कौसर मज़हरी
लेख 1
अशआर 14
जाने किस ख़्वाब-ए-परेशाँ का है चक्कर सारा
बिखरा बिखरा हुआ रहता है मिरा घर सारा
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नज़र झुक रही है ख़मोशी है लब पर
हया है अदा है कि अन-बन है क्या है
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रब्त है उस को ज़माने से बहुत सुनता हूँ
कोई तरकीब करूँ मैं भी ज़माना हो जाऊँ
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बोझ दिल पर है नदामत का तो ऐसा कर लो
मेरे सीने से किसी और बहाने लग जाओ
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कौन सी दुनिया में हूँ किस की निगहबानी में हूँ
ज़िंदगी है सख़्त मुश्किल फिर भी आसानी में हूँ
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