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ग़ज़ल
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए
मिर्ज़ा ग़ालिब
मर्सिया
ग़फ़लत का तो दिल चौंक पड़ा ख़ौफ़ से हिल कर
फ़ितने ने किया ख़ूब गले कुफ्र से मिल कर
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
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ग़ज़ल
'जलील' उस की तलब से बाज़ रहना सख़्त ग़फ़लत है
ग़नीमत जानिए उस को कि वो मुश्किल से मिलता है
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
आह ये ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ ग़फ़्लत की ख़ामोशी नहीं
आगही है ये दिलासाई फ़रामोशी नहीं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील
जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये गधा जो अपनी ग़फ़्लत से है बेवक़ूफ़ इतना
जो ये ख़ुद को जान जाता बड़ा होशियार होता