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हिण्डोला

MORE BYफ़िराक़ गोरखपुरी

    दयार-ए-हिन्द था गहवारा याद है हमदम

    बहुत ज़माना हुआ किस के किस के बचपन का

    इसी ज़मीन पे खेला है 'राम' का बचपन

    इसी ज़मीन पे उन नन्हे नन्हे हाथों ने

    किसी समय में धनुष-बान को सँभाला था

    इसी दयार ने देखी है 'कृष्ण' की लीला

    यहीं घरोंदों में सीता सुलोचना राधा

    किसी ज़माने में गुड़ियों से खेलती होंगी

    यही ज़मीं यही दरिया पहाड़ जंगल बाग़

    यही हवाएँ यही सुब्ह-ओ-शाम सूरज चाँद

    यही घटाएँ यही बर्क़-ओ-र'अद क़ौस-ए-क़ुज़ह

    यहीं के गीत रिवायात मौसमों के जुलूस

    हुआ ज़माना कि 'सिद्धार्थ' के थे गहवारे

    इन्ही नज़ारों में बचपन कटा था 'विक्रम' का

    सुना है 'भर्तृहरि' भी इन्हीं से खेला था

    'भरत' 'अगस्त्य' 'कपिल' 'व्यास' 'पाशी' 'कौटिल्य'

    'जनक' 'वशिष्ठ' 'मनु' 'वाल्मीकि' 'विश्वामित्र'

    'कणाद' 'गौतम' 'रामानुज' 'कुमारिल-भट्ट'

    मोहनजोडारो हड़प्पा के और अजंता के

    बनाने वाले यहीं बल्लमों से खेले थे

    इसी हिंडोले में 'भवभूति' 'कालीदास' कभी

    हुमक हुमक के जो तुतला के गुनगुनाए थे

    सरस्वती ने ज़बानों को उन की चूमा था

    यहीं के चाँद सूरज खिलौने थे उन के

    इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन पला था 'ख़ुसरव' का

    इसी ज़मीं से उठे 'तानसेन' और 'अकबर'

    'रहीम' 'नानक' 'चैतन्य' और 'चिश्ती' ने

    इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन के दिन गुज़ारे थे

    इसी ज़मीं पे कभी शाहज़ादा-ए-'ख़ुर्रम'

    ज़रा सी दिल-शिकनी पर जो रो दिया होगा

    भर आया था दिल-ए-नाज़ुक तो क्या अजब इस में

    इन आँसुओं में झलक ताज की भी देखी हो

    'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' 'रज़िया' ने

    यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले

    इसी फ़ज़ा में बढ़ाई थी पेंग बचपन की

    इन्ही नज़ारों में सावन के गीत गाए थे

    इसी ज़मीन पे घुटनों के बल चले होंगे

    'मलिक-मोहम्मद' 'रसखान' और 'तुलसी-दास'

    इन्हीं फ़ज़ाओं में गूँजी थी तोतली बोली

    'कबीर-दास' 'टुकाराम' 'सूर' 'मीरा' की

    इसी हिंडोले में 'विद्यापति' का कंठ खुला

    इसी ज़मीन के थे लाल 'मीर' 'ग़ालिब' भी

    ठुमक ठुमक के चले थे घरों के आँगन में

    'अनीस' 'हाली' 'इक़बाल' और 'वारिस-शाह'

    यहीं की ख़ाक से उभरे थे 'प्रेमचंद' 'टैगोर'

    यहीं से उठ्ठे थे तहज़ीब-ए-हिन्द के मेमार

    इसी ज़मीन ने देखा था बाल-पन इन का

    यहीं दिखाई थीं इन सब ने बाल-लीलाएँ

    यहीं हर एक के बचपन ने तर्बियत पाई

    यहीं हर एक के जीवन का बालकांड खुला

    यहीं से उठते बगूलों के साथ दौड़े हैं

    यहीं की मस्त घटाओं के साथ झूमे हैं

    यहीं की मध-भरी बरसात में नहाए हैं

    लिपट के कीचड़ पानी से बचपने उन के

    इसी ज़मीन से उठ्ठे वो देश के सावंत

    उड़ा दिया था जिन्हें कंपनी ने तोपों से

    इसी ज़मीन से उठी हैं अन-गिनत नस्लें

    पले हैं हिन्द हिंडोले में अन-गिनत बच्चे

    मुझ ऐसे कितने ही गुमनाम बच्चे खेले हैं

    इसी ज़मीं से इसी में सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए

    ज़मीन-ए-हिन्द अब आराम-गाह है उन की

    इस अर्ज़-ए-पाक से उट्ठीं बहुत सी तहज़ीबें

    यहीं तुलू हुईं और यहीं ग़ुरूब हुईं

    इसी ज़मीन से उभरे कई उलूम-ओ-फ़ुनून

    फ़राज़-ए-कोह-ए-हिमाला ये दौर-ए-गंग-ओ-जमन

    और इन की गोद में पर्वर्दा कारवानों ने

    यहीं रुमूज़-ए-ख़िराम-ए-सुकूँ-नुमा सीखे

    नसीम-ए-सुब्ह-ए-तमद्दुन ने भैरवीं छेड़ी

    यहीं वतन के तरानों की वो पवें फूटें

    वो बे-क़रार सुकूँ-ज़ा तरन्नुम-ए-सहरी

    वो कपकपाते हुए सोज़-ओ-साज़ के शोले

    इन्ही फ़ज़ाओं में अंगड़ाइयाँ जो ले के उठे

    लवों से जिन के चराग़ाँ हुई थी बज़्म-ए-हयात

    जिन्हों ने हिन्द की तहज़ीब को ज़माना हुआ

    बहुत से ज़ावियों से आईना दिखाया था

    इसी ज़मीं पे ढली है मिरी हयात की शाम

    इसी ज़मीन पे वो सुब्ह मुस्कुराई है

    तमाम शोला शबनम मिरी हयात की सुब्ह

    सुनाऊँ आज कहानी मैं अपने बचपन की

    दिल-ओ-दिमाग़ की कलियाँ अभी चटकी थीं

    हमेशा खेलता रहता था भाई बहनों में

    हमारे साथ मोहल्ले की लड़कियाँ लड़के

    मचाए रखते थे बालक उधम हर एक घड़ी

    लहू तरंग उछल-फाँद का ये आलम था

    मोहल्ला सर पे उठाए फिरे जिधर गुज़रे

    हमारे चहचहे और शोर गूँजते रहते

    चहार-सम्त मोहल्ले के गोशे गोशे में

    फ़ज़ा में आज भी ला-रैब गूँजते होंगे

    अगरचे दूसरे बच्चों की तरह था मैं भी

    ब-ज़ाहिर औरों के बचपन सा था मिरा बचपन

    ये सब सही मिरे बचपन की शख़्सियत भी थी एक

    वो शख़्सियत कि बहुत शोख़ जिस के थे ख़द-ओ-ख़ाल

    अदा अदा में कोई शान-ए-इन्फ़िरादी थी

    ग़रज़ कुछ और ही लक्षण थे मेरे बचपन के

    मुझे था छोटे बड़ों से बहुत शदीद लगाव

    हर एक पर मैं छिड़कता था अपनी नन्ही सी जाँ

    दिल उमडा आता था ऐसा कि जी ये चाहता था

    उठा के रख लूँ कलेजे में अपनी दुनिया को

    मुझे है याद अभी तक कि खेल-कूद में भी

    कुछ ऐसे वक़्फ़े पुर-असरार ही जाते थे

    कि जिन में सोचने लगता था कुछ मिरा बचपन

    कई मआनी-ए-बे-लफ़्ज़ छूने लगते थे

    बुतून-ए-ग़ैब से मेरे शुऊर-ए-असग़र को

    हर एक मंज़र-ए-मानूस घर का हर गोशा

    किसी तरह की हो घर में सजी हुई हर चीज़

    मिरे मोहल्ले की गलियाँ मकाँ दर-ओ-दीवार

    चबूतरे कुएँ कुछ पेड़ झाड़ियाँ बेलें

    वो फेरी वाले कई उन के भाँत भाँत के बोल

    वो जाने बूझे मनाज़िर वो आसमाँ ज़मीं

    बदलते वक़्त का आईना गर्मी-ओ-ख़ुनकी

    ग़ुरूब-ए-महर में रंगों का जागता जादू

    शफ़क़ के शीश-महल में गुदाज़-ए-पिन्हाँ से

    जवाहरों की चटानें सी कुछ पिघलती हुईं

    शजर हजर की वो कुछ सोचती हुई दुनिया

    सुहानी रात की मानूस रमज़ियत का फ़ुसूँ

    अलस्सबाह उफ़ुक़ की वो थरथराती भवें

    किसी का झाँकना आहिस्ता फूटती पौ से

    वो दोपहर का समय दर्जा-ए-तपिश का चढ़ाव

    थकी थकी सी फ़ज़ा में वो ज़िंदगी का उतार

    हुआ की बंसियाँ बंसवाड़ियों में बजती हुईं

    वो दिन के बढ़ते हुए साए सह-पहर का सुकूँ

    सुकूत शाम का जब दोनों वक़्त मिलते हैं

    ग़रज़ झलकते हुए सरसरी मनाज़िर पर

    मुझे गुमान परिस्तानियत का होता था

    हर एक चीज़ की वो ख़्वाब-नाक अस्लिय्यत

    मिरे शुऊर की चिलमन से झाँकता था कोई

    लिए रुबूबियत-ए-काएनात का एहसास

    हर एक जल्वे में ग़ैब शुहूद का वो मिलाप

    हर इक नज़ारा इक आईना-ख़ाना-ए-हैरत

    हर एक मंज़र-ए-मानूस एक हैरत-ज़ार

    कहीं रहूँ कहीं खेलों कहीं पढ़ूँ लिखूँ

    मिरे शुऊर पे मंडलाते थे मनाज़िर-ए-दहर

    मैं अक्सर उन के तसव्वुर में डूब जाता था

    वफ़ूर-ए-जज़्बा से हो जाती थी मिज़ा पुर-नम

    मुझे यक़ीन है इन उन्सुरी मनाज़िर से

    कि आम बच्चों से लेता था मैं ज़ियादा असर

    किसी समय मिरी तिफ़्ली रही बे-परवा

    छू सकी मिरी तिफ़्ली को ग़फ़लत-ए-तिफ़्ली

    ये खेल-कूद के लम्हों में होता था एहसास

    दुआएँ देता हो जैसे मुझे सुकूत-ए-दवाम

    कि जैसे हाथ अबद रख दे दोश-ए-तिफ़्ली पर

    हर एक लम्हा के रख़नों से झाँकती सदियाँ

    कहानियाँ जो सुनूँ उन में डूब जाता था

    कि आदमी के लिए आदमी की जग-बीती

    से बढ़ के कौन सी शय और हो ही सकती है

    इन्ही फ़सानों में पिन्हाँ थे ज़िंदगी के रुमूज़

    इन्ही फ़सानों में खुलते थे राज़-हा-ए-हयात

    उन्हें फ़सानों में मिलती थीं ज़ीस्त की क़द्रें

    रुमूज़-ए-बेश-बहा ठेठ आदमियत के

    कहानियाँ थीं कि सद-दर्स-गाह-ए-रिक़्क़त-ए-क़ल्ब

    हर इक कहानी में शाइस्तगी-ए-ग़म का सबक़

    वो उंसुर आँसुओं का दास्तान-ए-इंसाँ में

    वो नल-दमन की कथा सरगुज़श्त-ए-सावित्री

    'शकुन्तला' की कहानी 'भरत' की क़ुर्बानी

    वो मर्ग-ए-भीष्म-पितामह वो सेज तीरों की

    वो पांचों पांडव की स्वर्ग-यात्रा की कथा

    वतन से रुख़्सत-ए-'सिद्धार्थ' 'राम' का बन-बास

    वफ़ा के ब'अद भी 'सीता' की वो जिला-वतनी

    वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए

    बला की क़ैद से 'बसदेव' का निकल जाना

    वो अंधकार वो बारिश, बढ़ी हुई जमुना

    ग़म-ए-आफ़रीन कहानी वो 'हीर' 'राँझा' की

    शुऊर-ए-हिन्द के बचपन की यादगार-ए-अज़ीम

    कि ऐसे वैसे तख़य्युल की साँस उखड़ जाए

    कई मुहय्युर-ए-इदराक देव-मालाएँ

    हितोपदेश के क़िस्से कथा सरत-सागर

    करोड़ों सीनों में वो गूँजता हुआ आल्हा

    मैं पूछता हूँ किसी और मलक वालों से

    कहानियों की ये दौलत ये बे-बहा दौलत

    फ़साने देख लो इन के नज़र भी आती है

    मैं पूछता हूँ कि गहवारे और क़ौमों के

    बसे हुए हैं कहीं ऐसी दास्तानों से

    कहानियाँ जो मैं सुनता था अपने बचपन में

    मिरे लिए वो थीं महज़ बाइस-ए-तफ़रीह

    फ़सानों से मिरे बचपन ने सोचना सीखा

    फ़सानों से मुझे संजीदगी के दर्स मिले

    फ़सानों में नज़र आती थी मुझ को ये दुनिया

    ग़म ख़ुशी में रची प्यार में बसाई हुई

    फ़सानों से मिरे दिल ने घुलावटें पाईं

    यही नहीं कि मशाहीर ही के अफ़्साने

    ज़रा सी उम्र में करते हों मुझ को मुतअस्सिर

    मोहल्ले टोले के गुमनाम आदमिय्यों के

    कुछ ऐसे सुनने में आते थे वाक़िआत-ए-हयात

    जों यूँ तो होते थे फ़र्सूदा और मामूली

    मगर थे आईने इख़्लास और शराफ़त के

    ये चंद आई गई बातें ऐसी बातें थीं

    कि जिन की ओट चमकता था दर्द-ए-इंसानी

    ये वारदात नहीं रज़्मिय्ये हयात के थे

    ग़रज़ कि ये हैं मिरे बचपने की तस्वीरें

    नदीम और भी कुछ ख़त्त-ओ-ख़ाल हैं उन के

    ये मेरी माँ का है कहना कि जब मैं बच्चा था

    मैं ऐसे आदमी की गोद में जाता था

    जो बद-क़िमार हो एेबी हो या हो बद-सूरत

    मुझे भी याद है नौ दस बरस ही का मैं था

    तो मुझ पे करता था जादू सा हुस्न-ए-इंसानी

    कुछ ऐसा होता था महसूस जब मैं देखता था

    शगुफ़्ता रंग तर-ओ-ताज़ा रूप वालों का

    कि उन की आँच मिरी हड्डियाँ गला देगी

    इक आज़माइश-ए-जाँ थी कि था शुऊर-ए-जमाल

    और उस की नश्तरिय्यत उस की उस्तुखाँ-सोज़ी

    ग़म नशात लगावट मोहब्बत नफ़रत

    इक इंतिशार-ए-सकूँ इज़्तिराब प्यार इताब

    वो बे-पनाह ज़की-उल-हिसी वो हिल्म ग़ुरूर

    कभी कभी वो भरे घर में हिस्स-ए-तंहाई

    वो वहशतें मिरी माहौल-ए-ख़ुश-गवार में भी

    मिरी सरिश्त में ज़िद्दैन के कई जोड़े

    शुरूअ ही से थे मौजूद आब-ओ-ताब के साथ

    मिरे मिज़ाज में पिन्हाँ थी एक जदलिय्यत

    रगों में छूटते रहते थे बे-शुमार अनार

    नदीम ये हैं मिरे बाल-पन के कुछ आसार

    वफ़ूर शिद्दत-ए-जज़्बात का ये आलम था

    कि कौंदे जस्त करें दिल के आबगीने में

    वो बचपना जिसे बर्दाश्त अपनी मुश्किल हो

    वो बचपना जो ख़ुद अपनी ही तेवरियाँ सी चढ़ाए

    नदीम ज़िक्र-ए-जवानी से काँप जाता हूँ

    जवानी आई दबे पाँव और यूँ आई

    कि उस के आते ही बिगड़ा बना-बनाया खेल

    वो ख़्वाहिशात के जज़्बात के उमडते हुए

    वो होंकते हुए बे-नाम आग के तूफ़ाँ

    वो फूटता हुआ ज्वाला-मुखी जवानी का

    रगों में उठती हुई आँधियों के वो झटके

    कि जो तवाज़ुन-ए-हस्ती झिंझोड़ के रख दें

    वो ज़लज़ले कि पहाड़ों के पैर उखड़ जाएँ

    बुलूग़ियत की वो टीसें वो कर्ब-ए-नश्व-ओ-नुमा

    और ऐसे में मुझे ब्याहा गया भला किस से

    जो हो सकती थी हरगिज़ मिरी शरीक-ए-हयात

    हम एक दूसरे के वास्ते बने ही थे

    सियाह हो गई दुनिया मिरी निगाहों में

    वो जिस को कहते हैं शादी-ए-ख़ाना-आबादी

    मिरे लिए वो बनी बेवगी जवानी की

    लुटा सुहाग मिरी ज़िंदगी का मांडो में

    नदीम खा गई मुझ को नज़र जवानी की

    बला-ए-जान मुझे हो गया शुऊर-ए-जमाल

    तलाश-ए-शोला-ए-उलफ़त से ये हुआ हासिल

    कि नफ़रतों का अगन-कुंड बन गई हस्ती

    वो हल्क़ सीना रग रग में बे-पनाह चुभा

    नदीम जैसे निगल ली हो मैं ने नाग-फनी

    ज़ इश्क़-ज़ादम इशक़म कमुश्त ज़ार-ओ-दरेग़

    ख़बर बुर्द ब-रुस्तम कसे कि सोहरा-बम

    पूछ आलम-ए-काम-ओ-दहन नदीम मिरे

    समर हयात का जब राख बिन गया मुँह में

    मैं चलती-फिरती चिता बन गया जवानी की

    मैं कांधा देता रहा अपने जीते मुर्दे को

    ये सोचता था कि अब क्या करूँ कहाँ जाऊँ

    बहुत से और मसाइब भी मुझ पे टूट पड़े

    मैं ढूँढने लगा हर सम्त सच्ची झूटी पनाह

    तलाश-ए-हुस्न में शेर-ओ-अदब में दोस्ती में

    रुँधी सदा से मोहब्बत की भीक माँगी है

    नए सिरे से समझना पड़ा है दुनिया को

    बड़े जतन से सँभाला है ख़ुद को मैं ने नदीम

    मुझे सँभलने में तो चालीस साल गुज़रे हैं

    मेरी हयात तो विश-पान की कथा है नदीम

    मैं ज़हर पी के ज़माने को दे सका अमृत

    पूछ मैं ने जो ज़हराबा-ए-हयात पिया

    मगर हूँ दिल से मैं इस के लिए सिपास-गुज़ार

    लरज़ते हाथों से दामन ख़ुलूस का छटा

    बचा के रक्खी थी मैं ने अमानत-ए-तिफ़्ली

    इसे छीन सकी मुझ से दस्त-बुर्द-ए-शबाब

    ब-क़ौल शाएर-ए-मुल्क-ए-फ़रंग हर बच्चा

    ख़ुद अपने अहद-ए-जवानी का बाप होता है

    ये कम नहीं है कि तिफ़्ली-ए-रफ़्ता छोड़ गई

    दिल-ए-हज़ीं में कई छोटे छोटे नक़्श-ए-क़दम

    मिरी अना की रगों में पड़े हुए हैं अभी

    जाने कितने बहुत नर्म उँगलियों के निशाँ

    हनूज़ वक़्त के बे-दर्द हाथ कर सके

    हयात-ए-रफ़्ता की ज़िंदा निशानियों को फ़ना

    ज़माना छीन सकेगा मेरी फ़ितरत से

    मिरी सफ़ा मिरे तहतुश-शुऊर की इस्मत

    तख़य्युलात की दोशीज़गी का रद्द-ए-अमल

    जवान हो के भी बे-लौस तिफ़ल-वश जज़्बात

    स्याना होने पे भी ये जिबिल्लतें मेरी

    ये सरख़ुशी ग़म बे-रिया ये क़ल्ब-गुदाज़

    बग़ैर बैर के अन-बन ग़रज़ से पाक तपाक

    ग़रज़ से पाक ये आँसू ग़रज़ से पाक हँसी

    ये दश्त-ए-दहर में हमदर्दियों का सरचश्मा

    क़ुबूलियत का ये जज़्बा ये काएनात हयात

    इस अर्ज़-ए-पाक पर ईमान ये हम-आहंगी

    हर आदमी से हर इक ख़्वाब ज़ीस्त से ये लगाव

    ये माँ की गोद का एहसास सब मनाज़िर में

    क़रीब दूर ज़मीं में ये बू-ए-वतनिय्यत

    निज़ाम-ए-शमस-ओ-क़मर में पयाम-ए-हिफ़्ज़-ए-हयात

    ब-चश्म-ए-शाम-ओ-सहर मामता की शबनम सी

    ये साज़ दिल में मिरे नग़्मा-ए-अनलकौनैन

    हर इज़्तिराब में रूह-ए-सुकून-ए-बे-पायाँ

    ज़माना-ए-गुज़राँ में दवाम का सरगम

    ये बज़्म-ए-जश्न-ए-हयात-ओ-ममात सजती हुई

    किसी की याद की शहनाइयाँ सी बजती हुई

    ये रमज़ीत के अनासिर शुऊर-ए-पुख़्ता में

    फ़लक पे वज्द में लाती है जो फ़रिश्तों को

    वो शाएरी भी बुलूग़-ए-मिज़ाज-ए-तिफ़्ली है

    ये नश्तरिय्यत-ए-हस्ती ये इस की शेरियत

    ये पत्ती पत्ती पे गुलज़ार-ए-ज़िंदगी के किसी

    लतीफ़ नूर की परछाइयाँ सी पड़ती हुई

    बहम ये हैरत मानूसियत की सरगोशी

    बशर की ज़ात कि महर-ए-उलूहियत ब-जबीं

    अबद के दिल में जड़ें मारता हुआ सब्ज़ा

    ग़म-ए-जहाँ मुझे आँखें दिखा नहीं सकता

    कि आँखें देखे हुए हूँ मैं ने अपने बचपन की

    मिरे लहू में अभी तक सुनाई देती हैं

    सुकूत-ए-हुज़्न में भी घुंघरुओं की झंकारें

    ये और बात कि मैं इस पे कान दे सकूँ

    इसी वदीअत-ए-तिफ़्ली का अब सहारा है

    यही हैं मर्हम-ए-काफ़ूर दिल के ज़ख़्मों पर

    उन्ही को रखना है महफ़ूज़ ता-दम-ए-आख़िर

    ज़मीन-ए-हिन्द है गहवारा आज भी हमदम

    अगर हिसाब करें दस करोड़ बच्चों का

    ये बच्चे हिन्द की सब से बड़ी अमानत हैं

    हर एक बच्चे में हैं सद-जहान-ए-इम्कानात

    मगर वतन का हल-ओ-अक़्द जिन के हाथ में है

    निज़ाम-ए-ज़िंदगी-ए-हिंद जिन के बस में है

    रवय्या देख के उन का ये कहना पड़ता है

    किसे पड़ी है कि समझे वो इस अमानत को

    किसे पड़ी है कि बच्चों की ज़िंदगी को बचाए

    ख़राब होने से टलने से सूख जाने से

    बचाए कौन इन आज़ुर्दा होनहारों को

    वो ज़िंदगी जिसे ये दे रहे हैं भारत को

    करोड़ों बच्चों के मिटने का इक अलमिय्या है

    चुराए जाते हैं बच्चे अभी घरों से यहाँ

    कि जिस्म तोड़ दिए जाएँ उन के ताकि मिले

    चुराने वालों को ख़ैरात माघ-मेले की

    जो इस अज़ाब से बच जाएँ तो गले पड़ जाएँ

    वो लानतें कि हमारे करोड़ों बच्चों की

    नदीम ख़ैर से मिट्टी ख़राब हो जाए

    वो मुफ़्लिसी कि ख़ुशी छीन ले वो बे-बरगी

    उदासियों से भरी ज़िंदगी की बे-रंगी

    वो यासियात जिस को छुए शुआ-ए-उमीद

    वो आँखें देखती हैं हर तरफ़ जो बे-नूरी

    वो टुकटुकी कि जो पथरा के रह गई हो नदीम

    वो बे-दिली की हँसी छीन ले जो होंटों से

    वो दुख कि जिस से सितारों की आँख भर आए

    वो गंदगी वो कसाफ़त मरज़-ज़दा पैकर

    वो बच्चे छिन गए हों जिन से बचपने उन के

    हमीं ने घोंट दिया जिस के बचपने का गला

    जो खाते-पीते घरों के हैं बच्चे उन को भी क्या

    समाज फूलने-फलने के दे सका साधन

    वो साँस लेते हैं तहज़ीब-कुश फ़ज़ाओं में

    हम उन को देते हैं बे-जान और ग़लत तालीम

    मिलेगा इल्म-ए-जिहालत-नुमा से क्या उन को

    निकल के मदरसों और यूनीवर्सिटिय्यों से

    ये बद-नसीब घर के घाट के होंगे

    मैं पूछता हूँ ये तालीम है कि मक्कारी

    करोड़ों ज़िंदगियों से ये बे-पनाह दग़ा

    निसाब ऐसा कि मेहनत करें अगर इस पर

    बजाए इल्म जहालत का इकतिसाब करें

    ये उल्टा दर्स-ए-अदब ये सड़ी हुई तालीम

    दिमाग़ की हो ग़िज़ा या ग़िज़ा-ए-जिस्मानी

    हर इक तरह की ग़िज़ा में यहाँ मिलावट है

    वो जिस को बच्चों की तालीम कह के देते हैं

    वो दर्स उल्टी छुरी है गले पे बचपन के

    ज़मीन-ए-हिन्द हिण्डोला नहीं है बच्चों का

    करोड़ों बच्चों का ये देस अब जनाज़ा है

    हम इंक़लाब के ख़तरों से ख़ूब वाक़िफ़ हैं

    कुछ और रोज़ यही रह गए जो लैल-ओ-नहार

    तो मोल लेना पड़ेगा हमें ये ख़तरा भी

    कि बच्चे क़ौम की सब से बड़ी अमानत हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : Gul-e-Naghma (पृष्ठ 249)
    • रचनाकार :  Firaq Gorakhpuri
    • प्रकाशन : Maktaba Farogh-e-urdu Matia Mahal Jama Masjid Delhi (2006)
    • संस्करण : 2006

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