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सिराज लखनवी

1894 - 1968 | लखनऊ, भारत

सिराज लखनवी के शेर

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आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम

उस को भी खो दिया जिसे पाया था ख़्वाब में

कहाँ हैं आज वो शम-ए-वतन के परवाने

बने हैं आज हक़ीक़त उन्हीं के अफ़्साने

हाँ तुम को भूल जाने की कोशिश करेंगे हम

तुम से भी हो सके तो आना ख़याल में

आप के पाँव के नीचे दिल है

इक ज़रा आप को ज़हमत होगी

ये आधी रात ये काफ़िर अंधेरा

सोता हूँ जागा जा रहा है

इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम

उट्ठे तिरी महफ़िल से तो जाएँगे किधर हम

इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ

आप का दिल जो गवाही दे वही कह लीजिए

आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और

हर हौसला-ए-दिल को मोहब्बत नहीं कहते

क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है

असीरो आओ ज़रा ज़िक्र-ए-आशियाँ हो जाए

इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी

बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं परवाने

नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे

कहाँ कहाँ किए सज्दे कहाँ क़याम किया

इस दिल में तो ख़िज़ाँ की हवा तक नहीं लगी

इस फूल को तबाह किया है बहार ने

दम घुटा जाता है मोहब्बत का

बंद ही बंद गुफ़्तुगू है अभी

तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम

कहाँ खो दिया तू ने क्या हो गए हम

दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा

जो अश्क आँख से टपके वो दास्ताँ हो जाए

आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को

हम दिल के डूबने पर आँसू बहा रहे हैं

कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है

ला अपना हाथ दे मिरे दस्त-ए-सवाल में

टकराऊँ क्यूँ ज़माने से क्या फ़ाएदा 'सिराज'

ख़ुद अपने रास्ते से हटा जा रहा हूँ मैं

हर नफ़्स उतनी ही लौ देगा 'सिराज'

जितनी जिस दिल में हरारत होगी

ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है

उजाले में बरसती है सियाही

आह ये आँसू प्यारे प्यारे

लिख दे हिसाब-ए-ग़म में हमारे

मोहतसिब की ख़ुशामद मय-कदे का तवाफ़

ख़ुदी में मस्त हूँ अपनी बहार में गुम हूँ

सज्दा-ए-इश्क़ पे तन्क़ीद कर वाइ'ज़

देख माथे पे अभी चाँद नुमायाँ होगा

रात भर शम्अ' जलाता हूँ बुझाता हूँ 'सिराज'

बैठे बैठे यही शग़्ल-ए-शब-ए-तन्हाई है

सोता रहा होंटों पे तबस्सुम का सवेरा

रह रह के जगाते रहे तक़दीर-ए-सहर हम

वो भीड़ है कि ढूँढना तेरा तो दरकिनार

ख़ुद खोया जा रहा हूँ हुजूम-ए-ख़याल में

ग़ुस्ल-ए-तौबा के लिए भी नहीं मिलती है शराब

अब हमें प्यास लगी है तो कोई जाम नहीं

कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है

भर भर के छलकते हैं अक्सर यही पैमाने

पी सको तो इधर आओ पोंछ दूँ आँसू

ये तुम ने सुन लिए इस दिल के सानेहात कहाँ

हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा

गोद में लाशा-ए-माज़ी को लिए बैठा हूँ

बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं

पड़ा है काम बदलते हुए ज़माने से

जान सी शय की मुझे इश्क़ में कुछ क़द्र नहीं

ज़िंदगी जैसे कहीं मैं ने पड़ी पाई है

जो अश्क सुर्ख़ है नामा-निगार है दिल का

सुकूत-ए-शब में लिखे जा रहे हैं अफ़्साने

अभी रक्खा रहने दो ताक़ पर यूँही आफ़्ताब का आइना

कि अभी तो मेरी निगाह में वही मेरा माह-ए-तमाम है

ज़र्ब-उल-मसल हैं अब मिरी मुश्किल-पसंदियाँ

सुलझा के हर गिरह को फिर उलझा रहा हूँ मैं

कैसे फाँदेगा बाग़ की दीवार

तू गिरफ़्तार-ए-रंग-ओ-बू है अभी

हर अश्क-ए-सुर्ख़ है दामान-ए-शब में आग का फूल

बग़ैर शम्अ के भी जल रहे हैं परवाने

हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को

आईना-ए-इदराक में भी तुम नहीं रहते

ज़रा देखो ये सरकश ज़र्रा-ए-ख़ाक

फ़लक का चाँद बनता जा रहा है

चराग़ सज्दा जला के देखो है बुत-कदा दफ़्न ज़ेर-ए-काबा

हुदूद-ए-इस्लाम ही के अंदर ये सरहद-ए-काफ़िरी मिलेगी

ख़बर रिहाई की मिल चुकी है चराग़ फूलों के जल रहे हैं

मगर बड़ी तेज़ रौशनी है क़फ़स का दर सूझता नहीं है

चमक शायद अभी गीती के ज़र्रों की नहीं देखी

सितारे मुस्कुराते क्यूँ हैं ज़ेब-ए-आसमाँ हो कर

ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम

पड़ा जो वक़्त तो अब कोई रू-शनास नहीं

चंद तिनकों की सलीक़े से अगर तरतीब हो

बिजलियों को भी तवाफ़-ए-आशियाँ करना पड़े

फिर भी पेशानी-ए-तूफ़ाँ पे शिकन बाक़ी है

डूबते वक़्त भी देखा किनारा हम ने

क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की

ये घर जो फिर से सँवर जाए आशियाँ हो जाए

ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं

का'बे ही की शाख़ें हैं बिखरे हुए बुत-ख़ाने

आँसू हैं कफ़न-पोश सितारे हैं कफ़न-रंग

लो चाक किए देते हैं दामान-ए-सहर हम

लहू में डूबी है तारीख़-ए-ख़िल्क़त-ए-इंसाँ

अभी ये नस्ल है शाइस्ता-ए-हयात कहाँ

एक एक से भीक आँसुओं की माँग रहा हूँ

किस ने मुझे झोंका है जहन्नम की फ़ज़ा में

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