aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "तज्ज़िया"
इमाम इबने तैमिया
लेखक
इदारा तहक़ी-ओ-तज़किरा, अहमदपुर
पर्काशक
सर्व त्रिया कृष्ण स्वरूप
अनुवादक
तस्मिया ऑल इंडिया एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसाइटी, नई दिल्ली
उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक दूसरे से हम-आहंग कर दिया था। दोनों एक दूसरे में मुदग़म होगए थे। उन बेकरां गहराईयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक ख़ालिस इंसानी तस्कीन से महज़ूज़ होता है। ऐसी तस्कीन जो लम्हाती होने पर भी जाविदां थी। मुसलसल तग़य्युर पज़ीर होने पर भी मज़बूत और मुस्तहकम थी। दोनों एक ऐसा जवाब बन गए थे जो आसमान के नीले ख़ला में माइल...
अब तो मा'मूल सा बन गया है कि कहीं ता'ज़ियत या तज्हीज़-व-तकफ़ीन में शरीक होना पड़े तो मिर्ज़ा को ज़रूर साथ ले लेता हूँ। ऐसे मौक़ों पर हर शख़्स इज़्हार-ए-हम-दर्दी के तौर पर कुछ न कुछ ज़रूर कहता है। क़तअ'-ए-तारीख़-ए-वफ़ात ही सही। मगर मुझे न जाने क्यूँ चुप लग जाती है, जिससे बा'ज़ औक़ात न सिर्फ़ पसमांदिगान को बल्कि ख़ुद मुझे भी बड़ा दुख होता है। लेकिन मिर्ज़ा ने चुप होना सीखा ही नहीं। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि सही बात को ग़लत मौक़े पर बे-दग़दगा कहने की जो खुदा दाद सलाहियत उन्हें वदीअ'त हुई है वह कुछ ऐसी तक़रीब में गुल खिलाती है। वह घुप्प अंधेरे में सर-ए-रहगुज़र चराग़ नहीं जलाते, फुलझड़ी छोड़ते हैं, जिससे बस उनका अपना चेहरा रात के सियाह फ़्रेम में जगमग-जगमग करने लगता है और फुलझड़ी का लफ्ज़ तो यूँ ही मरव्वत में क़लम से निकल गया वर्ना होता ये है कि,
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिनफिर भी जब पास तू नहीं होती
क़िस्सा मुख़्तसर ये कि जमील उस हसीन-ओ-जमील लड़की की मोहब्बत में ख़ुद को अपनी तज्ज़िया-ए-ख़ुदी के बाइस गिरफ़्तार न करा सका। मगर उसकी ख़्वाहिश बदस्तूर मौजूद थी। एक और ख़ूबरू लड़की उसकी तलाश करने वाली निगाहों के सामने आई और उसने फ़ौरन तहय्या कर लिया कि उस से इ’श्क़ लड़ाना शुरू कर देगा।जमील ने सोचा कि उससे ख़त-ओ-किताबत की जाए, चुनांचे उसने पहले ख़त के कई मुसव्वदे फाड़ने के बाद एक आख़िरी, इ’श्क़-ओ-मोहब्बत में शराबोर, तहरीर मुकम्मल की, जो मैं यहां मिन-ओ-अ’न नक़ल करता हूँ:
लिहाज़ा वो निशानियां जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हैं, उनको पहचानने से हमारा मसला हल नहीं होता और न उन निशानियों का ज़िक्र करने से हमारी मुश्किल आसान होती है, जिनको अव्वल तो पहचानना मुश्किल है और अगर पहचान भी लिया जाये तो ये बताना मुश्किल है कि शे’र की उन तक रसाई क्यूँकर हुई। हमें तो उन निशानियों की तलाश है जो सिर्फ़ शे’र में पाई जाती हैं, या अगर नस...
एक तख़्लीक़कार ज़िन्दगी को जितने ज़ावियों और जितनी सूरतों में देखता है वो एक आम शख़्स के दायरे से बाहर होता है । ज़िन्दगी के हुस्न और उस की बद-सूरती का जो एक गहिरा तज्ज़िया शेर-ओ अदब में मिलता है उस का अन्दाज़ा हमारे इस छोटे से इन्तिख़ाब से लगाया जा सकता है । ज़िन्दगी इतनी सादा नहीं जितनी बज़ाहिर नज़र आती है उस में बहुत पेच हैं और उस के रंग बहुत मुतनव्वे हैं । वो बहुत हमदरद भी है और अपनी बाज़ सूरतों में बहुत सफ़्फ़ाक भी । ज़िन्दग की इस कहानी को आप रेख़्ता पर पढ़िए।
लखनऊ भी एक शहर है जो दिल्ली की तरह आलम में इन्तिख़ाब तो नहीं लेकिन अपनी तहज़ीबी, सक़ाफ़ती और तारीख़ी ख़ुसूसियात की बिना पर एक इम्तियाज़ी मक़ाम रखता है। शायरों ने लखनऊ को उस की इन्हीं ख़ुसूसियात की बिना पर शायरी में ख़ूब बर्ता है। कोई उस की शामों को याद करता है तो कोई उस की अदबी महफ़िलों का तज़्किरा करता है और कोई उस के दरबारों की रंगीनी का असीर है। हम लखनऊ को मौज़ू बानाने वाले चंद शेरों को आप के लिए पेश कर रहे हैं।
महबूब के बारे मे कौन सुनना या कुछ सुनाना नहीं चाहता। एक आशिक़ के लिए यही सब कुछ है कि महबूब की बातें होती रहें और उस का तज़किरा चलता रहे। महबूब के तज़किरे की इस रिवायत में हम भी अपनी हिस्से दारी बना रहे हैं। हमारा ये छोटा सा इन्तिख़ाब पढ़िए जो महबूब की मुख़्तलिफ़ जहतों को मौज़ू बनाता है।
तज्ज़ियाتجزیہ
separation, analysis
तज्ज़ियाتجزیہ
अदबी तहक़ीक़
रशीद हसन ख़ाँ
आलोचना
उर्दू ख़ुद नविशत फ़न-ओ-तजज़िया
वहाजुद्दीन अलवी
अफ्सानवी अदब
अज़ीमुश्शान सिद्दीक़ी
फ़िक्शन तन्क़ीद
इन्सानी किरदार
ज़किया मशहदी
महिलाओं की रचनाएँ
फ़न-ए-तज़मीन निगारी: तन्क़ीद-ओ-तज्ज़िया
शैख़ अक़ील अहमद
तंक़ीद-ओ-तजज़िया
अबु मोहम्मद सहर
Mahboob-e-Zil-Manan Tazkira-e-Auliya-e-Dakan
मोहम्मद अब्दुल जब्बार ख़ान
तज़किरा
तल्ख़ियाँ
साहिर लुधियानवी
काव्य संग्रह
Lucknow Ka Dabistan-e-Shairi
अबुल्लैस सिद्दीक़ी
इतिहास
Fort William College
वक़ार अज़ीम
साहित्यिक आंदोलन
उर्दू तज़्किरा निगारी
रईस अहमद
तज़्किरा / संस्मरण / जीवनी
Punjabi Shairaan Da Tazkira
मियां मौला बख्श कुश्ता
सूफ़ीवाद / रहस्यवाद
उर्दू शोरा के तज़्किरे और तज़्किरा निगारी
फ़रमान फ़तेहपुरी
Tazkirah Auliya-e-Hind-o-Pakistan
मुफ़ती वली हसन टोंकी
इक़बाल की नज़्मों का तज्ज़ियाती मुताला
साहिल अहमद
शोध
ऐसा क्यों हुआ? मैंने कहा है जो शख़्स हक़ीक़तन अमीर हों वो ज़ाहिरी शान की चंदाँ फ़िक्र नहीं करते,जो लोग सचमुच अमीर हों उन्हें तो फटा हुआ कोट बल्कि क़मीस भी तकल्लुफ़ में दाख़िल समझनी चाहिए, तो क्या मैं सचमुच अमीर था कि...? मैंने घबरा कर ज़ाती तजज़िया छोड़ दिया और ब-मुश्किल दस का नोट सही सलामत लिये घर पहुँचा।
“कहीं सैर वग़ैरा को ले चलूं?”“चलो तुम्हें ताजी से मिला लाएंगे, तुम ख़ुद देखोगे कि पाकीज़ा लड़कियां कैसी होती हैं।” ये जुमला उसने मुदावे के तौर पर कहा था लेकिन फ़वाद के दिल में ताजी को देखने की बड़ी शदीद तमन्ना जाग उठी। उस तमन्ना में से चक़माक़ की सी चिनगारियां जल बुझ उठीं और वो ये तजज़िया न कर पाया कि वो ताजी को क्यों देखना चाहता है?
मैं तज्ज़िया नहीं करना चाहता... हो सकता है आप, जब सादिक़ का हाल मुझसे सुनें तो उसको इंसानों की किसी और ही सफ़ में खड़ा कर दें, जिसमें बाबू गोपी नाथ की मूंछ का एक बाल भी न आ सका हो, लेकिन मैं समझूंगा कि आपके तज्ज़िये में ग़लती हुई है और मैं आप से दरख़ास्त करूंगा कि उसे उस सफ़ से निकाल कर उस सफ़ में शामिल कर दीजिए जिसमें आपका बाबू गोपी नाथ मौजूद है।मैं अफ़साना निगार नहीं... मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ के हालात आपने मिन-ओ-अन बयान किए हैं इनमें कुछ रद्द-ओ-बदल किया है... बहरहाल जो कुछ भी है बहुत ख़ूब है और कुछ इस अफ़साने में है। अगर इसके मुताबिक़ बाबू गोपी नाथ नहीं चला तो लअनत है उस पर... और अगर वो ऐसा ही था जैसा कि अफ़साने में है तो उसपर ख़ुदा की रहमत हो... यक़ीन मानिए ऐसे लोग परस्तिश के क़ाबिल होते हैं और सादिक़ का शुमार भी ऐसे ही लोगों में होता है।
अनवर ने बरसाती में जाना मुनासिब न समझा और नीचे बैठक में चला गया। बिमला के बारे में उस ने सोचने की कोशिश की मगर उसके दिमाग़ ने उसकी रहबरी न की। वो बिमला के दुख दर्द का सही तजज़िया न कर सका, वो सिर्फ़ इतना सोच सका कि उसको सिर्फ़ इस बात का ग़म है कि उसकी माँ ज़िंदा नहीं।शाम को अनवर ने अपनी बहन से बिमला के बारे में पूछा तो उस ने कहा, “मालूम नहीं क्या दुख है बेचारी को... अपने बाप का बार बार ज़िक्र करती थी कि उनको जाने क्या रोग है और बस!”
पहले अपना तज्ज़िया करने पे उकसाया मुझेफिर नतीजा-ख़ेज़ियों को बे-ज़बानी दे गया
Balthasar, Then she is well and nothing can be ill. (V. 1.4۔ 17)रोमीयो, How is my lady की जगह How doth my lady कहता है। दोनों के मअनी एक हैं, लेकिन to do के एक क़दीम मअनी to go भी हैं और to go के एक मअनी to die भी हैं। दूसरी सतर में fares के मअनी वही हैं जो doth के हैं लेकिन fares की आवाज़ fair’s की सी है, जो मुख़फ़्फ़फ़ है fair is का, यानी,How fair is my lady. और fair के कई मअनी हैं “ख़ूबसूरत”, “अच्छी हालत में”, “तंदुरुस्त”, “इंसाफ़ पसंद” वग़ैरा। जूलियट चूँकि मर चुकी है इसलिए ये मअनी ईहाम की तंज़िया कैफ़ियत के हामिल हैं और अगली सतरों में ill और well से मुनासिबत भी रखते हैं।
मैं इस बात का इआदा करना चाहता हूँ कि मेरा मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि अगर ऐनी हैसियत से साहिब-ए-ज़ौक़ का वुजूद नहीं है या अगर शायर का मिसाली क़ारी ख़ुद शायर ही हो सकता है तो फिर शे’र से लुत्फ़ अंदोज़ होने, उसको पसंद नापसंद करने, उसकी तफ़हीम व तजज़िया करने के तमाम उसूल-ओ-आमाल बेमानी या फ़ुज़ूल या लाहासिल हैं। मैं सिर्फ़ ये कह रहा हूँ कि शायरी को मतऊन करने वालो...
अक्सर नावाक़िफ़ एतराज़ कर बैठते हैं, भला ये भी कोई नाम हुआ। लेकिन एक दफ़ा उन्हें देख लें तो कहते हैं, ठीक ही है। प्रोफ़ेसर ने उनकी शख़्सियत का तजज़िया बल्कि पोस्टमार्टम करते हुए एक दफ़ा बड़े मज़े की बात कही। फ़रमाया, उनकी शख़्सियत में से “बैंक बैलेंस” और “ब्यूक” निकाल दें तो बाक़ी क्या रह जाता है?
जब कभी उन की जफ़ाओं की शिकायत की हैतजज़िया अपनी वफ़ा का भी किया है मैं ने
पायान-ए-कार ख़त्म हुआ जब ये तज्ज़ियामैं ने कहा हुज़ूर तो बोले कि शुक्रिया
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