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ग़ज़ल
हुई जाती है तन्हाई में लज़्ज़त रूह की ज़ाएअ'
लुटा जाता है वीराने में गंज-ए-शाएगाँ मेरा
जगत मोहन लाल रवाँ
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ग़ज़ल
शुक्र-ए-ख़ुदा कि ज़ुल्म से मा'ज़ूर है फ़लक
बर्तानिया है ख़ल्क़ की ग़म-ख़्वार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
नज़्म
तेरे ब'अद
गंज-ए-उम्मीद-ओ-तरब छीन के रू-पोश हुई
सामने आई न फिर मेरे क़ज़ा तेरे बाद