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नज़्म
कभी कभी
तिरी नज़र की शुआ'ओं में खो भी सकती थी
अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम हो कर
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
मुझ से पहले
मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी