परवाना पर शेर
परवाना उर्दू शायरी का
वह इस्तिआरा है जिसने इश्क़ करने वालों के जांनिसारी के जज़्बे को अमर कर दिया। एक पतंग जो रोशनी पर दीवानों की तरह कुर्बान होता है, कैसे उर्दू शायरों के दर्मियान इस क़दर हर-दिल-अज़ीज़ है, इस राज़ से पर्दा उठाने के लिए परवाना शायरी का यह इंतिख़ाब शायद काफ़ी हो। आइये एक निगाह डालते चलेः
परवाने की तपिश ने ख़ुदा जाने कान में
क्या कह दिया कि शम्अ के सर से धुआँ उठा
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
गुज़री है रात शम्अ पे क्या देखते चलें
जाने क्या महफ़िल-ए-परवाना में देखा उस ने
फिर ज़बाँ खुल न सकी शम्अ जो ख़ामोश हुई
शम्अ पर ख़ून का इल्ज़ाम हो साबित क्यूँ-कर
फूँक दी लाश भी कम्बख़्त ने परवाने की
होती कहाँ है दिल से जुदा दिल की आरज़ू
जाता कहाँ है शम्अ को परवाना छोड़ कर
मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं
आप सीं शौक़ पतंगों को है जल जाने का
ये अपने दिल की लगी को बुझाने आते हैं
पराई आग में जलते नहीं हैं परवाने
तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा
शम्अ होगी जहाँ परवाना वहाँ पहुँचेगा
ख़ाक कर देवे जला कर पहले फिर टिसवे बहाए
शम्अ मज्लिस में बड़ी दिल-सोज़ परवाने की है
ख़ुद ही परवाने जल गए वर्ना
शम्अ जलती है रौशनी के लिए
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
अजीब लोग हैं दीवाने होना चाहते हैं
मिस्ल-ए-परवाना फ़िदा हर एक का दिल हो गया
यार जिस महफ़िल में बैठा शम-ए-महफ़िल हो गया
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
परवाना कहाँ जाए शबिस्ताँ से निकल कर
ख़ुद भी जलती है अगर उस को जलाती है ये
कम किसी तरह नहीं शम्अ भी परवाने से
यूँ तो जल बुझने में दोनों हैं बराबर लेकिन
वो कहाँ शम्अ में जो आग है परवाने में
मूजिद जो नूर का है वो मेरा चराग़ है
परवाना हूँ मैं अंजुमन-ए-काएनात का
इश्क़ में निस्बत नहीं बुलबुल को परवाने के साथ
वस्ल में वो जान दे ये हिज्र में जीती रहे
परवाने आ ही जाएँगे खिंच कर ब-जब्र-ए-इश्क़
महफ़िल में सिर्फ़ शम्अ जलाने की देर है