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विसाल पर शेर

महबूब से विसाल की आरज़ू

तो आप सबने पाल रक्खी होगी लेकिन वो आरज़ू ही क्या जो पूरी हो जाए। शायरी में भी आप देखेंगे कि बेचारा आशिक़ उम्र-भर विसाल की एक नाकाम ख़्वाहिश में ही जीता रहता है। यहाँ हमने कुछ ऐसे अशआर जमा किए हैं जो हिज्र-ओ-विसाल की इस दिल-चस्प कहानी को सिलसिला-वार बयान करते हैं। इस कहानी में कुछ ऐसे मोड़ भी हैं जो आपको हैरान कर देंगे।

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर

दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए

अमीर मीनाई

कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया

यूँही उम्र सारी गुज़ार दी फ़क़त आरज़ू-ए-विसाल में

असअ'द बदायुनी

कल वस्ल में भी नींद आई तमाम शब

एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब

ममनून निज़ामुद्दीन

ठहरी जो वस्ल की तो हुई सुब्ह शाम से

बुत मेहरबाँ हुए तो ख़ुदा मेहरबाँ था

लाला माधव राम जौहर

वस्ल की शब थी और उजाले कर रक्खे थे

जिस्म जाँ सब उस के हवाले कर रक्खे थे

हैदर क़ुरैशी

देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ

वस्ल के रोज़ से भी उम्र मिरी कम हो जाए

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

इक रात दिल-जलों को ये ऐश-विसाल दे

फिर चाहे आसमान जहन्नम में डाल दे

जलाल लखनवी

मिलने की ये कौन घड़ी थी

बाहर हिज्र की रात खड़ी थी

अहमद मुश्ताक़

दरमियाँ जो जिस्म का पर्दा है कैसे होगा चाक

मौत किस तरकीब से हम को मिलाएगी पूछ

अभिनंदन पांडे

उस की क़ुर्बत का नशा क्या चीज़ है

हाथ फिर जलते तवे पर रख दिया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

हर इश्क़ के मंज़र में था इक हिज्र का मंज़र

इक वस्ल का मंज़र किसी मंज़र में नहीं था

अक़ील अब्बास जाफ़री

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ

दिल के बहकाने को इक बात बना रखी है

आग़ा शाएर क़ज़लबाश

कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'

बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना

हसरत मोहानी

भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले

कभी हमारे क़दम बढ़े कभी तुम्हारी झिजक गई

बशीर बद्र

उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं

तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है

फ़रहत एहसास

मिरा ग़ज़ाल कि वहशत थी जिस को साए से

लिपट गया मिरे सीने से आदमी की तरह

सज्जाद बाक़र रिज़वी

वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं

सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्ही की ज़बाँ के हैं

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का

कुल्ली करो हुज़ूर हुआ है दहन ख़राब

अहमद हुसैन माइल

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल

मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया

अमीर मीनाई

वस्ल का गुल सही हिज्र का काँटा ही सही

कुछ कुछ तो मिरी वहशत का सिला दे मुझ को

मरग़ूब अली

गुज़रने ही दी वो रात मैं ने

घड़ी पर रख दिया था हाथ मैं ने

शहज़ाद अहमद

दोस्त दिल रखने को करते हैं बहाने क्या क्या

रोज़ झूटी ख़बर-ए-वस्ल सुना जाते हैं

लाला माधव राम जौहर

वस्ल में मुँह छुपाने वाले

ये भी कोई वक़्त है हया का

हसन बरेलवी

अरमान वस्ल का मिरी नज़रों से ताड़ के

पहले ही से वो बैठ गए मुँह बिगाड़ के

लाला माधव राम जौहर

ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है

वस्ल की शब सही हिज्र का हंगाम तो है

हसन नईम

तर्ग़ीब-ए-गुनाह लहज़ा लहज़ा

अब रात जवान हो गई है

फ़िराक़ गोरखपुरी

रख आँसू से वस्ल की उम्मीद

खारे पानी से दाल गलती नहीं

शेख़ क़ुद्रतुल्लाह क़ुदरत

कहना क़ासिद कि उस के जीने का

वादा-ए-वस्ल पर मदार है आज

मर्दान अली खां राना

वस्ल हो या फ़िराक़ हो 'अकबर'

जागना रात भर मुसीबत है

अकबर इलाहाबादी

चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ

साहिर लुधियानवी

ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख दोस्त

तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई

फ़िराक़ गोरखपुरी

वो गले से लिपट के सोते हैं

आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में

मुज़्तर ख़ैराबादी

उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा

वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है

ख़ालिद यूसुफ़

सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए

फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने

क़मर अब्बास क़मर

जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना

वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था

जौन एलिया

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा

क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा

मीर तक़ी मीर

ये थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

मिर्ज़ा ग़ालिब

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी

तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी

जाँ निसार अख़्तर

ओस से प्यास कहाँ बुझती है

मूसला-धार बरस मेरी जान

राजेन्द्र मनचंदा बानी

कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है

तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

आप तो मुँह फेर कर कहते हैं आने के लिए

वस्ल का वादा ज़रा आँखें मिला कर कीजिए

लाला माधव राम जौहर

वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है

आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है

अमीर मीनाई

धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना

ज़रा से वस्ल ने कितना अकेला कर दिया है

हसन अब्बास रज़ा

वस्ल की रात है बिगड़ो बराबर तो रहे

फट गया मेरा गरेबान तुम्हारा दामन

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर

वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं

आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं

हसरत मोहानी

मिरी बहार में आलम ख़िज़ाँ का रहता है

हुआ जो वस्ल तो खटका रहा जुदाई का

जलील मानिकपूरी

हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में

वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं

अहमद मुश्ताक़

हिकायत-ए-इश्क़ से भी दिल का इलाज मुमकिन नहीं कि अब भी

फ़िराक़ की तल्ख़ियाँ वही हैं विसाल की आरज़ू वही है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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