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नज़्म
आज शब कोई नहीं है
ख़्वाब-दर-ख़्वाब महल्लात के दर वा हैं कई
और मकीं कोई नहीं है,
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गुज़र सकूँगा न इस ख़्वाब ख़्वाब बस्ती से
यहाँ की मिट्टी भी ज़ंजीर-ए-पा है मेरे लिए