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ग़ज़ल
वो गुल-बदन का अजब है मिज़ाज-ए-रंगा-रंग
फ़जर कूँ लुत्फ़ तो फिर शाम कूँ सितम का सितम
सिराज औरंगाबादी
नज़्म
होली
है ये रंगा-रंग का त्यौहार हम सब के लिए
ताकि रौशन हों हर इक दिल में मोहब्बत के दिए
हबीब अहमद अंजुम दतियावी
ग़ज़ल
महव थे गुल्ज़ार-ए-रंगा-रंग के नक़्श-ओ-निगार
वहशतें थी दिल के सन्नाटे थे दश्त-ए-शाम था
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
नग़्मा-ए-वतन
चमन की बज़्म-ए-रंगा-रंग में रक़्साँ है यक-रंगी
कि इस का साज़-ए-सद-आवाज़ भी है हम-ज़बाँ अपना
राम लाल वर्मा हिंदी
कुल्लियात
ने'मत-ए-रंगा-रंग-ए-हक़ से बहरा बख़्त-ए-सियह को नहीं
साँप रहा गो गंज के ऊपर खाने को तो खाई ख़ाक
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
रंगा-रंग चमन में अब के मौसम-ए-गुल में आए गुल
हम तो उस बिन दाग़ ही थे सो और भी जल कर खाए गुल