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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
पंद्रह अगस्त
यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात
सरों पे छाई थी सदियों से इक जो काली रात
जावेद अख़्तर
कहानी
क़ुर्रतुलऐन हैदर
नज़्म
अगस्त-1952
रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुए तो हैं
गुलशन में चाक चंद गरेबाँ हुए तो हैं