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ग़ज़ल 43
शेर 117
कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा
मुझ को ग़ुस्से पे प्यार आता है
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
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गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना
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टैग : मुलाक़ात
पुस्तकें 60
चित्र शायरी 21
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ ज़ब्त कम-बख़्त ने याँ आ के गला घोंटा है कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ नक़्श-ए-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सज्दे सर मिरा अर्श नहीं है जो झुका भी न सकूँ बेवफ़ा लिखते हैं वो अपने क़लम से मुझ को ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ इस तरह सोए हैं सर रख के मिरे ज़ानू पर अपनी सोई हुई क़िस्मत को जगा भी न सकूँ