अहमद महफ़ूज़
ग़ज़ल 52
अशआर 41
उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
कि मेरा सारा असासा इसी मकान में था
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मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ
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यूँ तो बहुत है मुश्किल बंद-ए-क़बा का खुलना
जो खुल गया तो फिर ये उक़्दा खुला रहेगा
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