यूसुफ़ ज़फ़र के शेर
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी
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आ मिरे चाँद रात सूनी है
बात बनती नहीं सितारों से
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हाए ये तवील ओ सर्द रातें
और एक हयात-ए-मुख़्तसर में
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साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
ज़िंदगी थी जो तिरे वस्ल का इम्काँ होता
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एक भी आफ़्ताब बन न सका
लाख टूटे हुए सितारों से
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थक के पत्थर की तरह बैठा हूँ रस्ते में 'ज़फ़र'
जाने कब उठ सकूँ क्या जानिए कब घर जाऊँ
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ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
अपने ही डंक से बिच्छू की तरह मर जाऊँ
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पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
पलकों पे अश्क बन के ठहर जाना चाहिए
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है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
तेरा ग़म भी है मुझे और ग़म-ए-तन्हाई भी
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आँखों में तिरे जल्वे लिए फिरते हैं हम लोग
हम लोग कि रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुए हैं
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दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
क़ुर्ब में भी वही उनवाँ है क़रीब आ जाओ
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बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
अहबाब परेशाँ हैं मिरे तर्ज़-ए-अमल से
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