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नज़्म
व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक (हम देखेंगे)
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
आवारा
हूक सी सीने में उठ्ठी चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
शेर
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था