बाला-ए-आब
मौज-ए-मुज़्तर तोड़ कर ता'मीर करती है हबाब
मौज के दामन में फिर उस को छुपा देती है ये
कितनी बेदर्दी से नक़्श अपना मिटा देती है ये
फिर न कर सकती हबाब अपना अगर पैदा हवा
तोड़ने में उस के यूँ होती न बे-परवा हवा
इस रविश का क्या असर है हैयत-ए-तामीर पर
ये तो हुज्जत है हवा की क़ुव्वत-ए-तामीर पर
फ़ितरत-ए-हस्ती शहीद-ए-आरज़ू रहती न हो
ख़ूब-तर पैकर की उस को जुस्तुजू रहती न हो
आह सीमाब-ए-परेशाँ अंजुम-ए-गर्दूं-फ़रोज़
शोख़ ये चिंगारियाँ ममनून-ए-शब है जिन का सोज़
अक़्ल जिस से सर-ब-ज़ानू है वो मुद्दत इन की है
सरगुज़िश्त-ए-नौ-ए-इंसाँ एक साअ'त उन की है
फिर ये इंसाँ आँ सू-ए-अफ़्लाक है जिस की नज़र
क़ुदसियों से भी मक़ासिद में है जो पाकीज़ा-तर
जो मिसाल-ए-शम्अ रौशन महफ़िल-ए-क़ुदरत में है
आसमाँ इक नुक़्ता जिस की वुसअत-ए-फ़ितरत में है
जिस की नादानी सदाक़त के लिए बेताब है
जिस का नाख़ुन साज़-ए-हस्ती के लिए मिज़राब है
शो'ला ये कम-तर है गर्दूं के शरारों से भी क्या
कम-बहा है आफ़्ताब अपना सितारों से भी क्या
तुख़्म-ए-गुल की आँख ज़ेर-ए-ख़ाक भी बे-ख़्वाब है
किस क़दर नश्व-ओ-नुमा के वास्ते बेताब है
ज़िंदगी का शो'ला इस दाने में जो मस्तूर है
ख़ुद-नुमाई ख़ुद-फ़ज़ाई के लिए मजबूर है
सर्दी-ए-मरक़द से भी अफ़्सुर्दा हो सकता नहीं
ख़ाक में दब कर भी अपना सोज़ खो सकता नहीं
फूल बन कर अपनी तुर्बत से निकल आता है ये
मौत से गोया क़बा-ए-ज़िंदगी पाता है ये
है लहद इस क़ुव्वत-ए-आशुफ़्ता की शीराज़ा-बंद
डालती है गर्दन-ए-गर्दूं में जो अपनी कमंद
मौत तज्दीद-ए-मज़ाक़-ए-ज़िंदगी का नाम है
ख़्वाब के पर्दे में बेदारी का इक पैग़ाम है
ख़ूगर-ए-परवाज़ को परवाज़ में डर कुछ नहीं
मौत इस गुलशन में जुज़ संजीदन-ए-पर कुछ नहीं
कहते हैं अहल-ए-जहाँ दर्द-ए-अजल है ला-दवा
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त वक़्त के मरहम से पाता है शिफ़ा
दिल मगर ग़म मरने वालों का जहाँ आबाद है
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-सुब्ह-ओ-शाम से आज़ाद है
वक़्त के अफ़्सूँ से थमता नाला-ए-मातम नहीं
वक़्त ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-फ़ुर्क़त का कोई मरहम नहीं
सर पे आ जाती है जब कोई मुसीबत ना-गहाँ
अश्क पैहम दीदा-ए-इंसाँ से होते हैं रवाँ
रब्त हो जाता है दिल को नाला ओ फ़रियाद से
ख़ून-ए-दिल बहता है आँखों की सरिश्क-आबाद से
आदमी ताब-ए-शकेबाई से गो महरूम है
उस की फ़ितरत में ये इक एहसास-ए-ना-मालूम है
जौहर-ए-इंसाँ अदम से आश्ना होता नहीं
आँख से ग़ाएब तो होता है फ़ना होता नहीं
रख़्त-ए-हस्ती ख़ाक-ए-ग़म की शो'ला-अफ़्शानी से है
सर्द ये आग इस लतीफ़ एहसास के पानी से है
आह ये ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ ग़फ़्लत की ख़ामोशी नहीं
आगही है ये दिलासाई फ़रामोशी नहीं
पर्दा-ए-मशरिक़ से जिस दम जल्वा-गर होती है सुब्ह
दाग़ शब का दामन-ए-आफ़ाक़ से धोती है सुब्ह
लाला-ए-अफ़्सुर्दा को आतिश-क़बा करती है ये
बे-ज़बाँ ताइर को सरमस्त-ए-नवा करती है ये
सीना-ए-बुलबुल के ज़िंदाँ से सरोद आज़ाद है
सैकड़ों नग़्मों से बाद-ए-सुब्ह-दम-आबाद है
ख़ुफ़्तगान-ए-लाला-ज़ार ओ कोहसार ओ रूद बार
होते हैं आख़िर उरूस-ए-ज़िंदगी से हम-कनार
ये अगर आईन-ए-हस्ती है कि हो हर शाम सुब्ह
मरक़द-ए-इंसाँ की शब का क्यूँ न हो अंजाम सुब्ह
दाम-ए-सिमीन-ए-तख़य्युल है मिरा आफ़ाक़-गीर
कर लिया है जिस से तेरी याद को मैं ने असीर
याद से तेरी दिल-ए-दर्द आश्ना मामूर है
जैसे का'बे में दुआओं से फ़ज़ा मामूर है
वो फ़राएज़ का तसलसुल नाम है जिस का हयात
जल्वा-गाहें उस की हैं लाखों जहान-ए-बे-सबात
मुख़्तलिफ़ हर मंज़िल-ए-हस्ती को रस्म-ओ-राह है
आख़िरत भी ज़िंदगी की एक जौलाँ-गाह है
है वहाँ बे-हासिली किश्त-ए-अजल के वास्ते
साज़गार आब-ओ-हवा तुख़्म-ए-अमल के वास्ते
नूर-ए-फ़ितरत ज़ुल्मत-ए-पैकर का ज़िंदानी नहीं
तंग ऐसा हल्क़ा-ए-अफ़कार-ए-इंसानी नहीं
ज़िंदगानी थी तिरी महताब से ताबिंदा-तर
ख़ूब-तर था सुब्ह के तारे से भी तेरा सफ़र
मिस्ल-ए-ऐवान-ए-सहर मरक़द फ़रोज़ाँ हो तिरा
नूर से मामूर ये ख़ाकी शबिस्ताँ हो तिरा
आसमाँ तेरी लहद पर शबनम-अफ़्शानी करे
सब्ज़ा-ए-नौ-रस्ता इस घर की निगहबानी करे
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