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हिंदी ग़ज़ल
न शम्अ है न परवाने ये कैसा रंग-ए-महफ़िल है
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए
बलबीर सिंह रंग
ग़ज़ल
कैसा बिखर के रह गया हुस्न-ए-तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू
तोड़ दिया ख़िज़ाँ ने आज आइना-ए-बहार क्या
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
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ग़ज़ल
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के सेहर से निकले हैं जब
हम को अक्सर दिन में भी तारे नज़र आने लगे
जमील उस्मान
ग़ज़ल
याद आता है कि ख़ुद को नौजवाँ समझा था मैं
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को गुल्सिताँ समझा था मैं
आग़ा नगीनवी
ग़ज़ल
ख़ुदी से इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को तोड़ सकते हैं
यही तौहीद थी जिस को न तू समझा न मैं समझा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिरे ख़याल की नुदरत किसी को क्या मा'लूम
तिलिस्म-ए-रंग-ए-तमन्ना है अब हुआ मा'लूम