ऐ इश्क़ कहीं ले चल
ऐ इश्क़ कहीं ले चल इस पाप की बस्ती से
नफ़रत-गह-ए-आलम से ल'अनत-गह-ए-हस्ती से
इन नफ़्स-परस्तों से इस नफ़्स-परस्ती से
दूर और कहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
हम प्रेम पुजारी हैं तो प्रेम कन्हैय्या है
तो प्रेम कन्हैय्या है ये प्रेम की नय्या है
ये प्रेम की नय्या है तू इस का खेवय्या है
कुछ फ़िक्र नहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
बे-रहम ज़माने को अब छोड़ रहे हैं हम
बेदर्द अज़ीज़ों से मुँह मोड़ रहे हैं हम
जो आस कि थी वो भी अब तोड़ रहे हैं हम
बस ताब नहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
ये जब्र-कदा आज़ाद अफ़्कार का दुश्मन है
अरमानों का क़ातिल है उम्मीदों का रहज़न है
जज़्बात का मक़्तल है जज़्बात का मदफ़न है
चल याँ से कहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
आपस में छल और धोके संसार की रीतें हैं
इस पाप की नगरी में उजड़ी हुई परतें हैं
याँ न्याय की हारें हैं अन्याय की जीतें हैं
सुख चैन नहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
इक मज़बह-ए-जज़्बात-ओ-अफ़्कार है ये दुनिया
इक मस्कन-ए-अशरार-ओ-आज़ार है ये दुनिया
इक मक़्तल-ए-अहरार-ओ-अबरार है ये दुनिया
दूर इस से कहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
ये दर्द भरी दुनिया बस्ती है गुनाहों की
दिल-चाक उमीदों की सफ़्फ़ाक निगाहों की
ज़ुल्मों की जफ़ाओं की आहों की कराहों की
हैं ग़म से हज़ीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
आँखों में समाई है इक ख़्वाब-नुमा दुनिया
तारों की तरह रौशन महताब-नुमा दिया
जन्नत की तरह रंगीं शादाब-नुमा दुनिया
लिल्लाह वहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
वो तीर हो सागर की रुत छाई हो फागुन की
फूलों से महकती हो पुर्वाई घने बन की
या आठ पहर जिस में झड़ बदली हो सावन की
जी बस में नहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
क़ुदरत हो हिमायत पर हमदर्द हो क़िस्मत भी
'सलमा' भी हो पहलू में 'सलमा' की मोहब्बत भी
हर शय से फ़राग़त हो और तेरी इनायत भी
ऐ तिफ़्ल-ए-हसीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
ऐ इश्क़ हमें ले चल इक नूर की वादी में
इक ख़्वाब की दुनिया में इक तूर की वादी में
हूरों के ख़यालात-ए-मसरूर की वादी में
ता ख़ुल्द-ए-बरीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
संसार के उस पार इक इस तरह की बस्ती हो
जो सदियों से इंसाँ की सूरत को तरसती हो
और जिस के नज़ारों पर तन्हाई बरसती हो
यूँ हो तो वहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
मग़रिब की हवाओं से आवाज़ सी आती है
और हम को समुंदर के उस पार बुलाती है
शायद कोई तन्हाई का देस बताती है
चल इस के क़रीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
इक ऐसी फ़ज़ा जिस तक ग़म की न रसाई हो
दुनिया की हवा जिस में सदियों से न आई हो
ऐ इश्क़ जहाँ तू हो और तेरी ख़ुदाई हो
ऐ इश्क़ वहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
एक ऐसी जगह जिस में इंसान न बस्ते हों
ये मक्र ओ जफ़ा-पेशा हैवान न बस्ते हों
इंसाँ की क़बा में ये शैतान न बस्ते हों
तो ख़ौफ़ नहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
बरसात की मतवाली घनघोर घटाओं में
कोहसार के दामन की मस्ताना हवाओं में
या चाँदनी रातों की शफ़्फ़ाफ़ फ़ज़ाओं में
ऐ ज़ोहरा-जबीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
इन चाँद सितारों के बिखरे हुए शहरों में
इन नूर की किरनों की ठहरी हुई नहरों में
ठहरी हुई नहरों में सोई हुई लहरों में
ऐ ख़िज़्र-ए-हसीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
इक ऐसी बहिश्त आईं वादी में पहुँच जाएँ
जिस में कभी दुनिया के ग़म दिल को न तड़पाएँ
और जिस की बहारों में जीने के मज़े आएँ
ले चल तू वहीं ले चल!
ऐ इश्क़ कहीं ले चल!
- पुस्तक : kulliyat-e-akhtar shirani (पृष्ठ 32)
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