aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "بنيان"
बयान मेरठी
1840 - 1900
लेखक
ज़हीन बीकानेरी
बयान यज़दानी
1850 - 1900
शायर
बयान अकबराबादी
सययद बुनियाद हूसैन ख़ान जाह
बुनयाद ज़हीन
एहसानुल्लाह ख़ाँ बयान
1727 - 1798
बुनियाद अंदेशा इस्लामी
संपादक
वाहिद किताब बुनियाद बेसत, तेहरान
पर्काशक
जॉन बन्यन
1628 - 1688
अंजुमन एआनत-ए-नज़र बंदान-ए-इसलाम, दिल्ली
सय्यद बुनियाद अली
सय्यद बुनियाद हुसैन जाह
इंतिशारात बुनियाद-ए-फ़रहंग, ईरान
लारेंस बिन्यन
“ऊँ” मैं मचल गई, बेगम जान ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगीं। अब भी जब कभी मैं उनका उस वक़्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वज़नी हो गए। ऊपर के होंट पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के पसीने की नन्ही-नन्ही बूंदें होंटों पर और नाक पर चमक रही थीं। उसके हाथ यख़ ठंडे थे। मगर नर्म जैसे उन पर खाल उतर गई हो। उन्होंने शाल उतार दी औ...
कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उसको ऐसा महसूस होता था कि उसका वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द जिसको वो बयान भी करना चाहता तो न कर सकता।बा'ज़ औक़ात बैठे बैठे वो एक दम चौंक पड़ता। धुन्दले धुन्दले ख़यालात जो आम हालतों में बेआवाज़ बुलबुलों की तरह पैदा हो कर मिट जाया करते हैं। मोमिन के दिमाग़ में बड़े शोर के साथ पैदा होते और शोर ही के साथ फटते थे। इसके इलावा उसके दिल-ओ-दिमाग़ के नर्म-ओ-नाज़ुक पर्दों पर हर वक़्त जैसे ख़ारदार पांव वाली च्यूंटियां सी रेंगती थीं।
मौसम बहुत वाहियात क़िस्म का था। सवा चार बज चुके थे। सूरज ग़ुरूब होने की तैयारियां कर रहा था लेकिन मौसम निहायत ज़लील था। पसीना था कि छूटा जा रहा था। ख़ुदा मालूम कहाँ से मसामों के ज़रिए इतना पानी निकल रहा था।सुरेंद्र ने कई मर्तबा ग़ौर किया था कि पानी उसने ज़्यादा से ज़्यादा चार घंटों में सिर्फ़ एक गिलास पिया होगा। पसीना बिला-मुबालग़ा चार गिलास निकला होगा। आख़िर ये कहाँ से आया!
शहनाज़ ने गुल से कहा,"किसी भले घर का मालूम होता है बेचारा।"
जिस रास्ते कान की लौंगें गई थीं उसी रास्ते फूल पत्ता और चाँदी की पाज़ेब भी चल दी और फिर हाथों की दो-दो चूड़ियाँ भी जो मँझले मामूँ ने रँडापा उतारने पर दी थीं। रूखी-सूखी ख़ुद खा कर आए दिन राहत के लिए पराठे तले जाते, कोफ़्ते, भुना पुलाव महकते। ख़ुद सूखा सा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे ख़िलातीं।“ज़माना बड़ा ख़राब है बेटी।” वो हमीदा को मुँह फैलाते देखकर कहा करतीं। और वो सोचा करती। “हम भूके रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी आपा सुब्ह-सवेरे उठकर जादू की मशीन की तरह जुट जाती है। निहार मुँह पानी का घूँट पी कर राहत के लिए पराठे तलती है। दूध औंटाती है ताकि मोटी सी मलाई पड़े। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन पराठों में भर दे। और क्यों न भरे। आख़िर को वो एक दिन उसका अपना हो जाएगा। जो कुछ कमाएगा उसकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौदे को कौन नहीं सींचता? फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ता’ना देने वालियों के मुँह पर कैसा जूता पड़ेगा और इस ख़याल ही से मेरी बी आपा के चेहरे पर सुहाग खिल उठा। कानों में शहनाइयाँ बजने लगतीं। और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाड़तीं। उनके कपड़ों को प्यार से तह करतीं। जैसे वो कुछ उनसे कहते हों । वो उनके बदबूदार चूहों जैसे सड़े हुए मौज़े धोतीं। बिसाँदी बनियान और नाक से लिथड़े हुए रूमाल साफ़ करतीं। उनके तेल में चहचहाते हुए तकिए के ग़िलाफ़ पर स्वीट ड्रीम काढ़तीं। पर मुआ’मला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुब्ह अंडे पराठे डट कर खाता। और शाम को आकर कोफ़्ते खा कर सो जाता। और बी अम्माँ की मुँह-बोली बहन हाकिमाना अंदाज़ में खुसर-फुसर करतीं।
इश्क़ बहुत सारी ख़्वाहिशों का ख़ूबसूरत गुलदस्ता है। दीदार, तमन्ना का ऐसा ही एक हसीन फूल है जिसकी ख़ुश्बू आशिक़ को बेचैन किए रखती है। महबूब को देख लेने भर का असर आशिक़ के दिल पर क्या होता है यह शायर से बेहतर भला कौन जान सकता है। आँखें खिड़की, दरवाज़े और रास्ते से हटने का नाम न लें ऐसी शदीद ख़्वाहिश होती है दीदार की। तो आइये इसी दीदार शायरी से कुछ चुनिंदा अशआर की झलक देखते हैः
महबूब के लबों की तारीफ़-ओ-तहसीन और उनसे शिकवे-शिकायत शायरी में आम है। लबों की ख़ूबसूरती और उनकी ना-ज़ुकी के मज़मून को शायेरों ने नए नए दढिंग से बाँधा है । लबों के शेरी बयान में एक पहलू ये भी रहा है कि उन पर एक गहरी चुप पड़ी हुई है, वो हिलते नहीं आशिक़ से बात नहीं करते। ये लब कहीं गुलाब की पंखुड़ी की तरह नाज़ुक हैं तो कहीं उनसे फूल झड़ते हैं। इस मज़मून में और भी कई दिल-चस्प पहलू हैं। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
हुस्न अदाओं से ही हुस्न बनता है और यही अदाएं आशिक़ के लिए जान-लेवा होती है। महबूब के देखने मुस्कुराने, चलने, बात करने और ख़ामोश रहने की अदाओं का बयान शायरी का एक अहम हिस्सा है। हाज़िर है अदा शायरी की एक हसीन झलक।
बयान-ए-ग़ालिब
आग़ा मोहम्मद बाक़र
व्याख्या
Islam Ka Maashi Nazariya
मज़हरुद्दीन सिद्दीक़ी
इस्लामियात
अरूज़ आहंग और बयान
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
छंदशास्र
Zatal Nama
जाफ़र ज़टल्ली
शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा
Inshaiya Ki Buniyad
सलीम अख़्तर
लेख
इल्म-ए-बयान
नसिरुद्दीन मोहम्मद असदुर रहमान क़ुद्सी
Shumara Number-001
यासमीन हमीद
बुनियाद
Bayan-e-Meer
अहमद महफ़ूज़
आलोचना
Tareekh Masjid-e-Nabawi
मोहम्मद मेराजुल इस्लाम
Urdu Ke Asaleeb-e-Bayan
सय्यद मोहीउद्दीन क़ादरी हादी
Lal Qila Ki Ek Jhalak
नासिर नज़ीर फ़िराक़ देहलवी
शिक्षाप्रद
Tazkira-e-Ahl-e-Dehli
सर सय्यद अहमद ख़ान
तज़्किरा / संस्मरण / जीवनी
Dastan-e-Ameer Hamzah Zabani Bayaniya, Bayan Kuninda Aur Samayeen
व्याख्यान
Ghalib Ka Tanqeedi Shuoor
अख़लाक़ हुसैन अारिफ़
Tareekh-e-Aurangabad Khujista Bunyad
मौलवी अब्दुल हई
सांस्कृतिक इतिहास
हमने सही सही बता दिया, झूम ही तो गए। कहने लगे, "मैं भी एक साल उधर काट चुका हूँ। वहां के बाजरे की खिचड़ी की तो दूर दूर तक धूम है।"मज़ीद जिरह की हममें ताब न थी। लिहाज़ा उन्होंने अपने आप को हमारे हाँ मुलाज़िम रख लिया। दूसरे दिन पुडिंग बनाते हुए उन्होंने ये इन्किशाफ़ किया कि मैंने बारह साल अंग्रेज़ों की जूतियां सीधी की हैं, इसलिए बैठ कर चूल्हा नहीं झोंकूँगा। मजबुरन खड़े हो कर पकाने का चूल्हा बनवाया।
मैंने कहा, “अस्बाब कहाँ है आपका?”“लाती हूँ।” ये कह कर वो डिब्बे के अंदर दाख़िल हुई। दो सूटकेस और एक बिस्तर निकाला। मैंने क़ुली बुलवाया। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उसने मुझ से कहा, “मैं होटल में ठहरूंगी।”
एक भाई है सो वो भी मिलिट्री मैन है... साल भर बाद जब आता है तो वो फ़ासले उबूर नहीं किए जा सकते जो उसकी अदम मौजूदगी पैदा करती है। सरताज क्या तुम मेरी बहन बनना गवारा करोगी? बोलो सरताज, क्या तुम मुझे अपना भाई बनाओगी? आह सरताज, कहो क्या मैं इतना ख़ुशनसीब हो सकता हूँ कि हम दोनों बहन भाई बन सकें। मुझे मायूस न करना। तुम्हारा भाई सज्जाद।”ख़त लिख कर वो मुतमइन हो गया, जैसे सीने का एक्स-रे साफ़ निकल आए। अब गंदे ख़्यालात का धुआँ आप ही आप दूदकश से निकलने लगा और साफ़ बेदाग़ आग सीने में दहक उठी। ये ख़त उसने दूसरे दिन केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल के बाद कापी में छुपा कर दिया। वो अकेली बरामदे में चली जा रही थी जब सज्जाद उसके बराबर पहुंच गया। वो नख़्ल-ए-ताबूत की तरह ख़ूबसूरत लेकिन बेजान हो रहा था। हथेलियों में पसीना और तलवों में जलन सी महसूस होने लगी थी।
बुनयान-ए-उम्र सुस्त है और मुनइ'मान-ए-दहरमग़रूर अपने को शक-ए-आली बिना के हैं
जब तक शौकत वहां रहा, बड़े हंगामे रहे, क्रेवन ए के सिगरेट और नासिक की हिरन मार्का व्हिस्की जो बड़ी वाहियात थी। लेकिन इस के सिवा और कोई चारा ही न था। शौकत 'ख़ानदान' के बाद गो बहुत बड़ा डायरेक्टर बन गया था। मगर लाहौर से बंबई पहुंचने और वहां कुछ देर रहने के दौरान में वो सब कुछ ख़र्च हो चुका था जो उसने लाहौर में फ़िल्म की हंगामी और अख़राजात से पुर ज़िंदग...
मेरी हर बात बे-असर ही रहीनुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
वो शख़्स कुछ दूर फ़सील के साथ-साथ चलता रहा। फिर एक गली में होता हुआ दुबारा शहर के अंदर पहुँच गया। हम बदस्तूर उसके पीछे लगे रहे। वो बाज़ार में चलते-चलते एक पनवाड़ी की दुकान पर रुक गया। हम समझे कि शायद पान खाने रुका है। मगर न तो उसने जेब से पैसे निकाले और न पनवाड़ी ने उसे पान ही बना के दिया। अलबत्ता उन दोनों में कुछ बातचीत हुई जिसे हम नहीं सुन सके। फि...
अगर आपको ऑस्कर वाइल्ड की राय से इत्तफ़ाक़ है कि आर्ट का असल मक़सद क़ुदरत की ख़ामकारियों की इस्लाह और फ़ित्रत से फ़ी सबील अल्लाह जिहाद है, तो लाज़िमी तौर पर ये मानना पड़ेगा कि हर बदसूरत औरत आर्टिस्ट है। इसलिए कि होश सँभालने के बाद उसकी सारी तग-ओ-दो का मंशा स्याह को सफ़ेद कर दिखाना, वज़न घटाना और हर सालगिरह पर एक मोमबत्ती कम करना है। उम्र की तसदीक़ तो शायद बलदिया के “रजिस्टर पैदाइश-ओ-अमवात” से की जा सकती है लेकिन एक दूसरे के वज़न के मुताल्लिक़ भारी से भारी बोहतान लगाया जा सकता है। राई का पहाड़ और गर्मी दाने का मस्सा बनाना लतरी औरतों के बाएं हाथ का खेल है। वो औरत जिसे ख़ुद अपनी आँखों के गिर्द स्याह हलक़े नज़र नहीं आते, दूसरे की झाइयों पर बेझिजक अपनी बड़े हुए नाख़ुन वाली उंगली उठाते वक़्त ये भूल जाती है कि हर गुल के साथ ख़ार और हर मुँह पर मुहासा है।
हामिद ने कुछ देर सोच कर एक ठिकाना बताया। टैक्सी ने उधर का रुख़ किया। थोड़ी ही देर के बाद बंबई का सबसे बड़ा दलाल उनके साथ था। उसने मुख़्तलिफ़ मुक़ामात से मुख़्तलिफ़ लड़कियां निकाल निकाल कर पेश कीं मगर हामिद को कोई पसंद न आई, वो नफ़ासतपसंद था। सफ़ाई का शैदा था। ये लड़कियां सुर्ख़ी पाउडर के बावजूद उसको गंदी दिखाई दीं। इसके इलावा उनके चेहरों पर कस्बियत की मोहर...
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