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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
किसी तन्नूर के हैज़म की ख़ाकिस्तर ही बनना था
उसे शोला-ज़दा बूदश का इक बिस्तर ही बनना था
जौन एलिया
ग़ज़ल
फ़ना निज़ामी कानपुरी
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नज़्म
उस्ताद-ए-मोहतरम को मेरा सलाम कहना
काँटे भी राह में हैं फूलों की अंजुमन भी
तुम फ़ख़्र-ए-क़ौम बनना और नाज़िश-ए-वतन भी
अहमद हातिब सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
रूह को उस की राह का पत्थर बनना ही मंज़ूर न था
बाज़ी हम ने ही जीती है अपनी इस क़ुर्बानी में
विलास पंडित मुसाफ़िर
ग़ज़ल
निगाहों को ख़िज़ाँ-ना-आश्ना बनना तो आ जाए
चमन जब तक चमन है जल्वा-सामानी नहीं जाती