शमीम हनफ़ी के लेख
मीर और ग़ालिब
मीर और ग़ालिब का नाम एक साथ ज़हन में जो आता है तो सिर्फ़ इसलिए नहीं कि दोनों ने अपने इज़हार के लिए शे’र की एक ही सिन्फ़ को अव्वलियत दी या ये कि दोनों का तअ’ल्लुक़ अदब और तहज़ीब की उस रिवायत से था जो ज़माने के फ़र्क़ के साथ हमारी इज्तिमाई ज़िंदगी के एक ही
अवामी अदब के मसायल और उर्दू की अदबी रिवायत
अदब की अ’वामी सिन्फ़ें और रवायतें उर्दू मुआ’शरे में अपने लिए कोई मुस्तक़िल जगह क्यों नहीं बना सकीं? इस सवाल का जवाब बहुत वाज़ेह है और उतना ही अफ़सोस-नाक भी। उर्दू की अशराफ़ियत (Sophistication) और मदनियत (Urbanity) ने बर्र-ए-सग़ीर के मजमूई’’ कल्चर में जिन
अदब में इंसान दोस्ती का तसव्वुर एक सियाह हाशिए के साथ
बीसवीं सदी तारीख़ की सबसे ज़ियादा पुर-तशद्दुद सदी थी। इक्कीसवीं सदी के शानों पर इसी रिवायत का बोझ है। जिस्मानी तशद्दुद से क़त’-ए-नज़र, बीसवीं सदी ने इंसान को तशद्दुद के नित-नए रास्तों पर लगा दिया। तहज़ीबी, लिसानी, सियासी, जज़्बाती तशद्दुद के कैसे-कैसे
मंटो और फ़ह्हाशी
(1) मंटो एक वाक़िए’ का उ’नवान है। हमारे अफ़सानवी अदब की तारीख़ के शायद सबसे अहम और बा-मअ’नी और मुकम्मल वाक़िए’ का। इस वाक़िए’ का आग़ाज़ उसकी पहली कहानी के साथ हुआ था। अब अगर आप किसी अदबी मुअर्रिख़ से रुजू’ करें तो वो बताएगा कि इस वाक़िए’ का नुक़्ता-ए-इख़्तिताम
तक़सीम का अदब और तशद्दुद की शेरियात
ख़वातीन-ओ-हज़रात आज की गुफ़्तगू का मौज़ू’ है तक़्सीम का अदब और इससे मुरत्तब होने वाली शे’रियात, जिसका शनास-नामा फ़िर्का-वाराना तशद्दुद के तजरबे से मुंसलिक है। तशद्दुद हमारे ज़माने का ग़ालिब उस्लूब है। बीसवीं सदी को इंसानी तारीख़ की सबसे ज़ियादा तशद्दुद-आमेज़
अकबर की मानविय्यत
फ़िराक़ साहब ने अकबर को एशिया के बड़े शा’इरों में शुमार किया है। बहुतों को ये राय मुबालग़ा-आमेज़ महसूस होगी कि एशिया क्या, उर्दू के बड़े शा’इरों में भी अकबर का नाम आ’म तौर पर नहीं लिया जाता। अकबर को शाइ’र की हैसियत से, बहर-हाल जो भी जगह दी जाए कम से कम इस