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ग़ज़ल
बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
उस की दुज़्दीदा निगह ने मिरे दिल में छुप कर
तीर इस ढब से लगाया है कि जी जाने है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
तिरछी नज़रों में वो उलझी हुई सूरज की किरन
अपने दुज़्दीदा इशारों में गिरफ़्तार आँखें
अली सरदार जाफ़री
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नअत
मदीने का सफ़र है और में नम-दीदा नम-दीदा
जबीं अफ़्सुर्दा अफ़्सुर्दा क़दम लग़ज़ीदा लग़ज़ीदा
इक़बाल अज़ीम
नज़्म
इत्तिफ़ाक़ात
आज, इस साअत-ए-दुज़दीदा-ओ-नायाब में भी,
जिस्म है ख़्वाब से लज़्ज़त-कश-ए-ख़म्याज़ा तिरा
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
तेरी दुज़दीदा-निगाही यूँ तो ना-महसूस थी
हाँ मगर दफ़्तर का दफ़्तर हुस्न का पैग़ाम था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
बहर-ए-ख़ुदा ख़ामोश रहो बस देखते जाओ अहल-ए-नज़र
क्या लग़ज़ीदा-क़दम हैं उस के क्या दुज़दीदा-निगाही है