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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
रंग गर्दूं का ज़रा देख तो उन्नाबी है
ये निकलते हुए सूरज की उफ़ुक़-ताबी है
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
एक आरज़ू
मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को
सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इस वक़्त तो यूँ लगता है
इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज, न अँधेरा न सवेरा