aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "परिंदा"
प्रिया ताबीता
शायर
प्रिया शंदिल्या
born.1995
अशोक प्रिया दरशी
पर्काशक
प्रिया दर्शी
मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगापरिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए
निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से इक परिंदाअब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी हैपरिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है
इक परिंदा अभी उड़ान में हैतीर हर शख़्स की कमान में है
मैं भी तो इस बाग़ का एक परिंदा हूँमेरी ही आवाज़ में मुझ को गाने दे
शायरी अपने जौहर को पेश करने के लिए हमारे आस-पास के तत्वों की सम्भावनाओं को उपयोग में लाती है । इसलिए जब उर्दू शायरी पंछी को अपना पात्र बनाती है तो ये शायरी में सिर्फ़ परिंदा नहीं रहता बल्कि आज़ादी और बुलंदी आदि का प्रतीक बन जाता है । ये और भी कई स्तर पर ज़िंदगी में प्रोत्साहन का प्रतीक बन कर सामने आता है । उदाहरण के तौर पर परिंदों का विदा हो जाना ज़िंदगी की मासूमियत का समाप्त हो जाना है । आधुनिक शहरी जीवन की एक पीड़ा ये भी है कि यहाँ से परिंदों की चहचहाट ग़ायब हो गई है । इसी तरह के तजरबे से सजी चुनिंदा शायरी का एक संकलन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
परवाना उर्दू शायरी का वह इस्तिआरा है जिसने इश्क़ करने वालों के जांनिसारी के जज़्बे को अमर कर दिया। एक पतंग जो रोशनी पर दीवानों की तरह कुर्बान होता है, कैसे उर्दू शायरों के दर्मियान इस क़दर हर-दिल-अज़ीज़ है, इस राज़ से पर्दा उठाने के लिए परवाना शायरी का यह इंतिख़ाब शायद काफ़ी हो। आइये एक निगाह डालते चलेः
सुब्ह का वक़्त अपनी शफ़्फ़ाक़ियत, ताज़गी, ख़ुश-गवार फ़ज़ा, परिंदों की चहचहाहट और कई वजहों से सब को पसंद होता है अपनी इन सिफ़ात के हवाले से इस का इस्तिक़बाल शायरी में हुआ है। इस के अलावा सुब्ह की आमद कई अलामती जहतें भी रखती है एक सतह पर ये सियाह रात के ख़िलाफ़ जंग के बाद की सुब्ह है और एक नई जद्द-ओ-जहद के आग़ाज़ का इब्तिदाइया भी। हमारे इस इन्तिख़ाब में आप सुब्ह को और कई रंगों में देखेंगे।
परिंदाپرندہ
bird, winged creature
दुख लाल परिंदा है
अली मोहम्मद फ़र्शी
माहिया
कहानियाँ परिंदों की
इदरीस सिद्दीक़ी
कहानी
सत रंगे परिंदे के तआक़ुब में
रशीद अमजद
अफ़साना
परिंदा पकड़ने वाली गाड़ी
ग़यास अहमद गद्दी
तजदीद-ए-जुनून
राब्रट कन्कुइस्ट
नज़्म
पर्दा है साज़ का
साजिदा ज़ैदी
कविता
वह और परिंदा
पस-ए-पर्दा
शेर मोहम्मद अख़्तर
नॉवेल / उपन्यास
पर्दा-ए-ग़फ़्लत
सय्यद आबिद हुसैन
नाटक / ड्रामा
पर्दा
मोहम्मद फ़ज़लुर्रहमान
तालीम-ओ-परदा-ए-निसवाँ
लेख
अाग़ा हैदर देहलवी
मज़ामीन / लेख
कवि-प्रिया
केशव दास
Shumaara Number-000
मिसिज़ ख़ामोश
पर्दा नशीं
Shumaara Number-009
उदासी आसमाँ है दिल मिरा कितना अकेला हैपरिंदा शाम के पुल पर बहुत ख़ामोश बैठा है
फँसता नहीं परिंदा है भी इसी फ़ज़ा मेंतंग आ गया हूँ दिल को यूँ दाम करते करते
खुली हवाओं में उड़ना तो उस की फ़ितरत हैपरिंदा क्यूँ किसी शाख़-ए-शजर का हो जाए
बरहना हैं सर-ए-बाज़ार तो क्याभला अंधों से पर्दा क्यों करें हम
सरहदें अच्छी कि सरहद पे न रुकना अच्छासोचिए आदमी अच्छा कि परिंदा अच्छा
इक 'इश्क़ नाम का जो परिंदा ख़ला में थाउतरा जो शहर में तो दुकानों में बट गया
परिंदा जानिब-ए-दाना हमेशा उड़ के आता हैपरिंदे की तरफ़ उड़ कर कभी दाना नहीं आता
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