कैफ़ी विजदानी
ग़ज़ल 8
अशआर 10
तू इक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता
मैं मंज़िलें तिरी दहलीज़ से मिला देता
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बचा लिया तिरी ख़ुश्बू के फ़र्क़ ने वर्ना
मैं तेरे वहम में तुझ से लिपटने वाला था
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मेरे रस्ते में जो रौनक़ थी मेरे फ़न की थी
मेरे घर में जो अंधेरा था मेरा अपना था
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