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ग़ज़ल 53
नज़्म 89
शेर 84
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
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मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझ को मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नहीं चार दिन की ये रिफ़ाक़त जो रिफ़ाक़त भी नहीं उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है ज़िंदगी यूँ तो हमेशा से परेशान सी थी अब तो हर साँस गिराँ-बार हुई जाती है मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में तू किसी ख़्वाब के पैकर की तरह आई है कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आई है कभी इख़्लास की मूरत कभी हरजाई है प्यार पर बस तो नहीं है मिरा लेकिन फिर भी तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ तू ने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें उन तमन्नाओं का इज़हार करूँ या न करूँ तू किसी और के दामन की कली है लेकिन मेरी रातें तिरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ की क़सम तेरी पलकें मिरी आँखों पे झुकी रहती हैं तेरे हाथों की हरारत तिरे साँसों की महक तैरती रहती है एहसास की पहनाई में ढूँडती रहती हैं तख़्ईल की बाँहें तुझ को सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में तेरा अल्ताफ़-ओ- करम एक हक़ीक़त है मगर ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम दिल के ख़ूँ करने का एक और बहाना ही न हो कौन जाने मिरे इमरोज़ का फ़र्दा क्या है क़ुर्बतें बढ़ के पशेमान भी हो जाती हैं दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें देखते देखते अंजान भी हो जाती हैं मेरी दरमांदा जवानी की तमन्नाओं के मुज़्महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझ को मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझ को
न मुँह छुपा के जिए हम न सर झुका के जिए सितमगरों की नज़र से नज़र मिला के जिए अब एक रात अगर कम जिए तो कम ही सही यही बहुत है कि हम मिशअलें जला के जिए
जहाँ जहाँ तिरी नज़रों की ओस टपकी है वहाँ वहाँ से अभी तक ग़ुबार उठता है जहाँ जहाँ तिरे जल्वों के फूल बिखरे थे वहाँ वहाँ दिल-ए-वहशी पुकार उठता है
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया ये इंसाँ के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूके रिवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है हर इक जिस्म घायल हर इक रूह प्यासी निगाहों में उलझन दिलों में उदासी ये दुनिया है या आलम-ए-बद-हवासी ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है यहाँ इक खिलौना है इंसाँ की हस्ती ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जवानी भटकती है बद-कार बन कर जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर यहाँ प्यार होता है बेवपार बन कर ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है जहाँ प्यार की क़द्र ही कुछ नहीं है ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया मिरे सामने से हटा लो ये दुनिया तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
मिरे जहाँ में समन-ज़ार ढूँडने वाले यहाँ बहार नहीं आतिशीं बगूले हैं धनक के रंग नहीं सुरमई फ़ज़ाओं में उफ़ुक़ से ता-बा-उफ़ुक़ फाँसियों के झूले हैं फिर एक मंज़िल-ए-ख़ूँ-बार की तरफ़ हैं रवाँ वो रहनुमा जो कई बार राह भूले हैं बुलंद दा'वा-ए-जम्हूरियत के पर्दे में फ़रोग़-ए-मजलिस-ओ-ज़िन्दाँ हैं ताज़ियाने हैं ब-नाम-ए-अम्न हैं जंग-ओ-जदल के मंसूबे ब-शोर-ए-अद्ल तफ़ावुत के कार-ख़ाने हैं दिलों पे ख़ौफ़ के पहरे लबों पे क़ुफ़्ल सुकूत सुरों पे गर्म सलाख़ों के शामियाने हैं मगर हटे हैं कहीं जब्र और तशद्दुद मिटे वो फ़लसफ़े कि जिला दे गए दिमाग़ों को कोई सिपाह-ए-सितम पेशा चूर कर न सकी बशर की जागी हुई रूह के अयाग़ों को क़दम क़दम पे लहू नज़र दे रही है हयात सिपाहियों से उलझते हुए चराग़ों को रवाँ है क़ाफ़िला-ए-इर्तिक़ा-ए-इंसानी निज़ाम-ए-आतिश-ओ-आहन का दिल हिलाए हुए बग़ावतों के दुहल बज रहे हैं चार तरफ़ निकल रहे हैं जवाँ मिशअलें जलाए हुए तमाम अर्ज़-ए-जहाँ खोलता समुंदर है तमाम कोह-ओ-बयाबाँ हैं तिलमिलाए हुए मिरी सदा को दबाना तो ख़ैर मुमकिन है मगर हयात की ललकार कौन रोकेगा फ़सील-ए-आतिश-ओ-आहन बहुत बुलंद सही बदलते वक़्त की रफ़्तार कौन रोकेगा नए ख़याल की पर्वाज़ रोकने वालो नए अवाम की तलवार कौन रोकेगा पनाह लेता है जिन मजलिसों में तीरा निज़ाम वहीं से सुब्ह के लश्कर निकलने वाले हैं उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में अहमरीं परचम किनारे मश्रिक-ओ-मग़रिब के मिलने वाले हैं हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उठें वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं